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Showing posts from May, 2011
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अजनबी हूँ इस शहर में,  खामोश रहता हूँ.... निगाहें बोलती हैं मेरी... हर दर्द सहता हूँ... ये कैसा रंजो-गम का आलम है, क्यूँ है बेकरारी यहाँ, कि संग अपने दर्द के... मै पिघले सीसे  सा बहता हूँ... अजनबी हूँ इस शहर में, खामोश रहता हूँ.... वीरानियाँ सी छाई हैं,  हर पल उदासी है, न आती मुस्कराहट लबों पर, हर तमन्ना प्यासी है.... क्यूँ कर ज़िन्दगी से फिर भी ना,  कुछ मै कहता हूँ.... अजनबी हूँ इस शहर में, खामोश रहता हूँ...... मुर्दा सा हर इंसान है, हर भावना मृत है.... अब पी लूँ मै विष भी तो क्या, वो भी अमृत है... जो मर-मर के ही जीना है मुझे मुर्दों की बस्ती में, तो बनके मै भी पाषण अब, पत्थर सा जीता हूँ.... अजनबी हूँ इस शहर में,  खामोश रहता हूँ....... - रोली पाठक 
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(मदर्स डे पर अपनी व हर माँ को समर्पित ) माँ बनकर ही जाना सच्चा प्रेम किसे कहते हैं.... जिसके आँचल तले बचपन गुज़र गया.... वे हाथ अब भी मुझे आशीष देते हैं... माँ हैं, नानी हैं और दादी हैं वो, हर रूप में वो हमें अथाह प्यार देते  हैं... माँ बनकर ही जाना, सच्चा प्रेम किसे कहते हैं... जब छोटे थे, माँ से प्यार बहुत था, अब जाना माँ का प्रेम, समर्पण,सेवा... रातों को जाग-जाग कर, बच्चों को सपने देते हैं.... माँ बनकर ही जाना, सच्चा प्रेम किसे कहते हैं......
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सावन की प्रतीक्षारत परिंदे बैठे हैं शाख पर, जेठ की दुपहरी जला रही उनके पर.... किसी से उम्मीद नहीं, उन्हें दे सके दो बूँद नीर.... मेघ ही जब बरसेंगे तब, हरेंगे  उनकी पीर..... शुष्क कंठ, लाचार आँखों से, ढूंढ रहे दाना-पानी.... मेरी अटारी पे मिट्टी के कुल्हड़ में, रखा है मैंने, शीतल जल, कुछ दाने अनाज के और बहुत सा प्रेम... मेरा स्वार्थ भी है इसमें, मुझे सुनना है उनका कलरव, उनकी चहचहाहट.... देखनी है उनकी क्रीडा..... ऐ परिंदों, हर रोज़ तुम यूँ ही आ जाया करो, अपनी मीठी वाणी में मेरी अटारी पर, मधुर गीत तुम गाया करो........ गीत तुम गाया करो............