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Showing posts from December, 2010

आदत.....

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सर्द हवा के थपेड़ों से जूझते, देखती हूँ रोज़ सामने, बनती ईमारत के मजदूरों को... मिस्त्री, रेजा, सब जुटे हुए, इनके नन्हे-मुन्ने रेत में सने हुए, पूस की सर्द हवा में, देखती हूँ रोज़ सामने............ मेरे बच्चों को,   मोज़े,टोपी,स्वेटर में भी   लगती है ठण्ड... वे बच्चे नंगे बदन भी, सर्द हवा में,ठंडी रेत में, करते हैं अठखेलियाँ.... करुण-ह्रदय से इन नौनिहालों को, देखती हूँ रोज़ सामने........... बटोर कर पुराने गर्म कपडे, दे आई उन नन्हे-मुन्नों को, हैरान हूँ पर अब भी यह देख कर, वैसे ही उघाड़े बदन घूम रहे हैं वे, जिन्हें देखती हूँ रोज़ सामने......... पूछा जो उनकी माँ से,   हँस कर बोल पड़ी वो.. -"दीदी, उन्हें गर्मी लगने लगी, आदत नहीं है पड़ी... इन गर्म कपड़ों की"..... और.....फिर रोज़ यूँ ही   सिलसिला चलने लगा... शायद विधाता, भी है जानता, बनाया जिन्हें धन से   विपन्न,निर्धन.... दी उन्हें सहनशक्ति, सहने की, भूख, प्यास, गर्म-सर्द हर मौसम... मुझे भी आदत हो चली अब, सर्द हवा के थपेड़ों से जूझते, बनती ईमारत के मजदूरों को, देखने की रोज़ सामने.......... -र

परिंदे..............

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कितना सूना-सूना सा, ये जहाँ दिखता है... खो गए सारे परिंदे, अब तो बस मुट्ठी भर आसमाँ दिखता है.... ईंट-पत्थर से, बन गए ऊँचे-ऊँचे घरौंदे, अब तो बस झरोखे और मकाँ दिखता है..... ढूंढता हूँ परिंदों को, छत औ चौबारों में, अब ना कहीं उनका, नामो-निशाँ दिखता है.... तिनकों को कचरा कह, फेंक देता है इन्सां, जहाँ उसको, इनका आशियाँ दिखता है...... कहाँ जाये, कहाँ......रहें ये परिंदे, कि हर तरफ इमारतें और इन्सां दिखता है..... खो गया इनका कलरव, खो गई चहचहाहट, अब तो बस मशीनों का,धुंआ दिखता है..... -रोली पाठक