स्मृति-चिन्ह
अतीत के पन्ने उलटते
यूँ ही मिल गया सहसा
वो स्मृति-चिन्ह...
बना था साक्षी वह,
ना जाने कितनी यादों का
ना जाने कितने वादों का
बच गया कैसे यह
समय की कुद्रष्टि से
बह ना पाया क्यों ये
मेरे नयनों की अतिवृष्टि से...
चुक रही थी आस जब,
खो चुका विशवास जब,
क्यूँ अचानक दिख गया...
यह शुष्क आँसू तब...
हौले से मैंने उठाया,
टूट के वो गया झड़
बरसों पहले विलग हो के,
जैसे मै गया था बिखर...
थरथराते स्पर्श से पंखुड़ियों को,
कुछ यूँ समेटा..
तेरे भीगे आँचल को
जैसे तन से हो लपेटा..
हरेक बिखरे कतरे को,
पन्नो में फिर दबा दिया
भड़कती हुई चिंगारी को
एक बार फिर बुझा दिया...
यादों की राख तले मैंने,
फिर उसे दफना दिया....दफना दिया...
-रोली पाठक
http://wwwrolipathak.blogspot.com/
वाह्…………बहुत सुन्दर लिखा है।
ReplyDeleteसराहना के लिए धन्यवाद वंदना जी ...
ReplyDeletekomal bhavnaon ko bade hi sunder tarike se is kavita mein proya hai aapne.
ReplyDeleteअरे वाह! कायाकल्प हो गया ब्लोग का..अच्छा लग रहा है ...और कविता भी..। अक्सर स्मृति-चिह्न के रूप में गुलाब का फूल ही होता है जो कमोबेश हर इंसान के पास मिल जाएगा...आपकी इस कविता से अधिकतर लोग जुड़ाव महसूस करेंगे...बहुत बढ़िया....."
ReplyDeleteप्रणव जी, बहुत दिनों से सोच रही थी ब्लॉग की काया-कल्प करूँ...कुछ फीका-फीका सा लग रहा था, सावन की रिमझिम फुहारें दस्तक दे रही हैं तो चहुँ ओर चटक रंग होने चाहिए ना....आपको नए कलेवर में ब्लॉग पसंद आया...शुक्रिया.
ReplyDeleteThank you ADVET JI, MANOJ JI...
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति।
ReplyDeleteफिर उसे दफना दिया.. इस पंक्ति में सारा सार समाया है.. ▬► रोली.. मेरी समझ में प्रेम और विरह पर यह ऊँची किस्म की अभिव्यक्ति है..
ReplyDeleteस्वाति जी...जोगी...धन्यवाद.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति.......नए बिम्बों का संयोजन भी चार चाँद लगा रहा है. इस उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई
ReplyDeleteशानदार शब्द चयन , अच्छी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteराणा जी, अजय जी...बहुत-बहुत आभार.
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति ,
ReplyDeleteबहुत खूब ||
माँ सरस्वती का आशीर्वाद
सदा आपके ऊपर बना रहे ||