बेबसी
कैसी है उलझन जो सुलझती नहीं
गांठे रिश्तों की अब खुलती नहीं ............
चाहूँ सीधे रास्तों पे सफर तय करना
इस तरह मंजिल मगर मिलती नहीं ........
गीत तो कई सजे हुए हैं मेरे अधरों पर ,
क्या करूँ कि मन वीणा अब बजती नहीं ......
निर्झरिणी सा बहे जा रहा मेरा ये मन ,
काया है वहीँ जहाँ खुशियाँ मुझे मिलती नहीं ...........
रहना होगा जंजीर से जकड़ी हुई इस देह को,
पीड़ा रिश्तों की मगर, देख सकती नहीं.....
चाहूँ मै, कि तोड़ दूँ ये सारे मिथ्या बंधन ,
किन्तु नारी हूँ...पाषाण मै बन सकती नहीं..........
- रोली
मन के मन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सुषमा "आहुति" जी....
Deleteउफ़ नारी मन के भावों को सटीक उकेरा है
ReplyDeleteवंदना जी....आभार | इन भावों को समझने के लिए..आपका हार्दिक धन्यवाद |
Deleteमर्म स्पर्शी रचना
ReplyDeleteसादर
यशवंत माथुर जी..... शुक्रिया |
Delete"नारी हूं पाषाण बन सकती नहीं" - शास्वत सत्य
ReplyDeleteमार्मिक प्रस्त्तुति
राकेश कौशिक जी... हार्दिक धन्यवाद |
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