राष्ट्रगान के सम्मान पर प्रश्नचिन्ह !
उच्चतम न्यायालय का सिनेमाघरों में राष्ट्रगान अनिवार्य करने के फैसले के लगभग एक वर्ष बाद पुनः विवादित टिप्पणियाँ आई हैं ! इस बार उच्चतम न्यायालय ने अपने ही फैसले के विपरीत अजीबोगरीब तर्क देते हुए स्वयं को इस मामले से अलग-थलग बताया है ! राष्ट्रगान जैसे देशभक्ति व् संवेदनशील मुद्दे के विषय में माननीय न्यायालय द्वारा जो निर्देश व् टिप्पणियां आई हैं वे निश्चित ही अपमानजनक हैं ! कोर्ट ने कहा है कि - 'राष्ट्रगान के समय किसी को खड़े होने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, अदालतें अपने आदेश के द्वारा किसी के अन्दर देशभक्ति की भावना नहीं भर सकतीं ! केंद्र सरकार इस नियम में संशोधन पर विचार करे !'' कोर्ट की इस तरह की कठोर टिपण्णी कोंदुगल्लूर फिल्म सोसाइटी, केरल की याचिका की सुनवाई के दौरान कही गयीं हैं ! उच्चतम न्यायालय द्वारा इस तरह के निर्देश वाकई आश्चर्य एवं खेदजनक हैं !
सामान्यतः एक आम आदमी गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, अन्तराष्ट्रीय मैच या सिनेमा घरों में ही राष्ट्रगान का श्रवण या गायन करता है, किसी फिल्म के आरम्भ होने के पूर्व जब परदे पर राष्ट्रगान बजता है तब साथ में विडिओ भी होता है जिसमे भारतीय सेना के जवानो को विपरीत परिस्थिओं में सीमा पर सुरक्षा करते हुए दिखाया जाता है,इस एक मिनट से भी कम समय के हमारे देशभक्ति से ओतप्रोत राष्ट्रगान को सुन कर हरेक व्यक्ति ह्रदय से सम्मानस्वरूप स्वेच्छा से खड़ा होता है, यदि दक्षिण भारत में लोगों को राष्ट्रगान भाषा की समस्या के कारण समझ में नहीं आ पाता तो इसका अर्थ यह नहीं कि समझ में न आने पर कोई बैठे रह कर राष्ट्रगान का अपमान कर सकता है ! देश के हर एक नागरिक का यह मौलिक कर्तव्य है वह राष्ट्रगान का सम्मान करे ! न्यायालय ने यह भी कहा है कि - ''लोग सिनेमाघर में मनोरंजन के लिए जाते हैं, नियमो की बाध्यता के लिए नहीं ", तब तो यह भी संभव है कि सुप्रीम कोर्ट में किसी मामले की सुनवाई के दौरान अधिवक्ता महोदय आराम से कुर्सी पर पैर फैला कर अपनी दलील पेश करें, क्या तब वह न्यायालय की अवमानना मानी जाएगी ? क्या तब न्यायाधीश महोदय को यह स्वीकार्य होगा कि वकील साहब अपने मुक़दमे की पैरवी के दौरान खड़े ना हों ? कदापि नहीं, ठीक उसी तरह मनोरंजन व् देशभक्ति दो सर्वथा अलग मुद्दे हैं ! इस तरह के कुतर्क माननीय उच्चतम न्यायालय से अपेक्षित नहीं हैं ! न्यायालय ने एक और विचित्र दलील दी है कि - "अगली बार सरकार चाहेगी कि लोग टी-शर्ट व् शॉर्ट्स में सिनेमाघरों में ना जाएँ क्योंकि इससे राष्ट्रगान बजने पर उसका अपमान होगा और सरकार अदालत के कंधे पर बन्दूक रखकर ना चलाये, स्वयं निर्धारित करे कि सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाये जाने के नियम में संशोधन होना चाहिए अथवा या नहीं !"
यह निर्देश न्यायालय गरिमापूर्वक एक वाक्य में सरकार को दे सकती थी ! राष्ट्रगान के लिए बजाय इस तरह की अपमानजनक टिप्पणियाँ करने के केरल फिल्म सोसाइटी की याचिका ख़ारिज की जाती तो सुप्रीम कोर्ट की भूरि-भूरि प्रशंसा होती, अब सरकार की बारी है, देखना यह है कि वह उच्चतम न्यायालय के इन निर्देशों की क्या प्रतिक्रिया देगी !
रोली पाठक
कुछ भी असंभव नहीं है म्यारे देश में
ReplyDeleteवाकई , बुरे हाल हैं !
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