संघर्ष
क्वांर का महीना आ गया । हल्कू रोटी का गस्सा तोड़ते-तोड़ते सोच रहा था । बोअनी सर पर है, आधा एकड़ कुल जमीन में इस बार आधे में गेंहू और आधे में चना और सरसों लगा दूंगा । लेकिन बीज, खाद के लिए रुपये कहाँ से आयेंगे !
"रोटी लोगे जी?" लछमी बोली ।
"ना, हो गया , बस । "
"हओ" कहते हुए उसने खाना ढांक कर किनारे रख दिया ।
खाना खा कर हल्कू बाहर आ गया, खीसे से बीड़ी निकाली, माचिस से सुलगाई और फिर विचारमग्न हो गया ।
लछमी भी आ कर वहीँ बैठ गयी ।
"बोअनी की चिंता कर रहे हो ना ! कछु ना सोचो, सब ठीक हो जैहे । मेरी पायरें गिरवी रख दइयो । दो हजार तो मिल ही जेहें । "
"ह्म्म्म , ट्रेक्टर भी किराये से लानो है, फिर बीज और खाद । सिंचाई के लिए बामन के खेत से पानी के लिए बाहे भी रुपैया देनो पड़ेंगे "
"अरे, सब हो जेहे ।" लछमी विश्वास से बोली ।
"सात-आठ हजार का खर्चा है , बल्कि दस पकड़ लो "
"इतना.......?" लछमी की आँखें चौड़ी हो गयीं ।
"हओ" ...
चाँद डूब रहा था । लछमी तीन वर्ष के बेटे शंकर को लिपटाये सो रही थी । हल्कू ने मन-ही-मन सभी को स्मरण किया, कि कौन सबसे कम ब्याज पर उसे रुपये दे सकता है ।
सूर्यदेव ने सबको जगाया । दिनचर्या शुरू हो गयी । हल्कू आज नहा-धो कर जल्दी तैयार हो गया । झरोखे में रखे शिव जी की फोटो को प्रणाम कर निकल पड़ा ।
गल्ले की दुकान पर चौधरी जी बैठे थे , उसकी तरह ही और भी कई लोग वहीँ नीचे पड़ी दरी पर बैठे थे । वो भी बैठ गया । लगभग पन्द्रह-बीस मिनट तक चौधरी हम्मालों पर चिल्लाता रहा, ये बोरी यहाँ रखो, इतनी उस ट्रॉली में डालो, गेहूं का ये बोरा थानेदार साहब के भिजवा दो, साथ में देसी घी का एक पीपा रख देना ।
हल्कू चुपचाप चौधरी की रईसी देख रहा था । सबसे फारिग होकर चौधरी इन लोगों से मुखातिब हुए,
- "हाँ, बोलो , कैसे-कैसे आना हुआ सबका ?"
" बुवाई करनी है मालिक , कुछ रूपया ब्याज पर चाहिए " हल्कू ने शुरुआत की ।
"हओ, मिल जायेगा , मगर जा बखत ब्याज ज्यादा देनो पड़हे "
"कित्ता हजूर? " हल्कू चिंतित हो गया ।
"देख हल्कू, फसल आने तक हजार में सैकड़ा, साथ में एक बोरा गेंहू और फसल कटने के तुरन्त बाद बेचबाच कर रकम वापस, नहीं तो हजार में तीन सौ रुपये लगने लगेंगे महीने के । "
"ये तो बहुत ज्यादा है चौधरी साहब " हल्कू ने मन-ही-मन हिसाब लगाया , मतलब दस हजार लिए तो हजार रूपये महीना ब्याज, और एक बोरा गेंहू भी । अगर चुकाने में देरी भई तो तीन हजार रुपैया महीने से देनो पड़हे । मै तो बर्बाद हो जैहूँ ।
"देख ले हल्कू, कहीं और कम में मिलता हो तो ले ले ।"
हल्कू गुमसुम सा घर की ओर चल पड़ा । सोचता रहा, और किससे ले सकता हूँ ! चौधरी ही एक सही आदमी था, लेकिन इस बार तो ये भी मुँह फाड़ रहा है ।
रूपये तो लेना ही है, नहीं तो बीज, खाद कहाँ से आयेगा ? पानी कैसे मिलेगा ? रास्ते में हैंडपम्प चला कर पानी पिया । जाड़े का मौसम शुरू हो गया है, जल्दी ही बोअनी करनी पड़ेगी । रास्ते में पंडित जी का मकान है, वो भी ब्याज पर रुपया उठाते हैं, उनसे भी पूछता हूँ ।
पंडित जी के दाम तो चौधरी से भी ज्यादा थे ।मायूस हल्कू वहाँ से भी निराश हो आगे बढ़ा । सुखराम लालाजी से और पूछ लूँ, शायद वो कम ब्याज लगाएं । लालाजी के यहाँ हल्कू जैसों की भारी भीड़ थी । अपने दोस्त सुखवा से लालाजी के रेट पता चल गया । तीनो में चौधरी के दाम ही सबसे ठीक लगे । हल्कू घर पहुंचा । दिन चढ़ आया था ।
"आ गये, थाली लगा दऊँ ?" लछमी ने पुकारा ।
"हओ " कहता हुआ हल्कू बाहर बनी हौदी से पानी निकाल कर हाथ-मुँह धोने लगा । शंकर वहीँ खेल रहा था ।
"आ जा संकर , रोटी जीम ले " दुलार से हल्कू ने उसे पुकारा ।
लछमी थाली ले आई । भटे-आलू की सब्जी और रोटी थी । हल्कू खाने लगा, बीच-बीच में छोटे-छोटे कौर शंकर को भी खिलाता जाता ।
"कछु हुओ ?"
"हाँ, साम को जैहूँ । चौधरी ही सही लागे है ।" हल्कू खाना खा रहा था । लछमी बोली -
"मेरी पायरें ले जइयो "
"नई , अबे जरुरत नई है । एक बई रकम तो बची है , उसे अभी रख तू" थाली खिसका कर हल्कू खड़ा हुआ ।
लछमी खुश थी, पाजेब के बिना ही बुवाई हो जायेगी ।
"आता हूँ, नन्हे के यहाँ से, ट्रेक्टर की बात कर आऊं " हल्कू कंधे पर अंगोछा डाल कर निकल गया ।
"मै भी जाऊंगा बापू संगे " शंकर मचलने लगा ।
"चल आजा " हल्कू ने उसे गोद में उठा लिया ।
नन्हें अपने खेत में ही मिल गया, बुवाई करवा रहा था । हल्कू को आते देख उसके पास आया ।
"नन्हें भैया , तुम्हरो ट्रेक्टर चाहने है, बुवाई काजे । "
"ह्म्म्म, कब ? जा बखत किराया थोड़ा ज्यादा है हल्कू । एक घंटे का पान सौ रुपैया ।"
"पान सौ...??? पिछली बेर तो तीन सौ लए थे ।"
"महंगाई बढ़ गयी है भैया " नन्हें ने दुहाई दी ।
"हओ भैया, आज सुक्करवार है, सोमवार को ले लऊं?"
"हाँ, ले जाओ ।"
हल्कू आश्स्वस्त हो वहाँ से चला, यहाँ से चौपाल पहुंचा , बामन वहीँ मिल गया ।
"बामन भैया, सोमवार को बुवाई करनी है, जा बखत भी पानी तुम्हरे खेत से ही लऊंगा । कोई दिक्कत तो नई हैगी ना? "
"कोई दिक्कत नई हल्कू , बस बिजली महंगी हो गयी, पहले तो बिना मीटर के चाहे जितनी देर मोटर चलाओ, पर अब से सरकार कड़ाई करने लगी है , फसल पकने तक पानी लेने के दो हजार रुपैया लगहें , मंजूर हो तो ले लो । "
"दो हजार तो बहुत ज्यादा हैं बामन भैया, मेरी तो थोड़ी सी जमीन हैगी , आधा एकड़ , जितनी कमाई नई उससे ज्यादा तो खर्चा हो जैहे ।" हल्कू परेशान हो बोला ।
"देख लो हल्कू, इससे कम में तो ना दे पाऊंगा जा बखत । महंगाई कमर तोड़ रही है ।" बामन भी महंगाई से त्रस्त था ।
"ठीक है, भैया ।" हल्कू उठ खड़ा हुआ । शंकर जो चौपाल के पास लगे अमरुद के पेड से गिरे कच्चे अमरुद बीन रहा था, दौड़ कर उसके पास आ गया । शाम हो रही थी । मौसम ठंडा हो रहा था ।
कई किसानो ने बुवाई कर दी है, मै भी सोमवार को कर ही लूँ, नहीं तो देर हो जायेगी ।
"लछमी, कल जल्दी काम निपटा लइयो , खेत पे जानो है, साफ़-सफाई कर लें तन्नक वहाँ ।"
"हओ" लछमी शंकर को अंदर ले गयी ।
रात गुजर रही थी । हल्कू करवट बदलते-बदलते सो गया । सुबह लछमी भी तैयार थी, बच्चे को साथ ले खेत पर पहुँचे । चारों तरफ की बाड़ दुरुस्त की । खेत की सफाई शुरू की, बीच - बीच में उग आये जंगली पौधे उखाड़े । दिन चढ़ आया । शंकर भूख से रोने लगा । लछमी ने उसे उठाया और बोली -
"तुम जल्दी आ जइयो , मै रोटी बनाती हूँ ।"
"हओ" हल्कू जुटा रहा , शाम के लगभग चार बजे उसे जोर से भूख लगने लगी । वह हंसिया उठा कर घर की तरफ चल पड़ा । खाना खा कर हल्कू चौधरी के यहाँ पहुंचा ।
"हुजूर, दस हजार दे दो , आपने जितना कहो है उतना ब्याज दे देहूँ ।"
चौधरी ने अपने बेटे को आवाज़ लगायी, वो बही-खाता ले कर आ गया । हल्कू ने अंगूठा लगाया । दस हजार लिए और घर की तरफ चल पड़ा ।
अगले दिन हल्कू शहर जा कर खाद, बीज सब ले आया । कुल आठ हजार का तो वही सब आ गया । बचे दो हजार रुपये उसने संभाल कर रख दिए । दो दिन तक हल्कू खेत की सफाई में जुटा रहा । सोमवार को नन्हे के खेत जा कर ट्रेक्टर ले आया, नन्हें के भाई ने एक घंटे में पूरा खेत जोत दिया । हल्कू ने उसे पाँच सौ रुपये दे दिए । लछमी शंकर को ले कर आ गयी । खेत में किनारे लगे पीपल के पेड़ के पास उसने पूजा की, नारियल फोड़ा और हल्कू के साथ काम पर जुट गयी । चार-पाँच दिन में हल्कू का आधा एकड़ का खेत बुवाई के साथ तैयार था । बामन भैया को एक हजार रुपये एडवांस दे दिए गये ।
गाँव में कहाँ बिजली मिलती थी, सरकार दया करके रात-बिरात कभी भी घंटे-दो घंटे को बिजली दे देती, और पूरे गाँव में खबर फ़ैल जाती । सारे किसान अपने-अपने खेत की सिंचाई को निकल पड़ते । दिन निकल रहे थे । पूस की ठंड , उस पर आधी रात को ठन्डे खेतों की सिंचाई । हाथ-पैर अकड़ जाते लेकिन फसल को तो पानी चाहिए था । किसान अपने-अपने खेत में आग जला कर तापते रहते । दो महीने से हल्कू , चौधरी को अपनी जमापूँजी से ब्याज दे रहा था ।
इस महीने से पंडित जी के यहाँ उसने सब्जी की क्यारियों का काम ले लिया था, रोज वहाँ जाता । गुड़ाई करता, पानी डालता , मटर , सेम, टमाटर हरी मिर्च, धनिया, मैथी, पालक, बथुआ आदि तोड़ता और गाजर , मूली उखाड़ता , उन्हें साफ़ करता , गड्डियाँ बनाता और फिर ट्रेक्टर-ट्रॉली में भर कर वो ढेर सारी सब्जियाँ शहर की मंडी जातीं । हल्कू को पचास रुपये रोज के हिसाब से १५०० रु. महीने पर पंडित ने काम पर रखा था ।
अब कम से कम ब्याज की चिंता नहीं होगी, ये सोच कर हल्कू निश्चिन्त था ।
फागुन का महीना आ गया, खेतों में सोना पक रहा था । हल्कू का खेत भी लहलहा रहा था, आधे में गेंहू और बाकी में सरसों और चना लगा था । सर्द हवा गर्म होने लगी थी । बिजली तो अब भी दिन भर गायब रहती थी, कभी-कभार दया करके शाम ७-८ बजे आ जाती तो जलते हुए लट्टू को देखकर शंकर खुश हो जाता ।
होली को चार-पाँच दिन शेष थे, गाँव की नयी ब्याहता लड़कियाँ मायके आ चुकी थीं । उसी रात शंकर को तेज बुखार आया, गाँव के दवाखाने में डॉक्टर साहब बोले, शहर ले जाओ । हल्कू ने सारे पैसे निकाले , कुल २२००/- रु. थे । लछमी को साथ ले वह शहर गया , दो दिन प्राइवेट अस्पताल में रहना पड़ा । सारे पैसे चुक गये । शंकर की हालत कुछ ठीक हुई, शाम को बस में बैठ कर तीनो गाँव आ गये ।
आज सुबह से ही ठंडी हवा चल रही थी, घर आ कर शंकर को सुला कर लछमी खाना बनाने लगी, अचानक जोर से आसमान में बिजली कड़की , जोर से बादल गरजने लगे । हल्कू की जान हलक में आ गयी - हे भगवान , ये क्या हो रहा है ? लछमी आटे से सने हाथ ले कर चौंक कर बाहर आ गयी, ऊपर आसमान पर घुप्प अन्धेरा था, ना चाँद दिखता था ना तारे । रह-रह के बिजली कौंध रही थी, हवा ने आँधी का रूप ले लिया था । लछमी घबरा के बोली-
"पानी तो ना गिरेगा ना जी ?"
हल्कू क्या कहता , बोला - "तू अंदर संकर के पास जा, मै जरा खेत हो आऊं । "
किनारे टंगा काले रंग का फटा छाता लेकर चमकती बिजली के उजाले में हल्कू खेत के पास पहुँचा। कटने को तैयार खड़ी फसल अँधेरे में भी सोने जैसी चमक रही थी । तभी हल्कू के चेहरे पर पानी की दो-चार बूँदें गिरी ।
"नहीं सिवजी , अभी पानी मत गिरइयो । बर्बाद हो जाउंगा मै ।" हल्कू बड़बड़ा रहा था । तेज आँधी में फसल आड़ी हुयी जा रही थी ।
- "हे देवी मैया , पानी ना गिरे मातारानी । फसल खराब हो जायेगी । "
लेकिन भगवान ने कब गरीबों की सुनी है , जो अब सुनता । अचानक तड़तड़ा कर पानी की बड़ी-बड़ी बूंदें बरसने लगीं । हल्कू सिर पकड़ के वहीँ बैठ गया । अचानक उसे अहसास हुआ , जैसे उसके ऊपर जोरों से कंकडों की बरसात हो रही हो । उसने घबरा का छाता खोल लिया । हाथ में उठा कर देखा, वो चने से भी कुछ बड़े-बड़े ओले थे । सारा खेत पानी और ओलों से भर गया । गेंहूँ की सुनहरी बालें टूट-टूट कर धरती पर जा गिरीं । सरसों की कोमल डालियाँ टूट कर लटक गयीं । चना पानी में डूब गया । लगभग एक घंटे कहर बरपाने के बाद बादलों का क्रोध शांत हुआ । चारों तरफ स्तब्ध सी नीरवता थी , बीच बीच में झींगुर की आवाज आती, कभी हवा से पत्तों की सरसराहट । पानी में सराबोर सिर पकड़े हल्कू आँख बंद किये बैठा था । छाता उड़ कर किनारे जा पड़ा था । आँखों के आँसू वर्षा के पानी में घुलमिल कर बह गये । उसने धीरे से सिर उठाया, अपनी आँखें खोली । बर्बादी ही बर्बादी । एक घंटे में इतना पानी गिर गया की फसल आधी डूब चुकी थी । ओलों की मार ने फसल जमीन पर बिछा दी थी । हल्कू की आँखों के सामने चौधरी, बामन , लछमी व शंकर के चेहरे आने लगे ।
"संकर के बापू...संकर के बापू ".... आवाज़ सुन कर वो खड़ा हुआ । लछमी दौड़ी चली आ रही थी ।
"ये क्या हो गओ । देवी मैया से कित्ती मन्नत मांगी हथी मैने ।" वो बिलख रही थी ।
"संकर किते है?" हल्कू ने धीरे से पूछा ।
"सो रओ है, दरवाजा भेड़ के आ गयी"
"तू घर जा , मै मेंढ़ खोद के भरो हुओ पानी निकाल दऊं, संकर उठहे तो डर जैहे "
हल्कू निराश था । लछमी चली गयी । हल्कू ने किनारे की बाड़ हटा कर एक तरफ से मिट्टी हटानी शुरू की । रुका हुआ पानी तेजी से बहने लगा । दो घंटे तक हल्कू चारों तरफ से कई जगह की मिट्टी हटाता रहा , खेत का पूरा पानी निकल गया, लेकिन ओलों की मार ने फसल बर्बाद कर थी, गेंहू की बालें पानी से भीगी टूटी पड़ी थी । सरसों भी पूरी तरह टूट कर जमीन में बिछ गई थी । चने पानी पड़के खराब हो गये थे । दस हजार का क़र्ज़, ऊपर से ब्याज । साल भर का खर्चा-पानी , ये सब कैसे करूँगा ? अब क्या होगा ? पंडित के यहाँ से पचास रु. रोज मिलते हैं, उससे क्या होगा !! हल्कू खड़ा सोच रहा था । आधी रात का वक्त था । तभी आस पास के खेतों में लालटेन व टॉर्च की रौशनी दिखाई देने लगी | सभी किसान अपने-अपने खेतों की हालत देख कर मायूस थे |
भारी कदमो से हल्कू खेत के बाहर आया, उसके खेत से लगा गणेश का खेत था , वो भी पागलों की तरह मेढ़ खोद के मिट्टी हटा रहा था, पानी निकल रहा था लेकिन फसल बर्बाद हो चुकी थी | हल्कू भी गणेश की मदद करने लगा | कीचड़ में हाथ पैर लथपथ थे | दोनों चुपचाप अपने खेतों को देख रहे थे | हल्कू ने पानी से भरे एक छोटे से गड्ढे में हाथ धोए और घर की तरफ चल पड़ा | उसका मस्तिष्क शून्य हो चुका था | घर पहुँच के हौदी के पानी से हाथ-पाँव धोए और दरवाजा खटखटाया , लछमी ने आँसू भरी आँखों से दरवाज़ा खोला |
"अब क्या होअगो ? फसल तो पूरी बर्बाद हो गयी " लछमी के इस प्रश्न का हल्कू के पास कोई जवाब ना था |
हल्कू बिस्तर पर लेट गया | लछमी भी शंकर को छाती से चिपकाये सुबकती रही |
सुबकते-सोचते न जाने कब लछमी और शंकर सो गए ।
हल्कू सोचता रह…सोचता रहा ।
भोर हुयी । मुर्गे ने बांग दी । शंकर रोने लगा । लछमी ने उसे चिपका लिया और दोबारा थपकी दे कर सुला दिया । धीरे से उठी । हल्कू शायद उठ चुका था | साड़ी ठीक करके वो बाहर आयी । दरवाज़ा उड़का हुआ था । हल्कू नहीं दिखा । शायद खेत चले गए । रात भर सो ना पाये । उसने सामने खेल रही एक छोटी लड़की को आवाज़ दी -" ए बिन्नू, तन्नक संकर का ध्यान रखियो, मै अभई आत हूँ"
- "हऒ " कह कर वो दरवाजे पर बैठ गयी ।
लछमी खेत की तरफ चल दी । मेड़ से चलके , कीचड़ से बचते-बचाते वो खेत के सामने जैसे ही पहुँची , उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं । आवाज़ मुँह में घुट गयी । वो वहीँ गश खा कर गिर पड़ी ।
सामने पीपल के पेड़ पर हल्कू की लाश लटकी हुयी थी ।
- रोली पाठक
( ये कथा उन सभी किसानो को समर्पित जिन्होंने मौसम की मार के चलते अपनी फसल नष्ट होते देख कर प्राण त्याग दिए , उन सभी को भावभीनी श्रद्धांजलि )
"रोटी लोगे जी?" लछमी बोली ।
"ना, हो गया , बस । "
"हओ" कहते हुए उसने खाना ढांक कर किनारे रख दिया ।
खाना खा कर हल्कू बाहर आ गया, खीसे से बीड़ी निकाली, माचिस से सुलगाई और फिर विचारमग्न हो गया ।
लछमी भी आ कर वहीँ बैठ गयी ।
"बोअनी की चिंता कर रहे हो ना ! कछु ना सोचो, सब ठीक हो जैहे । मेरी पायरें गिरवी रख दइयो । दो हजार तो मिल ही जेहें । "
"ह्म्म्म , ट्रेक्टर भी किराये से लानो है, फिर बीज और खाद । सिंचाई के लिए बामन के खेत से पानी के लिए बाहे भी रुपैया देनो पड़ेंगे "
"अरे, सब हो जेहे ।" लछमी विश्वास से बोली ।
"सात-आठ हजार का खर्चा है , बल्कि दस पकड़ लो "
"इतना.......?" लछमी की आँखें चौड़ी हो गयीं ।
"हओ" ...
चाँद डूब रहा था । लछमी तीन वर्ष के बेटे शंकर को लिपटाये सो रही थी । हल्कू ने मन-ही-मन सभी को स्मरण किया, कि कौन सबसे कम ब्याज पर उसे रुपये दे सकता है ।
सूर्यदेव ने सबको जगाया । दिनचर्या शुरू हो गयी । हल्कू आज नहा-धो कर जल्दी तैयार हो गया । झरोखे में रखे शिव जी की फोटो को प्रणाम कर निकल पड़ा ।
गल्ले की दुकान पर चौधरी जी बैठे थे , उसकी तरह ही और भी कई लोग वहीँ नीचे पड़ी दरी पर बैठे थे । वो भी बैठ गया । लगभग पन्द्रह-बीस मिनट तक चौधरी हम्मालों पर चिल्लाता रहा, ये बोरी यहाँ रखो, इतनी उस ट्रॉली में डालो, गेहूं का ये बोरा थानेदार साहब के भिजवा दो, साथ में देसी घी का एक पीपा रख देना ।
हल्कू चुपचाप चौधरी की रईसी देख रहा था । सबसे फारिग होकर चौधरी इन लोगों से मुखातिब हुए,
- "हाँ, बोलो , कैसे-कैसे आना हुआ सबका ?"
" बुवाई करनी है मालिक , कुछ रूपया ब्याज पर चाहिए " हल्कू ने शुरुआत की ।
"हओ, मिल जायेगा , मगर जा बखत ब्याज ज्यादा देनो पड़हे "
"कित्ता हजूर? " हल्कू चिंतित हो गया ।
"देख हल्कू, फसल आने तक हजार में सैकड़ा, साथ में एक बोरा गेंहू और फसल कटने के तुरन्त बाद बेचबाच कर रकम वापस, नहीं तो हजार में तीन सौ रुपये लगने लगेंगे महीने के । "
"ये तो बहुत ज्यादा है चौधरी साहब " हल्कू ने मन-ही-मन हिसाब लगाया , मतलब दस हजार लिए तो हजार रूपये महीना ब्याज, और एक बोरा गेंहू भी । अगर चुकाने में देरी भई तो तीन हजार रुपैया महीने से देनो पड़हे । मै तो बर्बाद हो जैहूँ ।
"देख ले हल्कू, कहीं और कम में मिलता हो तो ले ले ।"
हल्कू गुमसुम सा घर की ओर चल पड़ा । सोचता रहा, और किससे ले सकता हूँ ! चौधरी ही एक सही आदमी था, लेकिन इस बार तो ये भी मुँह फाड़ रहा है ।
रूपये तो लेना ही है, नहीं तो बीज, खाद कहाँ से आयेगा ? पानी कैसे मिलेगा ? रास्ते में हैंडपम्प चला कर पानी पिया । जाड़े का मौसम शुरू हो गया है, जल्दी ही बोअनी करनी पड़ेगी । रास्ते में पंडित जी का मकान है, वो भी ब्याज पर रुपया उठाते हैं, उनसे भी पूछता हूँ ।
पंडित जी के दाम तो चौधरी से भी ज्यादा थे ।मायूस हल्कू वहाँ से भी निराश हो आगे बढ़ा । सुखराम लालाजी से और पूछ लूँ, शायद वो कम ब्याज लगाएं । लालाजी के यहाँ हल्कू जैसों की भारी भीड़ थी । अपने दोस्त सुखवा से लालाजी के रेट पता चल गया । तीनो में चौधरी के दाम ही सबसे ठीक लगे । हल्कू घर पहुंचा । दिन चढ़ आया था ।
"आ गये, थाली लगा दऊँ ?" लछमी ने पुकारा ।
"हओ " कहता हुआ हल्कू बाहर बनी हौदी से पानी निकाल कर हाथ-मुँह धोने लगा । शंकर वहीँ खेल रहा था ।
"आ जा संकर , रोटी जीम ले " दुलार से हल्कू ने उसे पुकारा ।
लछमी थाली ले आई । भटे-आलू की सब्जी और रोटी थी । हल्कू खाने लगा, बीच-बीच में छोटे-छोटे कौर शंकर को भी खिलाता जाता ।
"कछु हुओ ?"
"हाँ, साम को जैहूँ । चौधरी ही सही लागे है ।" हल्कू खाना खा रहा था । लछमी बोली -
"मेरी पायरें ले जइयो "
"नई , अबे जरुरत नई है । एक बई रकम तो बची है , उसे अभी रख तू" थाली खिसका कर हल्कू खड़ा हुआ ।
लछमी खुश थी, पाजेब के बिना ही बुवाई हो जायेगी ।
"आता हूँ, नन्हे के यहाँ से, ट्रेक्टर की बात कर आऊं " हल्कू कंधे पर अंगोछा डाल कर निकल गया ।
"मै भी जाऊंगा बापू संगे " शंकर मचलने लगा ।
"चल आजा " हल्कू ने उसे गोद में उठा लिया ।
नन्हें अपने खेत में ही मिल गया, बुवाई करवा रहा था । हल्कू को आते देख उसके पास आया ।
"नन्हें भैया , तुम्हरो ट्रेक्टर चाहने है, बुवाई काजे । "
"ह्म्म्म, कब ? जा बखत किराया थोड़ा ज्यादा है हल्कू । एक घंटे का पान सौ रुपैया ।"
"पान सौ...??? पिछली बेर तो तीन सौ लए थे ।"
"महंगाई बढ़ गयी है भैया " नन्हें ने दुहाई दी ।
"हओ भैया, आज सुक्करवार है, सोमवार को ले लऊं?"
"हाँ, ले जाओ ।"
हल्कू आश्स्वस्त हो वहाँ से चला, यहाँ से चौपाल पहुंचा , बामन वहीँ मिल गया ।
"बामन भैया, सोमवार को बुवाई करनी है, जा बखत भी पानी तुम्हरे खेत से ही लऊंगा । कोई दिक्कत तो नई हैगी ना? "
"कोई दिक्कत नई हल्कू , बस बिजली महंगी हो गयी, पहले तो बिना मीटर के चाहे जितनी देर मोटर चलाओ, पर अब से सरकार कड़ाई करने लगी है , फसल पकने तक पानी लेने के दो हजार रुपैया लगहें , मंजूर हो तो ले लो । "
"दो हजार तो बहुत ज्यादा हैं बामन भैया, मेरी तो थोड़ी सी जमीन हैगी , आधा एकड़ , जितनी कमाई नई उससे ज्यादा तो खर्चा हो जैहे ।" हल्कू परेशान हो बोला ।
"देख लो हल्कू, इससे कम में तो ना दे पाऊंगा जा बखत । महंगाई कमर तोड़ रही है ।" बामन भी महंगाई से त्रस्त था ।
"ठीक है, भैया ।" हल्कू उठ खड़ा हुआ । शंकर जो चौपाल के पास लगे अमरुद के पेड से गिरे कच्चे अमरुद बीन रहा था, दौड़ कर उसके पास आ गया । शाम हो रही थी । मौसम ठंडा हो रहा था ।
कई किसानो ने बुवाई कर दी है, मै भी सोमवार को कर ही लूँ, नहीं तो देर हो जायेगी ।
"लछमी, कल जल्दी काम निपटा लइयो , खेत पे जानो है, साफ़-सफाई कर लें तन्नक वहाँ ।"
"हओ" लछमी शंकर को अंदर ले गयी ।
रात गुजर रही थी । हल्कू करवट बदलते-बदलते सो गया । सुबह लछमी भी तैयार थी, बच्चे को साथ ले खेत पर पहुँचे । चारों तरफ की बाड़ दुरुस्त की । खेत की सफाई शुरू की, बीच - बीच में उग आये जंगली पौधे उखाड़े । दिन चढ़ आया । शंकर भूख से रोने लगा । लछमी ने उसे उठाया और बोली -
"तुम जल्दी आ जइयो , मै रोटी बनाती हूँ ।"
"हओ" हल्कू जुटा रहा , शाम के लगभग चार बजे उसे जोर से भूख लगने लगी । वह हंसिया उठा कर घर की तरफ चल पड़ा । खाना खा कर हल्कू चौधरी के यहाँ पहुंचा ।
"हुजूर, दस हजार दे दो , आपने जितना कहो है उतना ब्याज दे देहूँ ।"
चौधरी ने अपने बेटे को आवाज़ लगायी, वो बही-खाता ले कर आ गया । हल्कू ने अंगूठा लगाया । दस हजार लिए और घर की तरफ चल पड़ा ।
अगले दिन हल्कू शहर जा कर खाद, बीज सब ले आया । कुल आठ हजार का तो वही सब आ गया । बचे दो हजार रुपये उसने संभाल कर रख दिए । दो दिन तक हल्कू खेत की सफाई में जुटा रहा । सोमवार को नन्हे के खेत जा कर ट्रेक्टर ले आया, नन्हें के भाई ने एक घंटे में पूरा खेत जोत दिया । हल्कू ने उसे पाँच सौ रुपये दे दिए । लछमी शंकर को ले कर आ गयी । खेत में किनारे लगे पीपल के पेड़ के पास उसने पूजा की, नारियल फोड़ा और हल्कू के साथ काम पर जुट गयी । चार-पाँच दिन में हल्कू का आधा एकड़ का खेत बुवाई के साथ तैयार था । बामन भैया को एक हजार रुपये एडवांस दे दिए गये ।
गाँव में कहाँ बिजली मिलती थी, सरकार दया करके रात-बिरात कभी भी घंटे-दो घंटे को बिजली दे देती, और पूरे गाँव में खबर फ़ैल जाती । सारे किसान अपने-अपने खेत की सिंचाई को निकल पड़ते । दिन निकल रहे थे । पूस की ठंड , उस पर आधी रात को ठन्डे खेतों की सिंचाई । हाथ-पैर अकड़ जाते लेकिन फसल को तो पानी चाहिए था । किसान अपने-अपने खेत में आग जला कर तापते रहते । दो महीने से हल्कू , चौधरी को अपनी जमापूँजी से ब्याज दे रहा था ।
इस महीने से पंडित जी के यहाँ उसने सब्जी की क्यारियों का काम ले लिया था, रोज वहाँ जाता । गुड़ाई करता, पानी डालता , मटर , सेम, टमाटर हरी मिर्च, धनिया, मैथी, पालक, बथुआ आदि तोड़ता और गाजर , मूली उखाड़ता , उन्हें साफ़ करता , गड्डियाँ बनाता और फिर ट्रेक्टर-ट्रॉली में भर कर वो ढेर सारी सब्जियाँ शहर की मंडी जातीं । हल्कू को पचास रुपये रोज के हिसाब से १५०० रु. महीने पर पंडित ने काम पर रखा था ।
अब कम से कम ब्याज की चिंता नहीं होगी, ये सोच कर हल्कू निश्चिन्त था ।
फागुन का महीना आ गया, खेतों में सोना पक रहा था । हल्कू का खेत भी लहलहा रहा था, आधे में गेंहू और बाकी में सरसों और चना लगा था । सर्द हवा गर्म होने लगी थी । बिजली तो अब भी दिन भर गायब रहती थी, कभी-कभार दया करके शाम ७-८ बजे आ जाती तो जलते हुए लट्टू को देखकर शंकर खुश हो जाता ।
होली को चार-पाँच दिन शेष थे, गाँव की नयी ब्याहता लड़कियाँ मायके आ चुकी थीं । उसी रात शंकर को तेज बुखार आया, गाँव के दवाखाने में डॉक्टर साहब बोले, शहर ले जाओ । हल्कू ने सारे पैसे निकाले , कुल २२००/- रु. थे । लछमी को साथ ले वह शहर गया , दो दिन प्राइवेट अस्पताल में रहना पड़ा । सारे पैसे चुक गये । शंकर की हालत कुछ ठीक हुई, शाम को बस में बैठ कर तीनो गाँव आ गये ।
आज सुबह से ही ठंडी हवा चल रही थी, घर आ कर शंकर को सुला कर लछमी खाना बनाने लगी, अचानक जोर से आसमान में बिजली कड़की , जोर से बादल गरजने लगे । हल्कू की जान हलक में आ गयी - हे भगवान , ये क्या हो रहा है ? लछमी आटे से सने हाथ ले कर चौंक कर बाहर आ गयी, ऊपर आसमान पर घुप्प अन्धेरा था, ना चाँद दिखता था ना तारे । रह-रह के बिजली कौंध रही थी, हवा ने आँधी का रूप ले लिया था । लछमी घबरा के बोली-
"पानी तो ना गिरेगा ना जी ?"
हल्कू क्या कहता , बोला - "तू अंदर संकर के पास जा, मै जरा खेत हो आऊं । "
किनारे टंगा काले रंग का फटा छाता लेकर चमकती बिजली के उजाले में हल्कू खेत के पास पहुँचा। कटने को तैयार खड़ी फसल अँधेरे में भी सोने जैसी चमक रही थी । तभी हल्कू के चेहरे पर पानी की दो-चार बूँदें गिरी ।
"नहीं सिवजी , अभी पानी मत गिरइयो । बर्बाद हो जाउंगा मै ।" हल्कू बड़बड़ा रहा था । तेज आँधी में फसल आड़ी हुयी जा रही थी ।
- "हे देवी मैया , पानी ना गिरे मातारानी । फसल खराब हो जायेगी । "
लेकिन भगवान ने कब गरीबों की सुनी है , जो अब सुनता । अचानक तड़तड़ा कर पानी की बड़ी-बड़ी बूंदें बरसने लगीं । हल्कू सिर पकड़ के वहीँ बैठ गया । अचानक उसे अहसास हुआ , जैसे उसके ऊपर जोरों से कंकडों की बरसात हो रही हो । उसने घबरा का छाता खोल लिया । हाथ में उठा कर देखा, वो चने से भी कुछ बड़े-बड़े ओले थे । सारा खेत पानी और ओलों से भर गया । गेंहूँ की सुनहरी बालें टूट-टूट कर धरती पर जा गिरीं । सरसों की कोमल डालियाँ टूट कर लटक गयीं । चना पानी में डूब गया । लगभग एक घंटे कहर बरपाने के बाद बादलों का क्रोध शांत हुआ । चारों तरफ स्तब्ध सी नीरवता थी , बीच बीच में झींगुर की आवाज आती, कभी हवा से पत्तों की सरसराहट । पानी में सराबोर सिर पकड़े हल्कू आँख बंद किये बैठा था । छाता उड़ कर किनारे जा पड़ा था । आँखों के आँसू वर्षा के पानी में घुलमिल कर बह गये । उसने धीरे से सिर उठाया, अपनी आँखें खोली । बर्बादी ही बर्बादी । एक घंटे में इतना पानी गिर गया की फसल आधी डूब चुकी थी । ओलों की मार ने फसल जमीन पर बिछा दी थी । हल्कू की आँखों के सामने चौधरी, बामन , लछमी व शंकर के चेहरे आने लगे ।
"संकर के बापू...संकर के बापू ".... आवाज़ सुन कर वो खड़ा हुआ । लछमी दौड़ी चली आ रही थी ।
"ये क्या हो गओ । देवी मैया से कित्ती मन्नत मांगी हथी मैने ।" वो बिलख रही थी ।
"संकर किते है?" हल्कू ने धीरे से पूछा ।
"सो रओ है, दरवाजा भेड़ के आ गयी"
"तू घर जा , मै मेंढ़ खोद के भरो हुओ पानी निकाल दऊं, संकर उठहे तो डर जैहे "
हल्कू निराश था । लछमी चली गयी । हल्कू ने किनारे की बाड़ हटा कर एक तरफ से मिट्टी हटानी शुरू की । रुका हुआ पानी तेजी से बहने लगा । दो घंटे तक हल्कू चारों तरफ से कई जगह की मिट्टी हटाता रहा , खेत का पूरा पानी निकल गया, लेकिन ओलों की मार ने फसल बर्बाद कर थी, गेंहू की बालें पानी से भीगी टूटी पड़ी थी । सरसों भी पूरी तरह टूट कर जमीन में बिछ गई थी । चने पानी पड़के खराब हो गये थे । दस हजार का क़र्ज़, ऊपर से ब्याज । साल भर का खर्चा-पानी , ये सब कैसे करूँगा ? अब क्या होगा ? पंडित के यहाँ से पचास रु. रोज मिलते हैं, उससे क्या होगा !! हल्कू खड़ा सोच रहा था । आधी रात का वक्त था । तभी आस पास के खेतों में लालटेन व टॉर्च की रौशनी दिखाई देने लगी | सभी किसान अपने-अपने खेतों की हालत देख कर मायूस थे |
भारी कदमो से हल्कू खेत के बाहर आया, उसके खेत से लगा गणेश का खेत था , वो भी पागलों की तरह मेढ़ खोद के मिट्टी हटा रहा था, पानी निकल रहा था लेकिन फसल बर्बाद हो चुकी थी | हल्कू भी गणेश की मदद करने लगा | कीचड़ में हाथ पैर लथपथ थे | दोनों चुपचाप अपने खेतों को देख रहे थे | हल्कू ने पानी से भरे एक छोटे से गड्ढे में हाथ धोए और घर की तरफ चल पड़ा | उसका मस्तिष्क शून्य हो चुका था | घर पहुँच के हौदी के पानी से हाथ-पाँव धोए और दरवाजा खटखटाया , लछमी ने आँसू भरी आँखों से दरवाज़ा खोला |
"अब क्या होअगो ? फसल तो पूरी बर्बाद हो गयी " लछमी के इस प्रश्न का हल्कू के पास कोई जवाब ना था |
हल्कू बिस्तर पर लेट गया | लछमी भी शंकर को छाती से चिपकाये सुबकती रही |
सुबकते-सोचते न जाने कब लछमी और शंकर सो गए ।
हल्कू सोचता रह…सोचता रहा ।
भोर हुयी । मुर्गे ने बांग दी । शंकर रोने लगा । लछमी ने उसे चिपका लिया और दोबारा थपकी दे कर सुला दिया । धीरे से उठी । हल्कू शायद उठ चुका था | साड़ी ठीक करके वो बाहर आयी । दरवाज़ा उड़का हुआ था । हल्कू नहीं दिखा । शायद खेत चले गए । रात भर सो ना पाये । उसने सामने खेल रही एक छोटी लड़की को आवाज़ दी -" ए बिन्नू, तन्नक संकर का ध्यान रखियो, मै अभई आत हूँ"
- "हऒ " कह कर वो दरवाजे पर बैठ गयी ।
लछमी खेत की तरफ चल दी । मेड़ से चलके , कीचड़ से बचते-बचाते वो खेत के सामने जैसे ही पहुँची , उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं । आवाज़ मुँह में घुट गयी । वो वहीँ गश खा कर गिर पड़ी ।
सामने पीपल के पेड़ पर हल्कू की लाश लटकी हुयी थी ।
- रोली पाठक
( ये कथा उन सभी किसानो को समर्पित जिन्होंने मौसम की मार के चलते अपनी फसल नष्ट होते देख कर प्राण त्याग दिए , उन सभी को भावभीनी श्रद्धांजलि )
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