ये गर्मियाँ
तपिश तीखी धूप की,
ऐसे में ये चुनावी सरगर्मियाँ ।
ना छाँव दिखती है
ना ही शीतल प्याऊ,
दिख रहीं बस प्रचार करतीं गाड़ियाँ ।
जिधर देखो हुजूम है कार्यकर्ताओं का
वजूद खो सा गया है आम इंसान का ।
कुछ को जूनून हैं सुविधाएँ और बढ़ाने का,
कुछ को गम है अगले माह के किराने का
कुछ हिमालय देखने की योजना बना रहे हैं
कुछ बच्चों की फीस की जुगत लगा रहे हैं
कोई हनीमून की रंगीनियों में खोया है
कोई चुनाव के पश्चात बेसुध सोया है
किसी को नहीं मिल रहा रेल में आरक्षण
कोई पार्टी की टिकिट न मिलने पे रोया है
कोई दुखी है कि पेट्रोल फिर महँगा हुआ
कोई खुश है गाड़ी नहीं पास, अच्छा हुआ ।
नेता कह रहे - महँगाई कम कर देंगे
सब सोच रहे, चुनने के बाद क्या ये याद रखेंगे !!!
अनपढ़ भी सीख गया है अब नेतागिरी
समझ ली उसने भी शब्दों की जादूगरी ।
नेता जी, पहले पिछले किये वादे तो निभाओ
फिर दोबारा हमसे वोट माँगने आओ ।
हरेक गर्मी को अपनी तरह जी रहा है
कोई कूलर तो कोई एसी के बंद कमरे में
चैत्र में पूस का आनंद उठा रहा है
कोई पानी के लिए चार कोस जा रहा है ।
तो किसी की कारों की धुलाई हो रही है ,
यूँ , इस तरह इंसान से इंसान की ही,
रुसवाई हो रही है……………!!!!!!!
- रोली पाठक
बहुत भावपूर्ण रचना...रचना के भाव अंतस को छू गये...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद संजय भास्कर जी |
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