मंच के साथ मन में भी सम्मान दें...
8 मार्च को विश्व महिला दिवस के ठीक पहले नारी प्रधान फ़िल्म थप्पड़ आयी।
धीमी गति की इस फ़िल्म में एक स्पष्ट संदेश है कि - यदि पुरूष अपनी पत्नी की इज़्ज़त नहीं करेगा तो लाख सुख-सुविधायें व प्रेम भी उसे अस्वीकार्य है।
फ़िल्म में अनेक सशक्त महिला किरदारों के अलावा घरेलू काम-काज करने वाली महिला का ज़मीर भी पति के अधीन बताया गया है। एक सफल व समर्पित गृहिणी को भरी पार्टी में पति थप्पड़ मारता है और उसके लिए उसे कोई मलाल भी नहीं क्योंकि उसने नौकरी के तनाव व गुस्से के चलते वह थप्पड़ जड़ दिया था। इसी एक थप्पड़ ने नायिका का वज़ूद ही बदल दिया।
हमारे समाज में आज भी महिलाओं पर हाथ उठाने का अधिकार पुरुषों को ही प्राप्त है।
अनेक भावात्मक उतार चढ़ाव से गुजरती इस फ़िल्म में भी यही संदेश है कि - हे नारी, जहाँ तुम्हारा सम्मान नहीं, वह जगह तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं।
फ़िल्म के दो महिला किरदार, नायिका की माँ व सास रूढ़िवादी हैं परम्पराग्रस्त हैं। उनके अनुसार गृहस्थ जीवन में लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं ऐसे में यदि पति ने हाथ उठा दिया तो बात न बढ़ाते हुए, उसे भुला कर अपनी गृहस्थी पुनः संभालनी चाहिए।
एक गृहिणी अपने परिवार के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है। जन्म से ले कर 20-25 वर्ष तक जिस घर में रहती है, जहाँ उसका एक कमरा होता है, उसकी अलमारी, उसकी चीजें, उसकी यादें, उसकी भावनाएं एवं तमाम रिश्ते जिन्हें वह विवाह के बाद छोड़ कर एक पराए घर को अपनाने ख़ुशी-ख़ुशी विदा हो जाती है।
एक नए घर को अपना कर, वहाँ के सदस्यों को अपना कर, नये रिश्तों में बंध कर अपनी नई दुनिया सजाती है, जहाँ सबसे करीब व विश्वासपात्र होता है - उसका जीवनसाथी। जिसके लिये वह अपना सब कुछ त्याग कर, हर कीमत पर उससे प्यार व सम्मान पाना चाहती है और वही उसे बेइज़्ज़त कर दे तब...!!!
इन दिनों टीवी पर एक विज्ञापन आ रहा है जिसमे आमंत्रित अतिथि यह जान कर अचंभित हैं कि उस घर मे लड़की की माँ भी साथ रहती है, ऐसे में वह माँ कहती है - जब लड़के की माँ साथ रह सकती है तो लड़की की माँ क्यों नहीं!!! यह निश्चित ही बदलते परिवेश व नारी के अधिकार क्षेत्र के विस्तार होने का सूचक है।
महिला दिवस पर अनेक सामाजिक संगठन ढूंढ-ढूंढ कर उन महिलाओं का सम्मान करते हैं जिन्होंने समाज के लिए कोई योगदान दिया।
एक गृहिणी को मैंने कभी यह सम्मान मिलते नहीं देखा, क्यों...? न ही किसी काम वाली बाई को, जिसके बगैर किसी भी हाई सोसायटी की महिला से ले कर मध्यमवर्गीय महिला का भी जीवन दूभर है।
हर महिला अपने आप मे महत्वपूर्ण है। काम वाली बाई भी, क्योंकि उसके बिना सारे काम रुक जाते हैं, एक गृहिणी की वर्सेटाइल पर्सनालिटी होती है, कभी वह कुक है, कभी लॉन्ड्री पर्सन, कभी ड्राइवर है तो कभी टीचर, कभी इंटीरियर डेकोरेटर है तो कभी मैनेजर। हर रिश्ते को निभाने का हुनर उसके पास है। शहर में महिलाएं आधुनिक परिधान में बैंक की लाइन से ले कर पेरेंट्स टीचर मीट में चुस्ती से भाग लेती दिखाई देंगी तो ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं हर मौसम में खेतों में फसल बोती व काटती दिखेंगी। गाय-भैंस के खली, भूसे, चारे, दूध दुहने व गोबर के कंडों को संभालती दिखेंगी व साथ ही सुबह-शाम चौके में भोजन बनाती भी मिलेंगी। ऐसा मैनेजमेंट भला दुनिया के किस मैनेजमेंट स्कूल में सिखाया जा सकता है!!
इन सब के बावजूद उनका वज़ूद आज भी समाज में दोयम दर्जे का ही है।
उसे थप्पड़ मारने का अधिकार आज भी पुरुष के पास सुरक्षित है। पुरुष के पास तर्क है कि - उसका मूड ख़राब था, वह नाराज था, वह दिन भर ऑफिस में अपने परिवार के लिए ही तो अपने अफ़सर की तमाम बातें सुनता है, वह सुबह से शाम तक अनेक मानसिक उलझनों में उलझ कर तनावग्रस्त हो जाता है, अगर ऐसे में उसने थप्पड़ मार दिया तो क्या हुआ!!!
महिला को उसे भुला कर मूव ऑन करना चाहिए क्योंकि पुरूष सब कुछ झेल रहा है।
सार यह नहीं कि महिलाएं पुरुषों से श्रेष्ठ हैं व पुरुष क्रूर या ख़राब हैं, सार यह है कि - क्यों नहीं समाज महिला की समान भागीदारी स्वीकारता? महिला बॉस हो तो पुरुष का पुरुषत्व आहत होता है। महिला किसी क्षेत्र में उससे आगे निकल जाए तो उसे बर्दाश्त नहीं। क्यों?
अगर वह तनावग्रस्त है तो उसे हक़ है कि वह अपनी भड़ास घर की महिला पर निकाल सके। जब प्रेम करने का उसका मन हो तब उसे पत्नी का समर्पण चाहिए। जब उसे दुख हो तो उसे पत्नी की सांत्वना चाहिए। जब वह विजयी हो तो पत्नी भी जश्न मनाये। क्यों ?
जब दोनों एक दूसरे के पूरक हैं तब यह भेदभाव क्यों? पत्नी का मूड ऑफ है और वह खाना न बनाए, चुपचाप एक कोने में आँखें बंद कर के बैठी रहे, यह सम्भव है? वह तनावग्रस्त हो तो घर के सारे काम छोड़ कर अपने कमरे में बिस्तर पर चुपचाप लेटी रहे, यह सम्भव है ? नहीं।
उसकी मनःस्थिति कैसी भी हो, सुबह की चाय से ले कर रात को सिरहाने पानी रखने तक सारे काम वह चुपचाप करती है।
क्या पुरूष ऐसा कर सकते हैं? नहीं।
महिला व पुरुष के बीच का यह अंतर कभी खत्म नहीं हो सकता। हाँ, यह अवश्य है कि जीवन शैली आधुनिक हो रही है किन्तु विचार अब भी गुलामी की जंजीरों में जकड़े हैं।
महिला दिवस के इस एक दिन पुरुष महिलाओं का मंच पर सम्मान करेंगे, भाषण देंगे, उनकी खूबियां गिनाएंगे, शॉल-श्री फल से अभिनंदन करेंगे और अगले दिन फिर वही दिनचर्या । हो सकता है ऐसे ही किसी पुरुष का मूड ऑफ हो, वह तनाव में हो, गुस्से में हो और उसके पास देने के लिए अंत में फिर रहेगा वही - थप्पड़।
विश्व महिला दिवस की अग्रिम शुभकामनाएं।
सोच बदलिए, मंच पर सम्मानित न भी करें किन्तु मन मे नारी के प्रति सम्मान भाव रखिये।
- रोली पाठक
धीमी गति की इस फ़िल्म में एक स्पष्ट संदेश है कि - यदि पुरूष अपनी पत्नी की इज़्ज़त नहीं करेगा तो लाख सुख-सुविधायें व प्रेम भी उसे अस्वीकार्य है।
फ़िल्म में अनेक सशक्त महिला किरदारों के अलावा घरेलू काम-काज करने वाली महिला का ज़मीर भी पति के अधीन बताया गया है। एक सफल व समर्पित गृहिणी को भरी पार्टी में पति थप्पड़ मारता है और उसके लिए उसे कोई मलाल भी नहीं क्योंकि उसने नौकरी के तनाव व गुस्से के चलते वह थप्पड़ जड़ दिया था। इसी एक थप्पड़ ने नायिका का वज़ूद ही बदल दिया।
हमारे समाज में आज भी महिलाओं पर हाथ उठाने का अधिकार पुरुषों को ही प्राप्त है।
अनेक भावात्मक उतार चढ़ाव से गुजरती इस फ़िल्म में भी यही संदेश है कि - हे नारी, जहाँ तुम्हारा सम्मान नहीं, वह जगह तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं।
फ़िल्म के दो महिला किरदार, नायिका की माँ व सास रूढ़िवादी हैं परम्पराग्रस्त हैं। उनके अनुसार गृहस्थ जीवन में लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं ऐसे में यदि पति ने हाथ उठा दिया तो बात न बढ़ाते हुए, उसे भुला कर अपनी गृहस्थी पुनः संभालनी चाहिए।
एक गृहिणी अपने परिवार के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है। जन्म से ले कर 20-25 वर्ष तक जिस घर में रहती है, जहाँ उसका एक कमरा होता है, उसकी अलमारी, उसकी चीजें, उसकी यादें, उसकी भावनाएं एवं तमाम रिश्ते जिन्हें वह विवाह के बाद छोड़ कर एक पराए घर को अपनाने ख़ुशी-ख़ुशी विदा हो जाती है।
एक नए घर को अपना कर, वहाँ के सदस्यों को अपना कर, नये रिश्तों में बंध कर अपनी नई दुनिया सजाती है, जहाँ सबसे करीब व विश्वासपात्र होता है - उसका जीवनसाथी। जिसके लिये वह अपना सब कुछ त्याग कर, हर कीमत पर उससे प्यार व सम्मान पाना चाहती है और वही उसे बेइज़्ज़त कर दे तब...!!!
इन दिनों टीवी पर एक विज्ञापन आ रहा है जिसमे आमंत्रित अतिथि यह जान कर अचंभित हैं कि उस घर मे लड़की की माँ भी साथ रहती है, ऐसे में वह माँ कहती है - जब लड़के की माँ साथ रह सकती है तो लड़की की माँ क्यों नहीं!!! यह निश्चित ही बदलते परिवेश व नारी के अधिकार क्षेत्र के विस्तार होने का सूचक है।
महिला दिवस पर अनेक सामाजिक संगठन ढूंढ-ढूंढ कर उन महिलाओं का सम्मान करते हैं जिन्होंने समाज के लिए कोई योगदान दिया।
एक गृहिणी को मैंने कभी यह सम्मान मिलते नहीं देखा, क्यों...? न ही किसी काम वाली बाई को, जिसके बगैर किसी भी हाई सोसायटी की महिला से ले कर मध्यमवर्गीय महिला का भी जीवन दूभर है।
हर महिला अपने आप मे महत्वपूर्ण है। काम वाली बाई भी, क्योंकि उसके बिना सारे काम रुक जाते हैं, एक गृहिणी की वर्सेटाइल पर्सनालिटी होती है, कभी वह कुक है, कभी लॉन्ड्री पर्सन, कभी ड्राइवर है तो कभी टीचर, कभी इंटीरियर डेकोरेटर है तो कभी मैनेजर। हर रिश्ते को निभाने का हुनर उसके पास है। शहर में महिलाएं आधुनिक परिधान में बैंक की लाइन से ले कर पेरेंट्स टीचर मीट में चुस्ती से भाग लेती दिखाई देंगी तो ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं हर मौसम में खेतों में फसल बोती व काटती दिखेंगी। गाय-भैंस के खली, भूसे, चारे, दूध दुहने व गोबर के कंडों को संभालती दिखेंगी व साथ ही सुबह-शाम चौके में भोजन बनाती भी मिलेंगी। ऐसा मैनेजमेंट भला दुनिया के किस मैनेजमेंट स्कूल में सिखाया जा सकता है!!
इन सब के बावजूद उनका वज़ूद आज भी समाज में दोयम दर्जे का ही है।
उसे थप्पड़ मारने का अधिकार आज भी पुरुष के पास सुरक्षित है। पुरुष के पास तर्क है कि - उसका मूड ख़राब था, वह नाराज था, वह दिन भर ऑफिस में अपने परिवार के लिए ही तो अपने अफ़सर की तमाम बातें सुनता है, वह सुबह से शाम तक अनेक मानसिक उलझनों में उलझ कर तनावग्रस्त हो जाता है, अगर ऐसे में उसने थप्पड़ मार दिया तो क्या हुआ!!!
महिला को उसे भुला कर मूव ऑन करना चाहिए क्योंकि पुरूष सब कुछ झेल रहा है।
सार यह नहीं कि महिलाएं पुरुषों से श्रेष्ठ हैं व पुरुष क्रूर या ख़राब हैं, सार यह है कि - क्यों नहीं समाज महिला की समान भागीदारी स्वीकारता? महिला बॉस हो तो पुरुष का पुरुषत्व आहत होता है। महिला किसी क्षेत्र में उससे आगे निकल जाए तो उसे बर्दाश्त नहीं। क्यों?
अगर वह तनावग्रस्त है तो उसे हक़ है कि वह अपनी भड़ास घर की महिला पर निकाल सके। जब प्रेम करने का उसका मन हो तब उसे पत्नी का समर्पण चाहिए। जब उसे दुख हो तो उसे पत्नी की सांत्वना चाहिए। जब वह विजयी हो तो पत्नी भी जश्न मनाये। क्यों ?
जब दोनों एक दूसरे के पूरक हैं तब यह भेदभाव क्यों? पत्नी का मूड ऑफ है और वह खाना न बनाए, चुपचाप एक कोने में आँखें बंद कर के बैठी रहे, यह सम्भव है? वह तनावग्रस्त हो तो घर के सारे काम छोड़ कर अपने कमरे में बिस्तर पर चुपचाप लेटी रहे, यह सम्भव है ? नहीं।
उसकी मनःस्थिति कैसी भी हो, सुबह की चाय से ले कर रात को सिरहाने पानी रखने तक सारे काम वह चुपचाप करती है।
क्या पुरूष ऐसा कर सकते हैं? नहीं।
महिला व पुरुष के बीच का यह अंतर कभी खत्म नहीं हो सकता। हाँ, यह अवश्य है कि जीवन शैली आधुनिक हो रही है किन्तु विचार अब भी गुलामी की जंजीरों में जकड़े हैं।
महिला दिवस के इस एक दिन पुरुष महिलाओं का मंच पर सम्मान करेंगे, भाषण देंगे, उनकी खूबियां गिनाएंगे, शॉल-श्री फल से अभिनंदन करेंगे और अगले दिन फिर वही दिनचर्या । हो सकता है ऐसे ही किसी पुरुष का मूड ऑफ हो, वह तनाव में हो, गुस्से में हो और उसके पास देने के लिए अंत में फिर रहेगा वही - थप्पड़।
विश्व महिला दिवस की अग्रिम शुभकामनाएं।
सोच बदलिए, मंच पर सम्मानित न भी करें किन्तु मन मे नारी के प्रति सम्मान भाव रखिये।
- रोली पाठक
बहोत सुंदर प्राकलन किया हैं। ना केवल ये movie सबके देखने लायक़ हैं वरन आत्मसार किए जाने योग्य हैं! नारी का मान केवल एक दिन महिला दिवस मनाने से नहीं बढ़ता वरन हर दिन उसके काम की प्रशंसा करने से बढ़ता हैं। लिखते रहे ऐसे ही। ख़ुशी होती हैं।
ReplyDelete😊 धन्यवाद मेरे पुराने दोस्त ।
Deleteसमय के साथ साथ पुरषो को भी अपनी सोच बदलनी पड़ेगी ।।नारी का सम्मान केवल एक दिन नही होना चाहिये ।।सरकारो को भी स्कूली शिक्षा में ये एक अनिवार्य चैप्टर पड़ना चाहिये ।।
ReplyDeleteबहुत शानदार लेख ।।
आपको साधुवाद 🙏🙏
बहुत बहुत धन्यवाद, आभार।
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