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जननि का महत्व

 सदियां ही नहीं युग बीत गए यह कहते हुए कि समाज पुरुष प्रधान है | कई लोग इस बात पर आपत्ति करते हैं कि काहे का पुरुष प्रधान समाज ! आज की नारी बराबरी की हक़दार है हर क्षेत्र में | मैंने भी यह महसूस किया कि कौन सा क्षेत्र अछूता रह गया नारी से जो यह सोचना पड़ा !  इन दिनों भगवान श्री राम की लहर देश भर में चल रही है | सभी राममय हैं | मेरे मन में यूँ ही विचार कौंधा कि माता सीता की माता कौन हैं ये कौन कौन जानता होगा बिना गूगल किये | जनक दुलारी को सब जानते हैं किन्तु जननि को बहुत कम लोग | उनका नाम है - सुनयना, किन्तु अधिकतर लोग उनका नाम नहीं जानते | मुझे याद आया कि  मेरी बेटी जब पुणे यूनिवर्सिटी में थी तब उसकी मार्कशीट पे सिर्फ उसका नाम व् माता का नाम अर्थात मेरा नाम आता था क्यों वहाँ माता का नाम ही प्रथम आता है | मै बहुत प्रसन्न हुई थी कि कहीं तो माँ को यह अवसर मिला | कहने का तात्पर्य यह है कि माँ आज भी लुकी-छुपी-दबी है और पिता सर्वोपरि हैं, जबकि दोनों ही महत्वपूर्ण हैं, एक दूसरे के पूरक हैं | बस, यही आशा एवं विश्वास है कि बेटी जनक दुलारी के साथ सुनयना दुलारी भी कहलाई जाये | - रोली पाठक 

एक था कालू !

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कालू से मेरा परिचय लगभग आठ साल पहले हुआ था, उसकी एक आँख बुरी तरह ज़ख़्मी थी तब मेरे सामने रहने वाली डॉग लवर टिक्कू ने उसकी आँख का ऑपरेशन कराया और उसकी वह आँख लगभग बंद हो गई थी, अब वह एक आँख से दुनिया देखता था | निहायत ही शरीफ और सीधा-सादा, काले व कहीं कहीं सफ़ेद रंग के बालों वाला कालू कुछ लोगों का बड़ा दुलारा था | मेरे पास सफ़ेद पॉमेरियन है तो मेरे घर के सदस्यों को कालू से भी विशेष स्नेह था | वह पिछले चार सालों से रात का खाना नियम से हमारे घर ही खाता, कभी वो नहीं आता तो उसकी ढुंढाई मच जाती | कभी उसे दूसरे कुत्ते काट लेते तो हम इलाज कराते, दूध में दवाई पीस-पीस कर उसे खिलाई जाती, घाव पर दवा लगाते, एक हफ्ते में वो फिर से भला चंगा हो जाता | एक साल पहले उसे कैंसर हो गया था तब कैम्पस के एक परिवार ने उसका इलाज कराया, कीमो थैरेपी हुई और एक महीने बाद कालू फिर स्वस्थ हो गया | हम कभी रात को कहीं से लौटने में लेट हो जाते तो कॉलोनी के गेट से कालू हमारी गाड़ी का हॉर्न पहचान कर पीछे पीछे भागता आता और हम सबसे पहले उसे खाना देते | हमारे डॉग हैप्पी से उसकी खासी दोस्ती थी | रात का खाना दोनों के लिए अलग बनता और

पापा

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 कोविड ने जब सारी दुनिया को दहला रखा था और घर की चारदीवारी में सीमित कर दिया था तब मेरे पापा जो कि घर से 3 किमी दूर रहते हैं, वो रोज दोपहर को घर आते। 78 साल उम्र हो गई किंतु चुस्ती-फुर्ती और उत्साह 50 वर्ष के व्यक्ति जैसा। लाख समझाओ उन्हें कि घर से मत निकलिये, मास्क लगाईये लेकिन वो कहाँ सुनते थे। मेरी दोनो बेटियों से अगाध प्रेम हैं पापा-मम्मी को, वो दोनो भी नाना-नानी पर जान छिड़कती हैं। दोपहर के 1.30 बजते ही पापा कार चला कर घर आ जाते और फिर होती ताश की बाज़ी शुरू। शाम 5 बजे तक ताश खेला जाता, साथ ही पापा की एलेक्सा से गानों की फ़रमाइश चलती रहती, एक डायरी बनाई गई थी जिसमे रमी के पॉइंट्स लिखे जाते, आख़री में टोटल किया जाता कि उस दिन का विनर कौन रहा। यह सिलसिला खूब लंबा चला, तभी पापा भी कोरोना की चपेट में आ गए, 13 दिन अस्पताल में रहे। कमज़ोर भी हो गए थे। फिर शनिवार-इतवार के 2 दिन ताश के लिये मुक़र्रर किये गए। दोपहर के वो 4 घंटे अब हम लोगों के लिए सरदर्द बन गए थे लेकिन पापा को कैसे मना करें, उनका उत्साह तो वैसा का वैसा बरकरार था। ख़ैर, वक़्त गुज़र रहा था, कोविड के बाद जीवन पटरी पर आ रहा था। बड़ी बेटी

क्या दें उपहार...!!!

 ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब हमें परिवार में, रिश्तेदारी में, मित्रों को या औपचारिक संबंधों को निभाने के लिये उपहार देने का मौका आता है। कहने को तो यह छोटी सी बात है किंतु विचार कीजिये कि ये वाकई एक बड़ा मुद्दा है। हम कई बार सोचते ही रह जाते हैं कि फलां-फलां को क्या उपहार दें और अंत में निरर्थक सा कुछ थमा आते हैं, जिसे लेने वाला भी आगे बढ़ा देता है अर्थात वो भी यूँ ही किसी को थमा देते हैं। याद कीजिये जब कभी आपको उपहार मिलने का अवसर आया तो वे कौन सी वस्तुयें थीं जिन्हें पा कर आप प्रफुल्लित हुए, आपको वह उपहार बेहद उपयोगी लगा या पसन्द आया और वो क्या चीजें थीं जिन्हें आपने देखते ही मन बना लिया कि ये तो किसी को दे देंगे। कुछ बातें दिमाग में रख कर यदि उपहार तय करेंगे तो उसे लेने वाला भी प्रशंसा करेगा। 1. अवसर एवं बजट को ध्यान में रख कर निर्णय लीजिए, साथ ही जिन्हें उपहार देना है उनसे आपके संबंध कैसे हैं - औपचारिक, प्रगाढ़ या रिश्तेदारी !  2. उपहार पहले से तय करें व ला कर रख लें ताकि जल्दबाजी में कुछ भी अनाप-शनाप न ले लें।कार्यक्रम के एक दिन पहले तक हर हाल में उपहार ले आएं एवं उसे खूबसूरती से गिफ्ट

व्यस्तता...

 कितने दिन हो गए कुछ लिखा ही नहीं। विचारों के बादल आषाढ़ के मेघों की तरह दिलो-दिमाग में खूब उथल-पुथल मचाते रहते हैं लेकिन समय ही नहीं कि उन्हें शब्दों में ढाल सकूँ।  बिटिया के विवाह में लगभग एक माह शेष है, दीपावली का महापर्व सिर पर है, घर में एक साथ सफाई, रंगाई-पुताई, बढ़ई के काम सब चल रहे हैं। घर का सामान उलट-पुलट है। कुछ भी व्यवस्थित नहीं ऐसे में विचारों को कैसे एकसार करूँ !!! कभी दर्ज़ी के यहाँ ब्लाउज़ सिलने देना है तो कभी साड़ी में फॉल-पीकू कराना है, कभी मेहमानों की लिस्ट बनानी है तो कभी उनके उपहारों को अलग-अलग नाम लिख कर पैकेट्स बनाने हैं। बीच मे दस-बारह लोगों की चाय बनाओ तो घर मे चाय-नाश्ता-खाना भी चाहिए। बढ़ई बुलायें तो अट्ठारह सीढियां चढ़ कर ऊपर भागो फिर पुताई वाले की सुनने वापस नीचे आओ। इस कवायद में भी विचार कमबख्त शांत नहीं रहते, रोज एक बार मन का दरवाजा खटखटा कर जता ही देते हैं कि हमें भी आकार दो। एक महीने बाद बिटिया का दूसरा घर हो जायेगा। अभी जो कमरा बेतरतीब सा बिखरा पड़ा है, शादी के बाद उसकी अलमारी, आईना, टेबल सब साफ-सुथरे चुप से हो जाएंगे। अभी जो चीख़-पुकार मची रहती है, ये नहीं मिल

दर्द का साल और खुशी के पल

 आज साल के अंतिम पृष्ठ के समापन पर जब इसके पन्ने उलटती हूँ तो दुःख, दर्द, पीड़ा, अवसाद ही अधिक दिखाई देता है। वैश्विक महामारी ने बहुत लोगों को अपना ग्रास बनाया, कुछ रिश्तेदार थे, कुछ परिचित, कुछ पराये और कुछ बेहद अपने और एक थी मेरी बहुत प्यारी दोस्त। पिछले साल आज ही की शाम वो साथ थी, रात 9 बजे से देर रात तक। हमारा नव वर्ष साथ ही मना, क्या मालूम था कि उसके साथ वो आख़री साल होगा। उसे गए 7 महीने हो चुके लेकिन आज भी वो ख़यालों में ज़िन्दा है। हर जगह दिखाई देती है। हर रोज़ याद आती है। मनजीत के जाने के कुछ समय बाद एक-एक करके कई परिचितों के दुःखद समाचार प्राप्त हुए। दूसरी लहर भयावह थी।  रिश्तेदार व परिजन भी कोरोना से पीड़ित थे, अलग-अलग अस्पतालों में भर्ती। हमने यथासंभव सभी की सहायता की और धीरे-धीरे वे सब स्वस्थ हो कर घर लौट आये।  ईश्वर ने मेरे परिवार पर विशेष कृपा की। हम सब पूर्णतः सुरक्षित रहे।  साल 2021 में गिनती की एकमात्र किन्तु बहुत बड़ी खुशी भी शामिल है - मेरी बेटी की सगाई। एक नया रिश्ता जुड़ना। यह एक ऐसी खुशी है जिसे परिवार के लोगों ने हृदय से महसूस किया। नई पीढ़ी का पहला सम्बन्ध स्थिर हुआ था व

भीगी यादें

बरखा के संगीत ने छेड़ दिये फिर मन के तार उमड़-घुमड़ होने लगा कुछ वहाँ, जिसे मन कहते हैं। वो धुन वो उमंग जैसे जलतरंग, जैसे मेघ-मल्हार और बादलों पर सवार मेरा मन। ठंडी बयार हिलोरती ज़ंग लगी यादों की पतीली को, बूंदे गिर-गिर कर  चमका देती उन यादों को जो सर्दी के मौसम में दफन हो चुकीं थीं लिहाफ़ में और गर्मी में  बह चुकी थीं पसीने संग, गरजते-लरजते बादलों ने  जैसे फिर हटाया हो वो लिहाफ़। चमकती दामिनी की  फ्लैश लाईट चमका रही उन उनींदी, अलसायी  यादों को... फिर ताज़ा कर दिया पानी से धुली पत्तियों की तरह फिर झूमने लगीं  घूमने लगीं मन-मस्तिष्क को झिंझोड़ने लगीं.. सच है, बदल देता है मिजाज़ ये बारिश का पानी.. गर्म चाय से उड़ते धुएं में बनती हुई इक तस्वीर मीठे घूँट की तरह  सहलाती हुई सी  मानो अंदर उतर रही। काली बदली बरस रही ऐसे कि छाते का उलट जाना याद आने लगा। भीगते परिंदों में खुद को देखते हुये यादों को मैने समेटा,लपेटा आँखों से शुक्रिया कहा अपनी बरसात के साथ इस बरसात को। - रोली