आज है होलिका-दहन, आओ इसकी ज्वाला में, स्वाहा कर दें अहंकार, क्रोध, स्वार्थ, अभिमान.. किन्तु ना दें पीड़ा, किसी वृक्ष को.. ना करें आहत , उसका तन.... गगन चुम्बी ज्वाला, ही नहीं है दहन होलिका का, चंद लकड़ियाँ, सूखे पर्ण, कंडे, भी कर देंगे होलिका दहन, प्रतीकात्मक दहन, ही है उत्तम, बचाना है यदि, हमें पर्यावरण..... होली भी खूब मनाएंगे, सबके तन-मन पर, रंगीन गुलाल लगायेंगे.... सोचो उनके भी बारे में, मीलों जाते जो लेने पानी, वर्तमान ही नहीं, भविष्य की भी रखनी होगी हमें सावधानी.... सर्वोत्तम है तिलक होली, संग अबीर के लगायें, माथे पर रोली..... यही होगी प्रेम की होली... सौहाद्र की होली.... मानवता की होली.... परमार्थ की होली..... ***सभी प्यारे मित्रों को होली की रंग-बिरंगी शुभकामनाएँ.... आइये...मनाएं सिर्फ तिलक होली...अबीर-गुलाल की होली...
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Showing posts from March, 2011
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कैसा है ये युग पाषाण..... स्वभाव कठोर... ह्रदय पत्थर.. शून्य संवेदनाएं .. मृत भावनाएँ... मन अचेत... मानव निष्चेत, इच्छाएं अनंत, जीवन परतंत्र... बुझे नयन, क्षीण तन-मन... मस्तिष्क में तनाव, रिश्तों में चुभन, भावना स्वार्थ की, मृत्यु परमार्थ की, मृत्यु यथार्थ की, कैसा है यह युग पाषाण... कैसा है ये युग पाषाण.... -रोली....
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एक पीड़ा महसूस हो रही, क्यों, किसके लिए.... ह्रदय जानता नहीं......... नयन बूझ नहीं पाते, आँसुओं की पहेली.... क्यों कर भीग रहे कोर जबकि सबकुछ है पास मेरे.... एक कसक, एक उलझन , है क्यों, किसके लिए..... ह्रदय जानता नहीं........ हैरान परेशां है ये, नन्हा सा दिल... वो है कौन जिसका पता, अब तक मिला नहीं..... एक हैरत एक चाहत, है क्यों, किसके लिए..... ह्रदय जानता नहीं...... अजीब कश-म-कश है, अजीब प्यास है..... किसी को पाने का, अजीब अहसास है.... एक स्वप्न, एक कल्पना, है क्यों,किसके लिए......... ह्रदय जानता नहीं............ - रोली......
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तिनका-तिनका ढूँढ कर लाती चुन-चुन कर... बड़ी लगन से, बड़े जतन से, बुनती अपना घर.... छज्जे से झरोखे से, मै देखूँ छुप-छुप कर, करती अथक परिश्रम, जबकि, हैं छोटे से पर, हम इन्सां तो हार बैठते, हौसला अक्सर..... ऐ नन्ही-सी चिड़िया मुझको, भी जीना सिखला दे, कितनी भी हो राह कठिन, संघर्ष मुझे सिखा दे.... तेरे नीड़ सी मेरी भी, मंजिल मुझको दिखला दे...... -रोली....
माँ की सीख.......
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मेरे आँगन की देहरी पर, साँझ ढले दीपक जलता है... घर की देहरी लिपि-पुती ही, वधु सी ही शोभा देती.... माँ कहती थी, अपने घर में, भोर हुए तू ऐपन देना, साँझ ढले तुलसी तले, नन्हा सा दिया जला देना... सूर्यदेव जब पूरब में हों, जल उनको अर्पित कर देना... ये बातें है बड़ी काम की, गाँठ इन्हें तू बाँध लेना.... जब-जब तम होगा जीवन में, वही दिया पथ-प्रदर्शक होगा.... अमावस गर छाये जीवन में, सूर्यदेव का अर्घ्य हर लेगा.... घर की देहरी सदा ही सबका, करती रहेगी सत्कार... कभी ना कम होगा मेरी बेटी, तेरे घर का भरा भण्डार.... तेरे लिए यही मेरी पूँजी, सीख, स्नेह व प्रेम अपार......... - रोली...
आया फागुन.......
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अहाते में मेरे धूप का नन्हा सा टुकड़ा रोज़ उतर आता है... इस सर्द सुबह में वह नन्हा सा टुकड़ा भला-भला सा नज़र आता है... टेसू की चटकती कलियों से चुरा के रंग वह मेरी चूनर में दे जाता है..... आँगन में चहचहाती वह नन्ही सी चिड़िया, दाने चुग-चुग के आभार प्रकट करती है.... सांझ-सवेरे उसका कलरव मेरा मन हर लेती है... कोयल कूक सुनाने लगी, बौर की खुश्बू आने लगी, बदल गयी रुत सुनाई देने लगी भवरें की गुनगुन दे दी है दस्तक मीठी बयार ने, ऐपन लगी देहरी पे देखो खड़ा है फागुन....