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Showing posts from May, 2010

अजन्मी....

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ह्रदय का द्वन्द नहीं ले पा रहा शब्दों का रूप, विचारों की उथल-पुथल नहीं मिलता एक निष्कर्ष भाग रहे शब्द बेलगाम मिलता नहीं छोर कैसे पिरोउं उन्हें.. कहाँ है डोर.....! है मस्तिष्क में संग्राम क्या लिखूं,कैसे लिखूं.. या दे दूं उन्हें विराम...! प्रश्नवाचक चिन्ह खडा है मुह बाये, कैसे ये अजीब शब्द मेरी लेखनी में समायें...?? क्या लिखूं कि कुछ, पढने लायक बन जाये.... एक पंक्ति के लगें हैं चार-चार अर्थ, पा रही आज स्वयं को.. लिखने में असमर्थ.. देखा जो वह ह्रदय को झिंझोड़ गया.. घर के पिछवाड़े नाले में, फिर कोई अजन्मा भ्रूण छोड़ गया.... कब तक होंगी ये कन्या भ्रूण हत्याएं....? बाप तो ना समझेगा.. कब जागेंगी ये मायें.......?? जागो, हे नारी, तुम्हे ही लड़ना होगा... वर्ना अनचाहे भ्रूण को, यूँ ही नालों में सड़ना होगा...... यूँ ही सड़ना होगा..................! -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

गर्मी की छुट्टियां

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(मेरे बच्चे चाहते थे उनके लिए कोई कविता लिखूं, तो अपने बचपन को याद करके कुछ लिखा है, बचकाना सा... ) बैठे-बैठे सोच रही हूँ अपने बच्चों को देख रही हूँ नज़र गडाए टी.वी. पर जो, टॉम एंड जेरी देख रहे हैं... कितना नीरस इनका बचपन, सोच रही हूँ मै मन-ही-मन कहाँ खो गए खेल वो प्यारे, खेले थे मिल हमने सारे, पिंकी-पिंकी व्हाट कलर और पोशम्पा भई पोशम्पा... लुकाछिपी और नदी-पहाड़, और कभी सितौलिया.... घर में पाँव ना टिकते थे बाहर भागे फिरते थे, खेलकूद के हो बेहाल जब, घर को वापस आते थे, पूड़ी-सब्जी आम की लौंजी, मिल बाँट कर खाते थे... लस्सी, पना और गन्ने का रस, रस लेले कर पीते थे... तब ना थे ये थम्स-अप, फैंटा... फ्रूटी, स्प्राईट औ लिम्का.... पढ़ते थे हम चम्पक-नंदन, भरता ना था उनसे ये मन.. चाचा चौधरी और चंदामामा जुपिटर के साबू का कारनामा.. पराग और अमर चित्र कथाएं... अब भी देतीं मुझे सदायें.... कितना प्यारा था वो बचपन नानी के घर का वो आँगन.. बटलोई में डाल उबलती.. चूल्हे पर रोटी थी सिंकती... हर गर्मी में जाते थे हम, मन भर के रह आते थे हम.. बदला अब बच्चों का बचपन टी.वी. कंप्यूटर इनका जीवन जिस दिन सर्वर डाउन र

म्रत्युदंड .....

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मौत का भय... होता है कितना भयावह, अपने अंतर्मन को कचोटता, ह्रदयगति को सहेजता, कांपते पैरो पर खड़ा लडखडाता चुचुआती पसीने की बूंदों को पोंछता होंठो की थरथराहट अँगुलियों की कंपकंपाहट को काबू करने का असफल प्रयत्न करता... काल को प्रत्यक्ष खड़ा देख.. मन-ही-मन अपने गुनाह... दोहराता.. रक्तरंजित शवो के ढेर, उनके परिजनों के विलाप को याद करता .. दिख रहा है उसे एक काला कपडा, एक फांसी का फंदा और एक जल्लाद... अपनी तरह ही, जो उसका भी, क्रूरता से वैसे ही अंत करेगा जैसा उसने निर्दोषों का किया... तभी पिघले सीसे सी आवाज़ आई उसे म्रत्युदंड दिया गया.... या अल्लाह.... कहाँ गए मेरे वो खैरख्वाह... देते थे जो मोटी तनख्वाह... कहते थे तू जेहादी है... चाहते हम आज़ादी हैं, जो तू ही हमें दिलाएगा.. इस सबाब के काम में, सीधा जन्नत जायेगा.. या अल्लाह... इस दोज़ख से मुझे बचाओ.. जेहाद की इस जंग से, सबको निजात दिलाओ.. मुझे तो दे दी सजा... उनका क्या, जो फिर कई गर्दने तैयार कर रहे हैं... जिनके कारण हम सब सूली पर चढ़ रहे हैं... एक "अजमल कसाब"मर भी गया तो क्या होगा... जड़ें खोदो उनकी, जिनके कारण निर्दोष मर रहे हैं...