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Showing posts from July, 2010

वसुंधरा......

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नील-श्वेत गगन, हो चला गहन... छा रही घटा सुरमयी, बह रही मदमस्त पवन... रह-रह कर कौंधती सौदामिनी.. दिन में ही मानो, उतर आई यामिनी.. निर्झरिणी की लहरें, कर रही अठखेलियाँ ... खिलखिला रही हों जैसे, चंचल सहेलियां... वसुधा रही बदल, अप्रतिम रूप पल-पल... कभी नवयौवना चंचल, कभी उद्वेलित,कभी अल्हड़... कभी गंभीर कभी उच्छृंखल... रिमझिम-रिमझिम टिप-टिप, मेघ देखो बरस पड़े... देवदार औ चीड़, भीग रहे खड़े-खड़े... मुरझाई प्रकृति में,प्राण आ रहे हैं... पत्ते-पत्ते बूटे-बूटे,मुस्कुरा रहे हैं.. नृत्य कर रहे वृक्ष झूम-झूम.. आभार मानो वर्षा का, कर रहे मुख चूम-चूम... बरस-बरस थक गए श्याम मेघ, हो गया उजला जहां... चार चाँद लग गए, इंद्रधनुष प्रकट हो गया.... अभिभूत हूँ मै देखकर ईश्वर की तूलिका....... ईश्वर की तूलिका....... -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

उलझन.......

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विवाह उपरान्त प्रथम सावन..... सीप से स्वप्निल नयन बात जोहते, मन-ही-मन आये पाती बाबुल की, आ रहा रक्षाबंधन... पीहर की देहरी बुला रही, माँ गीत ख़ुशी के गा रही, सखियाँ मेहँदी लगा रहीं, मै पुलकित होती मन-ही-मन... विवाह उपरांत प्रथम सावन...... जाने का उल्लास बहुत है, बँटा-बँटा सा ह्रदय पर अब है, आते जब-जब सामने साजन, तन-मन होता उन्हें समर्पण, है उधेड़बुन में चंचल मन..... विवाह उपरांत, प्रथम सावन......... जाना है होते ही भोर, दे रहीं सदायें रेशम की डोर, क्यों भीग रहे नैनो के कोर, भीतर भी बरस रहा इक सावन... कितना अदभुत है ये बंधन.. सोच रहा अनुरागी मन. विवाह उपरान्त, प्रथम सावन.......... - रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

प्रीति.....

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आसमाँ के अश्क धरती पी रही है सूरज के दिए ज़ख्मो को, बूंदों से सी रही है...... जेठ की अगन झुलसा चुकी तन आ गया सावन वो अमृत घूँट पी रही है.... धूप से पड़ीं उसके तन पे दरारें सुनके आसमाँ ने, वसुधा की कराहें बरसा दीं तड़प के अपनी प्रेम फुहारें.. अश्कों की बूंदों का अब वो, मरहम लगा रही है.. सूरज के दिए ज़ख्मो को बूंदों से सी रही है....... आसमाँ के अश्क धरती पी रही है......... -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

श्रमिक...

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मजबूर हूँ बहुत मजबूर हूँ... स्वप्न से अपने, बहुत दूर हूँ... अपमान सहता हूँ, कुछ न कहता हूँ, नन्हे से कच्चे घरौंदे में, मै रहता हूँ आधा पेट खाता हूँ और कभी-कभी भूखा ही सो जाता हूँ, तोड़-तोड़ के पत्थर थक के चूर हूँ... मजबूर हूँ हाँ, बहुत मजबूर हूँ... दूसरों के घर बनाता हूँ, उनके लिए सपने सजाता हूँ, अपने लिए बस एक गुदड़ी है, उसी को ओढ़ता... और बिछाता हूँ, तन से थका, मन से आहत ज़रूर हूँ ... मजबूर हूँ हाँ, बहुत मजबूर हूँ..... गगन जब अगन बरसाता है एक पर्ण छाया को तरसाता है धू-धू जब धरा ये तपती है तन मेरा पसीना बहाता है देह शिथिल, मन क्लांत जीवन से दूर हूँ मजबूर हूँ, बहुत मजबूर हूँ...... - रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

संघर्ष .....

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बारहवीं का इम्तहान ह्रदय भयभीत मस्तिष्क परेशान... आने वाला है परिणाम क्या होगा.... सोच रहा नादान...!!! आ गया देखो नतीजा हो गया बड़े कॉलेज में दाखिला तगड़ी फीस भरनी होगी पिताजी को और मेहनत करनी होगी, बस एक बार बन जाऊं इंजीनियर, सोच रहा किताब पर गडाए नज़र. पिताजी को इस्तीफ़ा दिलवा दूंगा, कमरे में उनके एसी लगवा दूंगा माँ के सारे काम छुडवा दूंगा दो-दो महरी घर में लगवा दूंगा ना खाने दूंगा बहन को, सिटी बस में धक्के, उसे एक दुपहिया गाडी दिलवा दूंगा. यूँ ही सपने बुनते-बुनते हो गया एक और इंजीनियर तैयार, डिग्री ले कर जहाँ भी जाये, दिखती एक लम्बी कतार, रोज़ रात्रि शय्या पर सोचे, कब तक फिरूँ यूँ बेरोजगार...? कहीं आरक्षण,कहीं तजुर्बा, कहीं सिफारिश चाहिए, डिस्टिंक्शन भी काम ना आये, उन्हें रिश्वत भी चाहिए... दम तोड़ रहीं... आकांक्षाएं, अपेक्षाएं, इच्छाएं, अभिलाषाएं... क्षीण होती बल्ब की रौशनी की तरह पिताजी के मनोबल की तरह... माँ के आत्मविश्वास की तरह... बहन की अभिलाषाओं की तरह... और उसके जीवन की तरह..................! -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

"भारत-बंद"

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ईंट-पत्थर, टूटी बोतलें चूड़ियों के टुकड़े, छूटी चप्पलें, बच्चों का रुदन माँओ का क्रंदन, तोड़-फोड़,हिंसा,आगजनी.. बेबसी की पीड़ा से छटपटाती, मेरी मात्रभूमि.... रौंदते आन्दोलनकारियों के, कदमो से घबराती अपनी संतान के कर्मो पर, अश्रु बहाती, सोच में डूबी हुई, मेरी भारतमाता... किससे कहे अपनी, दुखभरी व्यथा... क्या मिला कल मेरी धड़कन "बंद" करके..? रेल रोक के,बस जलाके मेरी प्रगति मंद करके...? उँगलियों पे गिन सकूँ ऐसे मेरे सपूत थे, काट जंजीरों की कड़ियाँ, लाये थे अस्तित्व में... स्मरण आते वे नाम खो गए जो अतीत में... हे मेरी संतानों, ना चीरो मेरा ही दामन देखती हूँ राम सबमे, ना बनो तुम रावण साठ बरसों से सजा रखे हैं, जो स्वप्न मैंने नयनों में ना करो उनका हरण, संवारों मेरे वे स्वप्न तुम, एक माँ की गुहार है ये, संतानों से पुकार है ये, होने दो मुझे अग्रसर, उन्नति के पथ पर... प्रगति के पथ पर... -रोली पाठक (५ जुलाई २०१०) http://wwwrolipathak.blogspot.com/