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Showing posts from 2011

मनः दशा.....

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बेबस सी कराहती, कुम्हलाती ज़िन्दगी.... जो मन चाहे, वो हो ना पाए, जो हो, वो मन ना चाहे.... एक विवशता, छटपटाहट .. ह्रदय डूबता सा, आँखों में तैरते अश्रु, ना छलक पाते, ना रह पाते अन्दर.... जुबां चुप, थरथराते होंठ... नब्ज़ डूबती सी, धड़कने अशांत..... हर क्षण हर पल एक प्रश्न के साथ..... जिसका कोई उत्तर नहीं... -रोली....... 20 :12 :2011

बेदर्द ज़माना

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 इस ज़माने में दर्द बहुत है  आइना-ए-ईमान में गर्द बहुत है, कई  दफा दिखी दम तोड़ती इंसानियत, जज़्बात-ए-इन्सां अब सर्द बहुत है.... वक़्त बुरा हो, तब हाथ बढ़ाता नहीं कोई, कहने को तो यूँ यहाँ, हमदर्द बहुत हैं.... मजलूम पर और भी, ढाती है ज़ुल्म दुनिया , जाने क्यों  इन्सां यहाँ ,  बेदर्द बहुत हैं.... -रोली...
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रूमानियत सारी तब फना हो जाती है जब चाँद की जगह रोटी नज़र आती है... तू मुझे स्वप्न में, भी नहीं दिखती है अब, मुफलिसी मेरी, मुझे रुसवा कर जाती है... न सूझती है अब, तेरी  जुल्फों पे शायरी मुझे, भूख दो वक्त की, सब कुछ भुला जाती है.... कैसे लिखूँ गीत मै, लाऊं कहाँ से इक ग़ज़ल, तू भी तो मेरी मुफलिसी से, दामन छुड़ा जाती है... रूमानियत  सारी तब फना हो जाती है, जब चाँद की जगह रोटी नज़र आती है....... -रोली...
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 बेसबब यूँ ही कभी ख़्वाबों में आ जाया करो मोहब्बत तुम भी तो कभी जताया करो हर बात तकरार पर हो ख़त्म,ज़रूरी तो नहीं, प्यार की उलझने और न बढाया करो तुम्हें तो मनाने में ही गुज़र जाता है मेरा वक़्त, रूठने पर तुम भी तो कभी, हमें मनाया करो.... -रोली....
 तेरी आँखों के पानी को, अपनी पलकों में उतार लूँ , ज़िन्दगी की हर ख़ुशी तुझपे वार दूँ  , मेरे अश्कों से गर धुलती हैं गलतियां मेरी, तो लगा कर झड़ी तेरे आँगन में, इक सावन उतार दूँ ............ -रोली...   
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 निशब्द सी रात फिर चली आई है, चाँद संग सितारों को, लपेटे हुए.... मेरे शब्द मौन हैं आज कितने, अनगिनत यादों को खुद में समेटे हुए.... -रोली..
जाड़े का मौसम आने को है... दे रहीं  दस्तक गुलाबी सर्दियां... चाँदनी रातें हो चलीं लम्बी, छुपने लगा है सूरज  जल्दी ही पर्वत तले, शोख गुलाब देखो, इतराने लगा डाल पर , दे रहीं दस्तक गुलाबी सर्दियां.... अलसाई धूप देर से आती है अब मुंडेर  पर, गुनगुनी धूप लगने लगी, भली-भली सी, दे रही दस्तक गुलाबी सर्दियां.... चौके से आ रही महक, सरसों के साग की, माँ का अधबुना स्वेटर  अब सलाइयों पर है, दे रही दस्तक गुलाबी सर्दियां..... -रोली 
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चर्चे  हमारे  आजकल  आम  हो  गए   हैं हम मुफ्त में, बिन कुछ किये बदनाम हो गए हैं.....   झूठे  अफसाने  बयाँ  कर  रहे  हैं  लोग  सच,खुद को करने में हम, नाकाम हो गए हैं इक नज़र भर के देख लिया उनको जो हमने, उस  दिन  से  वो  बेहद  परेशान  हो  गए  हैं .. सोचीं ना थीं जो बातें, कभी हमने ख्वाबों में, मन में दबे-दबे से अब वो, अरमान हो गए हैं... अब  जो  गुज़रते  हैं   कभी  सामने  से वो, जान कर भी बिलकुल अनजान हो गए हैं... बर्दाश्त नहीं हो रही अब उनकी बेरुखी, अब तो वो मेरी मौत का, सामान हो गए हैं....  

ज़िन्दगी.....

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हौले से दबे पाँव, कमरे में मेरे, धूप के एक टुकड़े की तरह, बेआवाज़ वो दाखिल हुयी... अनमना सा अधलेटा, अपने बिछौने पर, कोस रहा था उसे ही, सकपका गया अचानक, उसे देख सामने, फिर उसके सितम याद आने लगे.... तरेर के नज़रें मैंने कहा, -"क्यूँ नहीं करती मुझ पे रहम, क्यों लेती हो हर घडी मेरा इम्तेहान..."  वो मुस्कुराई, इठला कर बोली - जो बन जाऊं मै आसान , जीने न देगा तुम्हें ये ज़माना, कठोरता तुम्हें सिखला रही हूँ, अपना हर रूप तुम्हें दिखला रही हूँ, हर रंजो-गम ताकि पी सको, राह के हर दुःख-दर्द में, मुस्कुरा के जी सको.... करते हैं हर वक़्त जो, खुदा की बंदगी, आसां तो नहीं होती उनकी भी ज़िन्दगी... वर्ना पादरी, मौलवी, पंडित, साहूकार होते, आज के रईस भ्रष्टाचारी, उनके कर्ज़दार होते..... मै तुम्हारी "ज़िन्दगी".... तुम्हारी हर तल्ख़ बात सुनती हूँ, फिर भी ख्वाब तुम्हारे लिए, नए, हर रोज़ बुनती हूँ... हर रोज़ बुनती हूँ...
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पूनम की रात.... ******************* रात ढल रही, छोड़ दो कुछ देर चाँद को तनहा... वो भी इतरा ले, सितारों के बीच.......... चाँदनी को भी आज, होने दो उसकी, पूर्णता का एहसास ... कि आज चाँद आसमाँ पर, बड़े रुआब से है.... चाँद को करने दो गुमान, कि उसकी पूर्णता से, चाँदनी भी आज अपने, पूरे  शबाब पर है......... -रोली...

दिल......

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  बड़ा गुस्ताख है, नादान है, मासूम है, कभी मगरूर है, मसरूफ है, कभी मजलूम है.... कभी है बेवफा, तो कभी जां-निसार है, कभी उजड़ा चमन, तो कभी मौसमे-बहार है, कभी लगता है अपना, तो कभी बेगाना है ये, थोडा सा पागल, थोडा दीवाना है ये, कभी नटखट सा इक बच्चा, कभी सयाना है ये, कभी खामोश और तनहा, कभी कातिल है... क्या करें कि फिर भी दिल आखिर दिल है........... दिल आखिर दिल है............. -रोली...
सिलसिला ज़ारी है, इन बरसातों का, थमती ना थीं जैसे, तेरी बातों का...... -रोली.  
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  सुर्खी गुलाब की..... उस परिंदे के लहू से है, अपने इश्क के खातिर गुल को, सुफैद से लाल कर दिया जिसने.... -रोली ...
  वो मुझसे नाता तोड़ता भी नहीं, दूर है फिर भी मुँह मोड़ता नहीं , चाहा है उसे दिल से भुलाना कई बार,  वो है कि फिर भी साथ छोड़ता नहीं.....   -  रोली
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आज प्यार की तुम ही पहल कर दो, दिन को गीत रात को ग़ज़ल कर दो, सजा दो चाँद-तारे मोहब्बत के आसमाँ पर, मेरे उजड़े आशियाने को,महल कर दो..... -रोली    
ना लो सब्रे-इम्तेहान अवाम का, गर चिंगारी शोला बन गयी तो, संभाल ना पाओगे........... क्यों कर हवा दे रहे हो इसे, इस आग में खुद ही जल जाओगे.... लटक रहा दारो-रसन अब तुम्हारे ऊपर, कब तक इससे खुद को बचा पाओगे.... देख  लो  अवामे-ज़ारहिय्यत, चले जाओ कि, खानखाह में ही अब तुम बच पाओगे....... (  दारो-रसन : सूली व् फाँसी की रस्सी, ज़ारहिय्यत : गुस्सा , खानखाह : वे गुफाएं जहाँ ईश्वर की इबादत में समय बिताया जाता है ) -रोली....   

जागो भारत जागो.....

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एक जंग है, है एक समर, चल पड़ी क्रांति की लहर, गाँव-गाँव और नगर-नगर बह रही चेतना की बयार.. अब जो ना जागे तो कब जागोगे....................!!! एक युग के तम के बाद ,   उम्मीद उसने जगाई है, मुर्दों की इस बस्ती में इक, चिंगारी भड़काई है.. अब जो ना जागे तो कब जागोगे.....................!!! देह भले ही हो दुर्बल, फौलाद से उसके इरादे हैं,  औरों से और खुद से भी, किये उसने कुछ वादे हैं, भ्रष्टाचार के दानव का, अंत करने की शपथ उठाई है, अन्ना नाम की भारत में, चल रही आज पुरवाई है... अब जो ना जागे तो कब जागोगे.....................!!! अब जो ना जागे तो कब जागोगे.....................!!! -रोली...
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 कान्हा संग लगा के प्रीत हार बैठी मन  अपना.... अब जो देखूँ  पिया को भी.. नज़र आये बैरी कान्हा... रोज़ करती थी श्रृंगार रुच-रुच जब मंदिर में, कान्हा की भोली सूरत हर गई मोरा मनवा , अब ना भाये कोई रंग, बस भाये रंग सांवरा, राधा,मीरा,रुक्मणी से, जले मन बावरा.. चहुँ ओर अब आये नज़र, मेरा मनभावना, मेरा सलोना-सांवला, नज़र आये बैरी कान्हा... -रोली.... कृष्ण जन्माष्टमी के पावन अवसर पर मेरे सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनायें _/\_
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हर अहसास को लफ़्ज़ों की ज़रूरत नहीं होती, गर  होती न मोहब्बत तो ज़िन्दगी, इतनी खूबसूरत नहीं होती..... आँखें बंद करके देखा है जब-जब  तुम्हें,  नींदों में  ख़्वाबों  की भी, ज़रूरत नहीं होती.... मिलकर भी दूर बैठे हो, क्यों ऐसी बेरुखी, यूँ दूरियाँ भी तो कोई , शराफत नहीं होती.... ज़माने का है उसूल, मोहब्बत को रोकना, तेरे लिए जो लड़ लूँ, वो बगावत नहीं होती.. हर अहसास को लफ़्ज़ों की ज़रूरत नहीं होती... -रोली...
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  अक्षर-अक्षर पिरो-पिरो कर  याद तेरी दिल में संजो कर... सोच-सोच कर,कुछ शर्मा कर .... सकुचा कर और बड़े जतन कर, आज तुम्हें एक पत्र लिखा है.... प्रिये, तुम्हें एक पत्र लिखा है... विरह की काली रातों का, भूली बिसरी बातों का, तेरी दी सौगातों का, सावन की बरसातों का, इस पाती में वर्णन है.... आज तुम्हें एक पत्र लिखा है.... प्रिये, तुम्हें एक पत्र लिखा है.... स्याही बने मोती अंसुअन के, कागज़ कोरा ह्रदय था मेरा, तेरे ख़याल,अक्षर बन उतरे, जार-जार रोया मन मेरा.... मेरा यही समर्पण है.... आज तुम्हें एक पत्र लिखा है.... प्रिये, तुम्हें एक पत्र लिखा है....
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अहसास बनके तेरी यादों में बसती हूँ... आँसू बनके तेरी आँखों में सजती हूँ... कभी हवा का झोंका बन,किवाड़ खड़खड़खड़ाती  हूँ, कभी गर्म शॉल बन,तन से लिपट जाती हूँ.... जेठ की दुपहरी में नीम की छाया हूँ, आषाढ़ की बूँदों में, छत का साया हूँ, हर पल हूँ साथ तुम्हारे, महसूस करो, मै तो मुस्कान बन, सदा तेरे अधरों पे सजती हूँ... अहसास बनके तेरी यादों में बसती हूँ.....

असली-नकली....

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सभी जीते हैं दोहरी ज़िन्दगी यहाँ, हैरान हूँ रोज़ बदलते चेहरे देखकर... सुनती थी साधू-संत मिलते हैं हिमालय में, प्रवचन दे रहे आज वो, एसी में बैठकर.... वो जिनकी जेबें फटी थीं कल तक, आज नोट उगल रहे उनके लॉकर.... पहचानते नहीं वो आज सुरक्षा घेरे में, आये थे मांगने साथ हमारा, जो कल हाथ जोड़कर.... नकाब उतरा तो शैतान का था चेहरा, आ रही थी ऊपर से जिसपर, मुस्कराहट नज़र...  सभी जीते हैं दोहरी ज़िन्दगी यहाँ, हैरान हूँ मै रोज़ बदलते चेहरे देखकर....
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अजनबी हूँ इस शहर में,  खामोश रहता हूँ.... निगाहें बोलती हैं मेरी... हर दर्द सहता हूँ... ये कैसा रंजो-गम का आलम है, क्यूँ है बेकरारी यहाँ, कि संग अपने दर्द के... मै पिघले सीसे  सा बहता हूँ... अजनबी हूँ इस शहर में, खामोश रहता हूँ.... वीरानियाँ सी छाई हैं,  हर पल उदासी है, न आती मुस्कराहट लबों पर, हर तमन्ना प्यासी है.... क्यूँ कर ज़िन्दगी से फिर भी ना,  कुछ मै कहता हूँ.... अजनबी हूँ इस शहर में, खामोश रहता हूँ...... मुर्दा सा हर इंसान है, हर भावना मृत है.... अब पी लूँ मै विष भी तो क्या, वो भी अमृत है... जो मर-मर के ही जीना है मुझे मुर्दों की बस्ती में, तो बनके मै भी पाषण अब, पत्थर सा जीता हूँ.... अजनबी हूँ इस शहर में,  खामोश रहता हूँ....... - रोली पाठक 
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(मदर्स डे पर अपनी व हर माँ को समर्पित ) माँ बनकर ही जाना सच्चा प्रेम किसे कहते हैं.... जिसके आँचल तले बचपन गुज़र गया.... वे हाथ अब भी मुझे आशीष देते हैं... माँ हैं, नानी हैं और दादी हैं वो, हर रूप में वो हमें अथाह प्यार देते  हैं... माँ बनकर ही जाना, सच्चा प्रेम किसे कहते हैं... जब छोटे थे, माँ से प्यार बहुत था, अब जाना माँ का प्रेम, समर्पण,सेवा... रातों को जाग-जाग कर, बच्चों को सपने देते हैं.... माँ बनकर ही जाना, सच्चा प्रेम किसे कहते हैं......
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सावन की प्रतीक्षारत परिंदे बैठे हैं शाख पर, जेठ की दुपहरी जला रही उनके पर.... किसी से उम्मीद नहीं, उन्हें दे सके दो बूँद नीर.... मेघ ही जब बरसेंगे तब, हरेंगे  उनकी पीर..... शुष्क कंठ, लाचार आँखों से, ढूंढ रहे दाना-पानी.... मेरी अटारी पे मिट्टी के कुल्हड़ में, रखा है मैंने, शीतल जल, कुछ दाने अनाज के और बहुत सा प्रेम... मेरा स्वार्थ भी है इसमें, मुझे सुनना है उनका कलरव, उनकी चहचहाहट.... देखनी है उनकी क्रीडा..... ऐ परिंदों, हर रोज़ तुम यूँ ही आ जाया करो, अपनी मीठी वाणी में मेरी अटारी पर, मधुर गीत तुम गाया करो........ गीत तुम गाया करो............  
वो ख़ुद एक आफ़ताब है,  क्या ज़रूरत है उसे रौशनी की... बुझा दो इन चिरागों को, कि इनकी रौशनी जाया हो रही है..... -रोली..   
 अपनों के दिए ज़ख्म अक्सर नासूर बन जाते हैं....  वक्त ही होता है मरहम  इस तरह के ज़ख्म का... शूल से चुभ के दिल में जो, जिंदगी में उतर आते हैं.... -रोली......
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झूठ फरेब और असली-नकली इस पर ही दुनिया कायम है रिश्वत खोरी, काला-बाजारी, चारों ओर यही आलम है, सत्य के पथ से आते हैं जो, भ्रष्ट भला वो क्यों हो जाते, कुछ ही दूर, सफ़र में अपने, सारे सिद्धांत हैं भूल जाते... आरंभ करते जो अपनी यात्रा, मन में गांधी को बसा कर, ज्यों-ज्यों कारवां बढ़ता जाता, टू-जी,सी.डब्ल्यू.जी. एवं आदर्श घोटाले में जा समाते..... भूल के अपनी सूती धोती, रेशमी वस्त्र में लिपट क्यों जाते.... पहले जनता के साथ खड़े थे, अब क्यों एसी में बैठ बतियाते..... अजब-गज़ब है मनः स्थिति हमारी, किस पर करें हम विश्वास , आज दिया है वोट जिसे, कल वही तोड़ेगा हमारी आस.... कलयुग है यह,छोड़ दो लोगों, आएगा " कलकी " लेकर अवतार, हमें ख़ुद ही उठानी होगी, अपनी दोधारी तलवार.... सोने की चिड़िया के लिए, एक बार फिर देदो जान... सिर्फ कहने से नहीं बनेगा.... - मेरा भारत महान...मेरा भारत महान.....
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आओ कुछ ख्वाब बुने... अधूरे से वो ख्वाब... जो पलकों तक न पहुंचे.... उनींदी सी अवस्था में  सोच के दायरे में रह गए.... जिन्हें  ह्रदय ने चाहा.... और सोच बन के जो, विचारों में घुमड़-घुमड़, पलकों में मंडराते रहे..... आज रात वो सारे  ख्वाब, देखना चाहती हूँ मै...... नींद में डूब के उनमे, खोना चाहती हूँ मै..... अपनी अधूरी इच्छाएं, यूँ  पूरी करना  चाहती हूँ  ..... ख़्वाबों के समंदर से , निकाल के चंद लम्हे.... हकीकत बनाकर,  जीना चाहती हूँ  ... हरेक लम्हा...जीना चाहती हूँ......
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आज है होलिका-दहन, आओ इसकी ज्वाला में, स्वाहा कर दें अहंकार, क्रोध, स्वार्थ, अभिमान.. किन्तु ना दें पीड़ा, किसी वृक्ष को.. ना करें आहत , उसका तन.... गगन चुम्बी ज्वाला, ही नहीं है दहन होलिका का, चंद लकड़ियाँ, सूखे पर्ण, कंडे, भी कर देंगे होलिका दहन, प्रतीकात्मक दहन, ही है उत्तम, बचाना है यदि, हमें पर्यावरण..... होली भी खूब मनाएंगे, सबके तन-मन पर, रंगीन गुलाल लगायेंगे.... सोचो उनके भी बारे में, मीलों जाते जो लेने पानी, वर्तमान ही नहीं, भविष्य की भी रखनी होगी हमें सावधानी.... सर्वोत्तम है तिलक होली, संग अबीर के लगायें, माथे पर रोली..... यही होगी प्रेम की होली... सौहाद्र की होली.... मानवता की होली.... परमार्थ की होली..... ***सभी प्यारे मित्रों को होली की रंग-बिरंगी शुभकामनाएँ.... आइये...मनाएं सिर्फ तिलक होली...अबीर-गुलाल की होली...
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कैसा है ये युग पाषाण..... स्वभाव कठोर... ह्रदय पत्थर.. शून्य संवेदनाएं .. मृत भावनाएँ... मन अचेत... मानव निष्चेत, इच्छाएं अनंत, जीवन परतंत्र... बुझे नयन, क्षीण तन-मन... मस्तिष्क में तनाव, रिश्तों में चुभन, भावना स्वार्थ की, मृत्यु परमार्थ की, मृत्यु यथार्थ की, कैसा है यह युग पाषाण... कैसा है ये युग पाषाण.... -रोली....
 शब्दों के  मानिंद वो, मन में उतर गयी.... ख्वाबों सी आ कर वो पलकों में बस गयी..... अहसास  तब  हुआ, उसके पास होने का, मोती बनके वो , मेरी आँखों से गिर गयी......
ज़िन्दगी एक हकीकत है, हसीन ख्वाब नहीं, सालाह-साल जीना है, ये चंद घंटों की किताब नहीं... 
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मेरे आँसू अब कम आते हैं, संघर्ष करना सीख गई हूँ मै... सबको बाँटी खुशियाँ हज़ार, पर अब खुद के लिए भी, मुस्कुराना सीख गयी हूँ मै..... सदियों से जीवन देती आई, अब, खुद के लिए भी जीना, सीख गयी हूँ मै........... -रोली...  मेरी सभी महिला मित्रों को "अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस" की हार्दिक शुभकामनाएँ ...
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एक पीड़ा महसूस हो रही, क्यों, किसके लिए.... ह्रदय जानता नहीं......... नयन बूझ नहीं पाते, आँसुओं की पहेली.... क्यों कर भीग रहे कोर जबकि सबकुछ है पास मेरे.... एक कसक, एक उलझन , है क्यों, किसके लिए..... ह्रदय जानता नहीं........ हैरान परेशां है ये, नन्हा सा दिल... वो है कौन जिसका पता, अब तक मिला नहीं..... एक हैरत एक चाहत, है क्यों, किसके लिए..... ह्रदय जानता नहीं...... अजीब कश-म-कश है, अजीब प्यास है..... किसी को पाने का, अजीब अहसास है....  एक स्वप्न, एक कल्पना, है क्यों,किसके लिए......... ह्रदय जानता नहीं............ - रोली......
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तिनका-तिनका ढूँढ कर लाती चुन-चुन कर... बड़ी लगन से, बड़े जतन से, बुनती अपना घर.... छज्जे से झरोखे से, मै देखूँ छुप-छुप कर, करती अथक परिश्रम, जबकि, हैं छोटे से पर, हम इन्सां तो हार बैठते, हौसला अक्सर..... ऐ नन्ही-सी चिड़िया मुझको, भी जीना सिखला दे, कितनी भी हो राह कठिन, संघर्ष मुझे सिखा दे.... तेरे नीड़ सी मेरी भी, मंजिल मुझको दिखला दे...... -रोली....

माँ की सीख.......

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मेरे आँगन की देहरी पर, साँझ ढले दीपक जलता है... घर की देहरी लिपि-पुती ही, वधु सी ही शोभा देती.... माँ कहती थी, अपने घर में, भोर हुए तू ऐपन देना, साँझ ढले तुलसी तले, नन्हा सा दिया जला देना... सूर्यदेव जब पूरब में हों, जल उनको अर्पित कर देना... ये बातें है बड़ी काम की, गाँठ इन्हें तू बाँध लेना.... जब-जब तम होगा जीवन में, वही दिया पथ-प्रदर्शक होगा.... अमावस गर छाये जीवन में, सूर्यदेव का अर्घ्य हर लेगा.... घर की देहरी सदा ही सबका, करती रहेगी सत्कार... कभी ना कम होगा मेरी बेटी, तेरे घर का भरा भण्डार.... तेरे लिए यही मेरी पूँजी, सीख, स्नेह व प्रेम अपार......... - रोली...

आया फागुन.......

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अहाते में मेरे धूप का नन्हा सा टुकड़ा रोज़ उतर आता है... इस सर्द सुबह में वह नन्हा सा टुकड़ा भला-भला सा नज़र आता है... टेसू की चटकती कलियों से चुरा के रंग वह मेरी चूनर में दे जाता है..... आँगन में चहचहाती वह नन्ही सी चिड़िया, दाने चुग-चुग के आभार प्रकट करती है.... सांझ-सवेरे उसका कलरव मेरा मन हर लेती है... कोयल कूक सुनाने लगी, बौर की खुश्बू आने लगी, बदल गयी रुत सुनाई देने लगी भवरें की गुनगुन दे दी है दस्तक मीठी बयार ने, ऐपन लगी देहरी पे देखो खड़ा है फागुन....
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ना जाने क्यों ऐसे हालात हो गए हैं.... बदले-बदले से सबके, खयालात हो गए हैं... हम तो पहले जैसे ही, अब भी हैं मगर... बदले-बदले से सबके जज़्बात हो गए हैं.... वो निगाहें भी हैं बदली-बदली अंदाज़ भी बदला सा लगता है, मौसम के साथ बदल जाना, सबके ऐसे,खयालात हो गए हैं... बदले-बदले से सबके जज़्बात हो गए हैं.... बहुत खायी थीं कसमें, वादे भी बहुत किये थे मगर, अब तो पहचानते तक नहीं, उफ़, ये कैसे हालात हो गए हैं.... बदले-बदले से सबके जज़्बात हो गए हैं... -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/