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Showing posts from 2010

आदत.....

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सर्द हवा के थपेड़ों से जूझते, देखती हूँ रोज़ सामने, बनती ईमारत के मजदूरों को... मिस्त्री, रेजा, सब जुटे हुए, इनके नन्हे-मुन्ने रेत में सने हुए, पूस की सर्द हवा में, देखती हूँ रोज़ सामने............ मेरे बच्चों को,   मोज़े,टोपी,स्वेटर में भी   लगती है ठण्ड... वे बच्चे नंगे बदन भी, सर्द हवा में,ठंडी रेत में, करते हैं अठखेलियाँ.... करुण-ह्रदय से इन नौनिहालों को, देखती हूँ रोज़ सामने........... बटोर कर पुराने गर्म कपडे, दे आई उन नन्हे-मुन्नों को, हैरान हूँ पर अब भी यह देख कर, वैसे ही उघाड़े बदन घूम रहे हैं वे, जिन्हें देखती हूँ रोज़ सामने......... पूछा जो उनकी माँ से,   हँस कर बोल पड़ी वो.. -"दीदी, उन्हें गर्मी लगने लगी, आदत नहीं है पड़ी... इन गर्म कपड़ों की"..... और.....फिर रोज़ यूँ ही   सिलसिला चलने लगा... शायद विधाता, भी है जानता, बनाया जिन्हें धन से   विपन्न,निर्धन.... दी उन्हें सहनशक्ति, सहने की, भूख, प्यास, गर्म-सर्द हर मौसम... मुझे भी आदत हो चली अब, सर्द हवा के थपेड़ों से जूझते, बनती ईमारत के मजदूरों को, देखने की रोज़ सामने.......... -र

परिंदे..............

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कितना सूना-सूना सा, ये जहाँ दिखता है... खो गए सारे परिंदे, अब तो बस मुट्ठी भर आसमाँ दिखता है.... ईंट-पत्थर से, बन गए ऊँचे-ऊँचे घरौंदे, अब तो बस झरोखे और मकाँ दिखता है..... ढूंढता हूँ परिंदों को, छत औ चौबारों में, अब ना कहीं उनका, नामो-निशाँ दिखता है.... तिनकों को कचरा कह, फेंक देता है इन्सां, जहाँ उसको, इनका आशियाँ दिखता है...... कहाँ जाये, कहाँ......रहें ये परिंदे, कि हर तरफ इमारतें और इन्सां दिखता है..... खो गया इनका कलरव, खो गई चहचहाहट, अब तो बस मशीनों का,धुंआ दिखता है..... -रोली पाठक

याद....

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धुली-धुली सी,उजली-उजली... पानी में, बहती-बहती सी... ख्वाबों में,डूबी-डूबी सी... अश्कों में, लिपटी-लिपटी सी.... पीड़ा में, सिमटी-सिमटी सी..... भीड़ में मुझको, तनहा करती.... तन्हाई में, रुसवा करती..... यहीं-कहीं तेरे होने का, मुझको है अहसास कराती..... तेरी भीनी सी खुश्बू से , मुझको अक्सर ही महकाती.... अधरों पे,स्मित ले आती... नैनो में, नीर भर जाती..... सावन की, बूंदों सी शीतल.... तन-मन, भिगो-भिगो ये जाती.... जब-जब तेरी याद है आती.... जब-जब तेरी याद सताती... रोली पाठक...   http://wwwrolipathak.blogspot.com/ ..

सन्देश...........

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नन्हा सा दीप पथ प्रदर्शक... दीपोत्सव का मूक दर्शक... कार्तिक बयार से लौ को बचाता... जन-जन को यह सन्देश पहुँचाता... स्वयं जल के... करो रौशन जग को, तिल-तिल जल कर, दो ख़ुशी सब को..... हो भले अँधेरा दीप तले... देता उजाला हमें... भले खुद जले..... इक अँधेरे कोने में, आओ हम भी दीप जलाएँ रौशन करें, किसी का जहाँ... होंठों पे उसके मुस्कान लायें... अपनी दीपावली संग, किसी और का भी त्योहार मनवायें..... आओ हम भी दीप जलाएँ.... ((मेरे सभी प्रिय व आदरणीय मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ....)) -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

अधूरी दास्ताँ......

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एक सदा थी, एक अदा थी एक हया थी, एक वफ़ा थी एक प्रेम का वादा था एक मज़बूत इरादा था एक सुहाना सपना था एक अफसाना अपना था एक राह भी थी, एक मंजिल भी... दो कोमल प्यार भरे दिल भी... एक तरफ सारा संसार एक तरफ था मेरा प्यार फिर, वही हुआ जो जग की रीत... जग जीता, और हारी प्रीत... बिछड़ गया मेरा मनमीत... बिछड़ गया मेरा मनमीत... -रोली पाठक

दुर्भाग्य.....

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राह तकते नयन सूने ना काजल ना चूड़ी ना बिंदिया ना गहने शून्य में ताकती, रीति अंखियों से जागती, पीड़ा से कभी चित्कारती, उन्मादित हो, उसे पुकारती, सब कुछ तो है जानती वह, फिर भी क्यों ना मानती वह, उजड़ गया रंग लाल उसका, अब ना आयेगा कभी वह वो, जिससे था श्रृंगार उसका... मुस्कुराते, वह गया था लौटता हूँ, यह कहा था निर्जीव देह यूँ आयेगी यह किसी को, क्या पता था... स्टेशन के जिस कोने में, उसका नवीन सहचर खड़ा था आतंक का बम, वहीँ फटा था... मृत्यु का यम, वहीँ खडा था.... वहीँ खड़ा था..... -रोली पाठक (यह कविता मैंने मुंबई सीरिअल ब्लास्ट्स के बाद टीवी पर पीड़ितों के इंटरव्यू देखने के बाद लिखी थी )

सत्य की राह....

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 सत्य की बड़ी कठिन डगर है.... चलना उस पर, अति दूभर है... राह में कंटक पड़े हैं देखो, जेठ महीने सी दोपहर है... सत्य की बड़ी कठिन डगर है... झूठ खड़ा मुसकाय हर डग, हमको बड़ा लुभाय हर डग, फूल-ही-फूल बिछाय हर पग, सत्य तो बरपाए कहर है... सत्य की, बड़ी कठिन डगर है... झूठ दिलाये जीवन में सुख सत्य की राह में बहुत हैं दुःख धन-दौलत और ऐशो-आराम.... झूठ के दूजे हैं उपनाम... सत्य की चादर फटी हुई है... थाली में सूखी रोटी है... सत्य की, बड़ी कठिन डगर है.... किन्तु, मिले जीत कंटक पे चल कर.. पाऊँ मंजिल सूर्य में तप कर... जलती धरा पे पाँव जला कर... सत्य को अपने ह्रदय लगा कर... चलता चलूँ सत्य के पथ पर... भले सत्य की, कठिन डगर है... बने सूर्य शीतल जलधारा... राह के कंटक करें किनारा... जेठ महीना लगे सावन है... सत्य का अंत बड़ा पावन है.... राह कठिन तो क्या होता है, अंत में झूठ करे क्रंदन है... डगर सत्य की ही जीवन है... डगर सत्य की ही जीवन है... -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

जय माता दी.....

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 सर्व मंगल मांगलेय शिवे सर्वार्थ साधिके शरण्ये त्रिअम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते... मेरे ब्लॉग के सभी सदस्यों को शारदेय नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनाये....

इंसानियत.....

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आदमी आदमी से क्या चाहता है... फकत इंसानियत और वफ़ा चाहता है साथ खेले जो बचपन से अब तक, बन ना जाये वे कहीं दुश्मन लहू के, बस एक यही हौसला चाहता है आदमी आदमी से क्या चाहता है.. खाई थी जिसके चूल्हे की रोटी, उसी आग से घर ना उसका जला दे, बस एक यही वायदा चाहता है... आदमी आदमी से क्या चाहता है.. खाई थी ईद में राम ने सेवई दीवाली में, रहीम ने गुझिया बस यही सब याद दिलाना चाहता है आदमी आदमी से क्या चाहता है.... रोज़े पे राम, पकवान ना खाता रहीम को भूख की, याद ना दिलाता नवरात्रि के फलहार में इधर, रहीम का हिस्सा घर पर आता, राम बस रहीम का साथ चाहता है, आदमी आदमी से क्या चाहता है... मंदिर-मस्जिद के इस मसले से, मज़हब पे राजनीति के हमले से, खुद को दूर, रखना चाहता है आदमी आदमी से क्या चाहता है..... फकत इंसानियत और वफ़ा चाहता है..... -रोली पाठक

आत्महत्या.....

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(विदर्भ में सन 2010 में अब तक 527 किसान आत्महत्या कर चुके हैं, अब तक सबसे अधिक आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र व कर्नाटक में एवं आंध्र -प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में हुए हैं कहीं सूखा है, कहीं अति वृष्टि, फसल का नुकसान साल भर मेहनत करने वाला किसान सह नहीं पाता, ऊपर से क़र्ज़ लेकर बोहनी करना...! मेरी यह रचना ऐसे समस्त किसानो के परिवारों को समर्पित है...जिन्होंने अपने घर का बेटा, मुखिया, भाई या परिवार का कोई सदस्य खोया है ) सूने-सूने नयन करता चिंतन-मनन बाढ़ की तबाही से उजड़ गया जीवन... डूब गया खलिहान बह गया अनाज कर दिया बाढ़ ने, दाने-दाने को मोहताज.... कब तक पियें बच्चे, चावल का माड़ गीली लकड़ी की जगह, कब तक सुलगे हाड़... हे प्रभु, पहले तो, एक-एक बूँद को तरसाया.. सुन के मेरी गुहार फिर, क्यों मेघों को इतना बरसाया... कि अन्न का एक-एक कण, अतिवृष्टि में जा समाया... नयनों में नींद ना थी ना चैन ह्रदय में पाता था.. रह-रह के परिवार का चेहरा, आँखों के सामने आता था... हार गया,बस हार गया मै, कह कर वो चित्कार उठा... बेबस जान स्वयं को वह मन-ही

ह्रदय की पीर....

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स्म्रतियों के घेरे से मन के घने अँधेरे से ले चल ऐ वक्त मुझे, दूर कहीं.................. सुरभि से उसके तन की तृष्णा से मेरे मन की ले चल ऐ ह्रदय मुझे, दूर कहीं................ इन गहन प्रेम वीथिकाओं से मेरे मन की सदाओं से ले चल चंचल मन, दूर कहीं................... उस प्रेमरूप की गागर से मेरी पीड़ा के सागर से ले चल अनुरागी चित, दूर कहीं.................... धूप-छाया सा मिलन था दीप-बाती सा बंधन था इस टूटे ह्रदय की पीर से बहते अंखियों के नीर से, ले चल पीड़ित मन, मुझे दूर कहीं............. दूर कहीं.................... -रोली पाठक
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मेरे ब्लॉग के सभी सदस्यों को आज़ादी का ये महापर्व शुभ हो... स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई.... वन्दे मातरम..

कश्मीर की सरकार से गुहार..

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सुलग रहा है मेरा मन क्यों... जल रहा है मेरा तन क्यों..... मेरी बर्फीली वादियों में, नफरत की लगी अगन क्यों.... मेघाच्छादित हिम पर्वत पर, बरस रहें है शोले क्यों....... मेरी शीतल डल-झील का, रंग हो गया रक्तिम सा क्यों.... कहाँ गए वो रंगीं शिकारे, हर इन्सां स्तब्ध सा है क्यों.... देवदार औ चीड पर मेरे, हिमपात नहीं, अंगारे हैं क्यों.... इस गुलज़ार हंसीं घाटी पे, कर्फ्यू का है सन्नाटा क्यों...... धरती पर एक स्वर्ग यहीं था, बना दिया इसे जहन्नुम क्यों.... मात्रभूमि का घूँघट हूँ मै, मेरी तुम लाज, बचाते नहीं क्यों..... और उजाड़ेंगे ये कितना, हैवानो से मुझे बचाते नहीं क्यों........ पास है "पंद्रह-अगस्त" का वो दिन, किन्तु, मुझे आजाद कराते नहीं क्यों... आतंकवाद की बेड़ियों से, तुम निजात दिलाते नहीं क्यों.... हाथों में क्या लगी है मेहँदी, अब हथियार उठाते नहीं क्यों....??? अब हथियार उठाते नहीं क्यों....??? - रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

वसुंधरा......

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नील-श्वेत गगन, हो चला गहन... छा रही घटा सुरमयी, बह रही मदमस्त पवन... रह-रह कर कौंधती सौदामिनी.. दिन में ही मानो, उतर आई यामिनी.. निर्झरिणी की लहरें, कर रही अठखेलियाँ ... खिलखिला रही हों जैसे, चंचल सहेलियां... वसुधा रही बदल, अप्रतिम रूप पल-पल... कभी नवयौवना चंचल, कभी उद्वेलित,कभी अल्हड़... कभी गंभीर कभी उच्छृंखल... रिमझिम-रिमझिम टिप-टिप, मेघ देखो बरस पड़े... देवदार औ चीड़, भीग रहे खड़े-खड़े... मुरझाई प्रकृति में,प्राण आ रहे हैं... पत्ते-पत्ते बूटे-बूटे,मुस्कुरा रहे हैं.. नृत्य कर रहे वृक्ष झूम-झूम.. आभार मानो वर्षा का, कर रहे मुख चूम-चूम... बरस-बरस थक गए श्याम मेघ, हो गया उजला जहां... चार चाँद लग गए, इंद्रधनुष प्रकट हो गया.... अभिभूत हूँ मै देखकर ईश्वर की तूलिका....... ईश्वर की तूलिका....... -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

उलझन.......

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विवाह उपरान्त प्रथम सावन..... सीप से स्वप्निल नयन बात जोहते, मन-ही-मन आये पाती बाबुल की, आ रहा रक्षाबंधन... पीहर की देहरी बुला रही, माँ गीत ख़ुशी के गा रही, सखियाँ मेहँदी लगा रहीं, मै पुलकित होती मन-ही-मन... विवाह उपरांत प्रथम सावन...... जाने का उल्लास बहुत है, बँटा-बँटा सा ह्रदय पर अब है, आते जब-जब सामने साजन, तन-मन होता उन्हें समर्पण, है उधेड़बुन में चंचल मन..... विवाह उपरांत, प्रथम सावन......... जाना है होते ही भोर, दे रहीं सदायें रेशम की डोर, क्यों भीग रहे नैनो के कोर, भीतर भी बरस रहा इक सावन... कितना अदभुत है ये बंधन.. सोच रहा अनुरागी मन. विवाह उपरान्त, प्रथम सावन.......... - रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

प्रीति.....

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आसमाँ के अश्क धरती पी रही है सूरज के दिए ज़ख्मो को, बूंदों से सी रही है...... जेठ की अगन झुलसा चुकी तन आ गया सावन वो अमृत घूँट पी रही है.... धूप से पड़ीं उसके तन पे दरारें सुनके आसमाँ ने, वसुधा की कराहें बरसा दीं तड़प के अपनी प्रेम फुहारें.. अश्कों की बूंदों का अब वो, मरहम लगा रही है.. सूरज के दिए ज़ख्मो को बूंदों से सी रही है....... आसमाँ के अश्क धरती पी रही है......... -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

श्रमिक...

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मजबूर हूँ बहुत मजबूर हूँ... स्वप्न से अपने, बहुत दूर हूँ... अपमान सहता हूँ, कुछ न कहता हूँ, नन्हे से कच्चे घरौंदे में, मै रहता हूँ आधा पेट खाता हूँ और कभी-कभी भूखा ही सो जाता हूँ, तोड़-तोड़ के पत्थर थक के चूर हूँ... मजबूर हूँ हाँ, बहुत मजबूर हूँ... दूसरों के घर बनाता हूँ, उनके लिए सपने सजाता हूँ, अपने लिए बस एक गुदड़ी है, उसी को ओढ़ता... और बिछाता हूँ, तन से थका, मन से आहत ज़रूर हूँ ... मजबूर हूँ हाँ, बहुत मजबूर हूँ..... गगन जब अगन बरसाता है एक पर्ण छाया को तरसाता है धू-धू जब धरा ये तपती है तन मेरा पसीना बहाता है देह शिथिल, मन क्लांत जीवन से दूर हूँ मजबूर हूँ, बहुत मजबूर हूँ...... - रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

संघर्ष .....

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बारहवीं का इम्तहान ह्रदय भयभीत मस्तिष्क परेशान... आने वाला है परिणाम क्या होगा.... सोच रहा नादान...!!! आ गया देखो नतीजा हो गया बड़े कॉलेज में दाखिला तगड़ी फीस भरनी होगी पिताजी को और मेहनत करनी होगी, बस एक बार बन जाऊं इंजीनियर, सोच रहा किताब पर गडाए नज़र. पिताजी को इस्तीफ़ा दिलवा दूंगा, कमरे में उनके एसी लगवा दूंगा माँ के सारे काम छुडवा दूंगा दो-दो महरी घर में लगवा दूंगा ना खाने दूंगा बहन को, सिटी बस में धक्के, उसे एक दुपहिया गाडी दिलवा दूंगा. यूँ ही सपने बुनते-बुनते हो गया एक और इंजीनियर तैयार, डिग्री ले कर जहाँ भी जाये, दिखती एक लम्बी कतार, रोज़ रात्रि शय्या पर सोचे, कब तक फिरूँ यूँ बेरोजगार...? कहीं आरक्षण,कहीं तजुर्बा, कहीं सिफारिश चाहिए, डिस्टिंक्शन भी काम ना आये, उन्हें रिश्वत भी चाहिए... दम तोड़ रहीं... आकांक्षाएं, अपेक्षाएं, इच्छाएं, अभिलाषाएं... क्षीण होती बल्ब की रौशनी की तरह पिताजी के मनोबल की तरह... माँ के आत्मविश्वास की तरह... बहन की अभिलाषाओं की तरह... और उसके जीवन की तरह..................! -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

"भारत-बंद"

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ईंट-पत्थर, टूटी बोतलें चूड़ियों के टुकड़े, छूटी चप्पलें, बच्चों का रुदन माँओ का क्रंदन, तोड़-फोड़,हिंसा,आगजनी.. बेबसी की पीड़ा से छटपटाती, मेरी मात्रभूमि.... रौंदते आन्दोलनकारियों के, कदमो से घबराती अपनी संतान के कर्मो पर, अश्रु बहाती, सोच में डूबी हुई, मेरी भारतमाता... किससे कहे अपनी, दुखभरी व्यथा... क्या मिला कल मेरी धड़कन "बंद" करके..? रेल रोक के,बस जलाके मेरी प्रगति मंद करके...? उँगलियों पे गिन सकूँ ऐसे मेरे सपूत थे, काट जंजीरों की कड़ियाँ, लाये थे अस्तित्व में... स्मरण आते वे नाम खो गए जो अतीत में... हे मेरी संतानों, ना चीरो मेरा ही दामन देखती हूँ राम सबमे, ना बनो तुम रावण साठ बरसों से सजा रखे हैं, जो स्वप्न मैंने नयनों में ना करो उनका हरण, संवारों मेरे वे स्वप्न तुम, एक माँ की गुहार है ये, संतानों से पुकार है ये, होने दो मुझे अग्रसर, उन्नति के पथ पर... प्रगति के पथ पर... -रोली पाठक (५ जुलाई २०१०) http://wwwrolipathak.blogspot.com/

बेबसी.........

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इच्छाएं अनंत मन स्वतंत्र जीवन परतंत्र...... दायित्व अपार असहनीय भार कैसे हों,स्वप्न साकार.....!!! दमित मन ह्रदयहीन तन विचलित जीवन....... ह्रदय की पीर नयनों के नीर तन, बिन चीर....... अन्न, न जल भूख से विहल दरिद्र नौनिहाल............ माँ की बेबसी तन को बेचती रोटी खरीदती.............. ह्रदय पाषाण व्यथित इंसान हे देश, फिर भी तू महान..........!!! -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

स्वप्न...

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मन की वीणा के तार बजे अधरों पे मेरे गीत सजे नयनों ने नींदों से मिल कर, अभिराम मनोहर स्वप्न रचे... कुछ पीड़ा थी कुछ प्रीति थी कुछ मेरी आप-बीती थी ये अँखियाँ रीती-रीती थीं उन रीती अंखियों में भरकर, नयनों ने नींदों से मिलकर, अभिराम मनोहर स्वप्न रचे इन सपनो में कुछ अपने थे इन अपनों से कुछ शिकवे थे नयनों के सपनो ने शिकवों को, आंसू में बदल कर बहा दिया... इस बहती अश्रुधारा ने, मुझे मीठी नींद से जगा दिया वो सुन्दर सपने छूट गए, वीणा के तार टूट गए और गीत अधर के रूठ गए... उड़ गयी वो निंदिया मीठी सी.. रह गयीं ये अँखियाँ रीती से...रीती सी.... -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

स्मृति-चिन्ह

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अतीत के पन्ने उलटते यूँ ही मिल गया सहसा वो स्मृति-चिन्ह... बना था साक्षी वह, ना जाने कितनी यादों का ना जाने कितने वादों का बच गया कैसे यह समय की कुद्रष्टि से बह ना पाया क्यों ये मेरे नयनों की अतिवृष्टि से... चुक रही थी आस जब, खो चुका विशवास जब, क्यूँ अचानक दिख गया... यह शुष्क आँसू तब... हौले से मैंने उठाया, टूट के वो गया झड़ बरसों पहले विलग हो के, जैसे मै गया था बिखर... थरथराते स्पर्श से पंखुड़ियों को, कुछ यूँ समेटा.. तेरे भीगे आँचल को जैसे तन से हो लपेटा.. हरेक बिखरे कतरे को, पन्नो में फिर दबा दिया भड़कती हुई चिंगारी को एक बार फिर बुझा दिया... यादों की राख तले मैंने, फिर उसे दफना दिया....दफना दिया... -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

यात्रा-वृत्तांत......

मित्रों... नमस्कार, ग्रीष्मकालीन अवकाश के चलते पर्यटन का कार्यक्रम बन गया...अपने शहर भोपाल से हम दिल्ली पहुंचे और वहां से रात को बस का सफ़र करके पहुंचे धर्मशाला...देवभूमि हिमाचल का प्राकृतिक सौन्दर्य दर्शनीय है, धर्मशाला से कोई १० कि .मी. ऊपर एक क़स्बा है मकलोडगंज,यहाँ हम भागसूनाग में रुके थे, होटल की छत से द्रश्य बेहद मनोरम था, चारों ओर पर्वत, हरी-हरी वादियाँ, देवदार के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों से ढंकी पर्वत श्रंखलायें,पहाड़ की चोटियों पर रुई के फाहे सी बर्फ एवं उन पर अठखेलियाँ करते बादल... अत्यंत सुन्दर द्रश्य प्रस्तुत कर रहे थे! यहाँ का बौद्ध मठ दर्शनीय है, छोटे-छोटे चपटे चेहरे वाले खुबसूरत से लामा बच्चे व बड़े-बुज़ुर्ग चेहरे पर तेज लिए हर जगह घूमते मिल जायेंगे! यहाँ दलाई-लामा का निवास स्थान भी है, ठीक बौद्ध मठ के सामने, बुद्ध पूर्णिमा के दिन उनके दर्शन भी हुए, तिब्बत के काफी लोग मकलोडगंज में रहते हैं, दलाई लामा को भी तिब्बत से चीन द्वारा निर्वासित किये लगभग ५० वर्ष हो चुके हैं, बौद्ध मठ के बाहर भारत के प्रति आभार प्रदर्शन स्वरुप बड़ा सा बोर्ड लगा है- "धन्यवाद भारत", यहाँ अनेक

अजन्मी....

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ह्रदय का द्वन्द नहीं ले पा रहा शब्दों का रूप, विचारों की उथल-पुथल नहीं मिलता एक निष्कर्ष भाग रहे शब्द बेलगाम मिलता नहीं छोर कैसे पिरोउं उन्हें.. कहाँ है डोर.....! है मस्तिष्क में संग्राम क्या लिखूं,कैसे लिखूं.. या दे दूं उन्हें विराम...! प्रश्नवाचक चिन्ह खडा है मुह बाये, कैसे ये अजीब शब्द मेरी लेखनी में समायें...?? क्या लिखूं कि कुछ, पढने लायक बन जाये.... एक पंक्ति के लगें हैं चार-चार अर्थ, पा रही आज स्वयं को.. लिखने में असमर्थ.. देखा जो वह ह्रदय को झिंझोड़ गया.. घर के पिछवाड़े नाले में, फिर कोई अजन्मा भ्रूण छोड़ गया.... कब तक होंगी ये कन्या भ्रूण हत्याएं....? बाप तो ना समझेगा.. कब जागेंगी ये मायें.......?? जागो, हे नारी, तुम्हे ही लड़ना होगा... वर्ना अनचाहे भ्रूण को, यूँ ही नालों में सड़ना होगा...... यूँ ही सड़ना होगा..................! -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

गर्मी की छुट्टियां

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(मेरे बच्चे चाहते थे उनके लिए कोई कविता लिखूं, तो अपने बचपन को याद करके कुछ लिखा है, बचकाना सा... ) बैठे-बैठे सोच रही हूँ अपने बच्चों को देख रही हूँ नज़र गडाए टी.वी. पर जो, टॉम एंड जेरी देख रहे हैं... कितना नीरस इनका बचपन, सोच रही हूँ मै मन-ही-मन कहाँ खो गए खेल वो प्यारे, खेले थे मिल हमने सारे, पिंकी-पिंकी व्हाट कलर और पोशम्पा भई पोशम्पा... लुकाछिपी और नदी-पहाड़, और कभी सितौलिया.... घर में पाँव ना टिकते थे बाहर भागे फिरते थे, खेलकूद के हो बेहाल जब, घर को वापस आते थे, पूड़ी-सब्जी आम की लौंजी, मिल बाँट कर खाते थे... लस्सी, पना और गन्ने का रस, रस लेले कर पीते थे... तब ना थे ये थम्स-अप, फैंटा... फ्रूटी, स्प्राईट औ लिम्का.... पढ़ते थे हम चम्पक-नंदन, भरता ना था उनसे ये मन.. चाचा चौधरी और चंदामामा जुपिटर के साबू का कारनामा.. पराग और अमर चित्र कथाएं... अब भी देतीं मुझे सदायें.... कितना प्यारा था वो बचपन नानी के घर का वो आँगन.. बटलोई में डाल उबलती.. चूल्हे पर रोटी थी सिंकती... हर गर्मी में जाते थे हम, मन भर के रह आते थे हम.. बदला अब बच्चों का बचपन टी.वी. कंप्यूटर इनका जीवन जिस दिन सर्वर डाउन र

म्रत्युदंड .....

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मौत का भय... होता है कितना भयावह, अपने अंतर्मन को कचोटता, ह्रदयगति को सहेजता, कांपते पैरो पर खड़ा लडखडाता चुचुआती पसीने की बूंदों को पोंछता होंठो की थरथराहट अँगुलियों की कंपकंपाहट को काबू करने का असफल प्रयत्न करता... काल को प्रत्यक्ष खड़ा देख.. मन-ही-मन अपने गुनाह... दोहराता.. रक्तरंजित शवो के ढेर, उनके परिजनों के विलाप को याद करता .. दिख रहा है उसे एक काला कपडा, एक फांसी का फंदा और एक जल्लाद... अपनी तरह ही, जो उसका भी, क्रूरता से वैसे ही अंत करेगा जैसा उसने निर्दोषों का किया... तभी पिघले सीसे सी आवाज़ आई उसे म्रत्युदंड दिया गया.... या अल्लाह.... कहाँ गए मेरे वो खैरख्वाह... देते थे जो मोटी तनख्वाह... कहते थे तू जेहादी है... चाहते हम आज़ादी हैं, जो तू ही हमें दिलाएगा.. इस सबाब के काम में, सीधा जन्नत जायेगा.. या अल्लाह... इस दोज़ख से मुझे बचाओ.. जेहाद की इस जंग से, सबको निजात दिलाओ.. मुझे तो दे दी सजा... उनका क्या, जो फिर कई गर्दने तैयार कर रहे हैं... जिनके कारण हम सब सूली पर चढ़ रहे हैं... एक "अजमल कसाब"मर भी गया तो क्या होगा... जड़ें खोदो उनकी, जिनके कारण निर्दोष मर रहे हैं...

दो बैल...

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कल मर गया किशनू का बूढा बैल, अब क्या होगा... कैसे होगा... चिंतातुर,सोचता-विचारता मन ही मन बिसूरता थाली में पड़ी रोटी टुकड़ों में तोड़ता सोचता,,,बस सोचता... बोहनी है सिर पर, हल पर गडाए नज़र, एक ही बैल बचा... हे प्रभु, ये कैसी सज़ा...!!! स्वयं को बैल के रिक्तस्थान पे देखता.. मन-ही-मन देता तसल्ली खुद से ही कहता, मै ही करूँगा...हाँ मै ही करूँगा... बैल ही तो हूँ मै, जीवन भर ढोया बोझ, इस हल का भी ढोऊंगा कितनी भी विपत आये, फसल अवश्य बोऊंगा... खाट छोड़ ,मुह अँधेरे ही.. निकल पड़ा खेत की ओर, दो बैल जोत रहे खेत, होने लगी देखो भोर......... - रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

RUSH N BITE रेस्टोरेंट मे दिखाई देगा मेरा ये BIG CARTOON BHOPAL RAILWAY STATION के PLATEFORM NO. 1 मे स्थित

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वीरगति

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सन्नाटे की साँय-साँय झींगुर की झाँय-झाँय सूखे पत्तों पे कीट की सरसराहट दर्जनों ह्रदयों की बढाती घबराहट हरेक मानो मौत की डगर पर... चलने को अग्रसर... पपडाए होंठ सूखा हलक ज़िन्दगी नहीं दूर तलक चाँद की रौशनी भी हो चली मद्धम जहाँ.. ऐसे मौत के घने जंगल हैं यहाँ, हाथ में बन्दूक,ऊँगली घोड़े पर ह्रदय है विचलित पर स्थिर है नज़र.. ना जाने और कितनी साँसें लिखी हैं तकदीर में.. एक बार फिर तुझे देख लूं तस्वीर में.. जेब को अपनी टटोलता-खंगालता, बटुएनुमा एक वस्तु निकालता, हौले से उसके पटों को खोलता, मन-ही-मन उस तस्वीर से बोलता, सन्नाटे से डरता, आवाज़ से घबराता, मन-ही-मन वो है बुदबुदाता, छूट जाये जो साथ अपना, तो गम ना करना... माँ-बाबू और बच्चों को संभालना, आँख तुम नम ना करना.. ना जाने ये दानव जीने देंगे या नहीं.. मै अपना, तुम अपना फ़र्ज़ अदा करना.. रह गया अधूरा ये वार्तालाप सन्नाटे को चीरती आई मौत की आवाज़.. धंस गयी कलेजे में उसके वह गोली.. कोई और नहीं वे थे नक्सली... गिरा बटुआ एक ओर भीग गए नैनो के कोर चारों ओर है दावानल चीखों और मृत्यु का शोर ज़िन्दगी मानो उससे दूर जा रही है... एक मीठी सी नींद आ रही है...

मेरी नन्ही परी....

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नन्ही सी कोमल कली रुई के फाहे सी सफ़ेद घुंघराले काले केशों के संग मानो श्याम मेघों के बीच चंदा,रहा दमक... आसमान सी नीली पोशाक में लिपटी.. इन्द्रनुषी आभा सी दमकती.. मेरे आँचल में चमकती... नयनों की डिबिया को झप-झप झपकाती.. कस के बंद गुलाबी मुट्ठियों को हिलाती-डुलाती अलि सी गुनगुन में गुनगुनाती-इठलाती मुझे मातृत्व का एहसास कराती... परीलोक की मेरी ये शहज़ादी मानो मुझसे पूछती सी... माँ तू नाराज़ तो नहीं की मै बेटी हूँ...!!!!!!! पलकों से उसे सहला के आंसुओं से मैंने उसे नहला के गर्व से गोद में उठा कर हजारों चुम्बन बरसा कर हौले से कहा उसे- बिटिया...मेरी तरह तू भी.. एक बेटी, एक बहिन, एक गृह-लक्ष्मी और.. एक माँ होगी. समझेगी तू ही मेरी हर पीड़ा को... हमारी दुलारी है तू पिता की प्यारी है तू रौशन होगा तुझसे ही अपने घर का हर कोना हर त्यौहार में तू ही रचेगी-बसेगी... तेरी किलकारी से हमारी दुनिया सजेगी... जब-जब तू खिलखिलाएगी बिटिया हमारी दुनिया जगमगाएगी.... -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

मध्यम वर्ग का कीड़ा

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मुट्ठी में फडफडाते नोट देख कर डूबा हुआ है वो यह सोच कर.. क्यूँ ना हूँ मै इतना गरीब कि फटेहाल भी रह सकता रोटी-प्याज भी खा कर जी सकता.. ना होते पडोसी ना रिश्तेदार ना किसी के सवाल ना जवाब... फक्कडपन से रहता रोज़ कुआं खोद के पानी पीता... फटे कपडे पहन कर शान से घूमता... फिर ख्याल आया उसे.... या तो होता इतना अमीर कि इन मुट्ठी में बंद रुपयों को भीख में दे सकता... ना पेट की होती चिंता ना अपनों की फिकर दीवार पर चिपके होते नोट वॉल-पेपर पर... खाने की थाली सोने की होती जिसमे भोजन होता रत्न, जवाहर, माणिक का... लेकिन मै हूँ एक कीड़ा समाज के ऐसे वर्ग का जहाँ इतने से रुपयों में ही पेट की आग, तन की सज्जा... माँ की दवाई, पत्नी की लज्जा.. बेटे की कोचिंग बेटी की पढाई बनिए का राशन दूध का बिल और मकान की इ.एम्.आई. सब का करना होगा हिसाब ये मुट्ठी भर नोट किस-किस काम आएंगे...!!! क्यूँ पैदा हुआ मै.. इस मध्यम वर्ग में जहाँ इन मुट्ठी भर नोट में ही मर मर के जीना होगा... और ज़िन्दगी भर कर्ज़दार बन कर रहना होगा...

आस्तीन के सांप हैं ये....

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गृहमंत्री जी का यह बयान कि नक्सलवादियों पर इसलिए वायुसेना से हमला नहीं किया जा सकता क्योंकि वे देश के दुश्मन नहीं हैं, बड़ा विचित्र है! चिदंबरम साहब, ये तो देश के दुश्मनों से भी ज्यादा खतरनाक हैं, जो अपने होते हुए भी अपनों का लहू बहा रहे हैं! क्या देश का नागरिक अपराध करे तो वह अपराध की श्रेणी में नहीं आयेगा! आइ.पी.सी. की धारा ३०२ के तहत कोई हत्या करता है तो क्या उससे सजा नहीं दी जाती?? तो इन क्रूर नक्सलवादियों से हमदर्दी क्यों?? या किसी और बड़ी घटना का इंतज़ार है?? या ये समझा जाये कि कोई वी.आई.पी. नहीं मारा गया इनके हाथों अभी तक, इसलिए इन्हें फिलहाल माफ़ी है...!!!!!अगर ये भारत देश को अपना समझते तो क्या सी.आर.पी.ऍफ़. के जवानों की यूँ हत्या करते??? इस के पहले भी ना जाने कितने निर्दोष लोगों की जान ले चुके हैं ये! मंत्री जी, बयान नहीं कठोर कदम उठाइए इनके विरुद्ध... आस्तीन के सांप हैं ये....!

महाकुम्भ का तीसरा शाही स्नान

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महाकुम्भ का पावन अवसर...उस पर चैत्र पूर्णिमा व हनुमान जयंती... और शाही स्नान! जहाँ एक ओर भारत के कंदर-गुहाओं, जंगल-पर्वतों से निकल-निकल कर साधू-संत हरिद्वार आये हुए हैं वहीँ आस्था एवं गंगा का तीव्र प्रवाह भीड़ की शक्ल में "हर की पैड़ी" पर उमड़-उमड़ जा रहा है! जीवन में कितने भी पाप किये हों, गंगा मैया की एक डुबकी उद्धार कर देगी! सारे पाप धुल जायेंगे, इस विश्वास के साथ जन-समूह उमड़ा पड़ रहा है, जिसमे अधिकतर ग्रामवासी हैं!प्रातः काल ३ बजे से आम लोगों का स्नान आरंभ हुआ, आज जो गंगा मैया में स्नान करेगा वह सीधा बैकुंठ जायेगा! हिमगिरी से निकली गंगा का हिम सा शीतल जल भी लोगों के निश्चय को डिगा नहीं पा रहा था....प्रातः ९ बजे तक ये स्नान चला उसके पश्चात् अखाड़ोंका स्नान आरंभ होगा! जूना अखाडा, निर्मल अखाडा, निरंजन अखाडा, अग्नि अखाडा,महानिर्वानी अखाडा, अटल अखाडा, आनंद अखाडा एवं अन्य साधू-संतों के ये समूह बड़े-बड़े सजे-धजे रथों,गाड़ियों,हाथी-घोड़े में सोने-चांदी से सुसज्जित सुन्दर छत्र लगाये अपने गुरुओं के साथ आपने अखाड़ों का वैभव के साथ शक्ति प्रदर्शन करते हुए शान से हर की पैड़ीस्थित ब्रम्ह
Hi Friends, Im going for vacation tonight for a week. ILL go to Delhi, Amritsar, Wagha border N than Haridwar for Mahakumbh. Wish me luck as Im going to Haridwar on SHAHI SNAN DAY.. Cu on 2nd April...Take care. -ROLI http://wwwrolipathak.blogspot.com/

बचाओ बचाओ पापा बचाओ CARTOON

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बंधन

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जब साथ हो तेरा प्यारा सा दूरियां क्यों सिमट जाती हैं.... क्यों मेरे बदन से तेरी खुश्बू आती है... क्यों मन को वो बंधन अच्छा लगता है... जैसे अमरबेल किसी वृक्ष से लिपट जाती है... वक़्त क्यूँ तब ठहरता नहीं, उसकी गति और तेज़ हो जाती है. बावरा मन जब चाहता है साथ तेरा.. क्यों वक़्त की रेत, मुट्ठी से फिसल जाती है.... जब साथ हो तेरा प्यारा सा...... दूरियां क्यों सिमट जाती हैं!!!! -रोली पाठक. http://wwwrolipathak.blogspot.com/
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मेरे ब्लॉग के सभी सदस्यों को गुडी-पड़वा एवं नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं... -रोली पाठक. http://wwwrolipathak.blogspot.com/

ज़िन्दगी....

एक जिज्ञासा, एक कशमकश, एक अकुलाहट सी है मन में ज़िन्दगी को लेकर एक सुगबुगाहट सी है मन में.... खामोश रहूँ या कुछ बोलूं, शब्दों को वाणी में ढालूं ये सोच के कुछ-कुछ घबराहट भी है मन में... बिखरे शब्दों के मोती को, माला में मैंने पिरोया है पढ़-पढ़ के जब-जब देखा है इनके अर्थों को जाना है तब से एक अजब किस्म की राहत सी है मन में.... वाणी भी है संवाद भी हैं पर पर शब्द कहीं खोते से हैं जो शब्द नहीं तो जीवन के अध्याय मेरे रीते से हैं विचलित है,उद्वेलित है,इक उथल-पुथल सी है मन में.. ज़िन्दगी को लेकर एक सुगबुगाहट सी है मन में.... - रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/
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ना मुस्कुराओ इस कदर ना खिलखिलाओ यूँ जी भर, अब बता भी दो क्या ये है.... मेरी मोहब्बत का असर!!!! -रोली पाठक. http://wwwrolipathak.blogspot.com/

दो रूप..

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सोचती हूँ अक्सर वह रूप....... जहाँ रची-बसी मलिन सी महक स्याह दीवारें लहू के लाल छींटों से चितकबरा दामन, आहों-कराहों की बेबसी अँधेरी रातों की गहराई माँ का खाली पेट बूँद-बूँद चुचुआता आँचल, खाली सी एक थाली पपड़ाए-थरथराते होंठ, बेला-चमेली-मोगरे के सुवासित गजरे सीलन भरी रातें दम तोड़ता नन्हा दिया, मुट्ठी में बंद चंद पसीने से भीगे नोट, सोचती हूँ अक्सर............... यह रूप........ महकता-सरसराता रेशमी आँचल अट्टहास व खिलखिलाहट, संगीत संग गीत की स्वर-लहरियों के गूंजते स्वर, रजनीगंधा की मधुर महक भोजन भरपूर पर क्शुधाहीन नारी-नर कोना-कोना दीप्त बड़े झाड़-फानूस से, हैं नयन पर स्वप्न नहीं, है शय्या पर नींद नहीं, भोजन है पर भूख नहीं, आँचल है पर दूध नहीं.... हर निशा जहाँ मधुयामिनी सी है, वहां, करवटें बदलता यह रूप.... और भूख से बेहाल आँखों में स्वप्न संजोये गहरी-मीठी थकी-थकी नींद में डूबा वह रूप..... मै सोचती हूँ अक्सर............. -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

निवेदन..........

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आओ तनिक तुम मेरा श्रृंगार कर दो इन लजीले रीते-रीते से नयनों में साकार हों ऐसे कुछ स्वप्न भर दो आओ तनिक तुम मेरा श्रृंगार कर दो... देखो ये आँचल बड़ा बेरंग सा है टेसू के कुछ फूल ला कर इसे रंग दो आओ तनिक तुम मेरा श्रंगार कर दो.... मेरे तन सजता नहीं है इक भी गहना चाँद-सूरज ला के इन कुंडल में जड़ दो आओ तनिक तुम मेरा श्रृंगार कर दो.... पलकों पे कुछ ओस की बूँदें सजी हैं तुम गए, तबसे ये नयनों में बसी हैं काली घटाओं का काजल इनमे रच दो आओ तनिक तुम मेरा श्रंगार कर दो... व्यथित हूँ पायल मेरी बजती नहीं है अपने चंद गीत इन घुंघरू में भर दो आओ तनिक तुम मेरा श्रंगार कर दो.... शुष्क से मेरे इस मरू ह्रदय को... प्रेम की बूंदों से तुम अभिसिंचित कर दो आओ तनिक तुम मेरा श्रृंगार कर दो..... -रोली पाठक http://wwwrolipathak.blogspot.com/

भोपाल का रेड्क्रोस अस्पताल CARTOON

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महिला आरक्षण का प्रथम चरण विजयी...

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जीत गयी फिर नारी शक्ति असुरों की फिर हार हुई, था श्रृंगार कभी चूड़ी का आज वही तलवार हुई, मूक-बघिर है उसका जीवन ज्यों ही उसको बोध हुआ, ओज वाणी में ऐसा आया, मानो धनुष टंकार हुई अबला,महिला,वनिता, कामिनी कहलाया करती थी वो.. दुर्गा,चंडी,चामुंडा का साक्षात अवतार हुई.. क्षीण ध्वनि और कातर द्रष्टि, सहमा-सहमा था तन-मन, आज मिली है शक्ति उसको दुनिया में जयजयकार हुई.. जीत गयी फिर नारी शक्ति, असुरों की फिर हार हुई... -रोली पाठक. http://wwwrolipathak.blogspot.com/
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रातों को नींद नहीं आती दिन भी यूँ ही ढल जाता है गलती से तेरा जो, ज़िक्र निकल आता है http://wwwrolipathak.blogspot.com/

चन्दा की डोली

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हर रात की अजब कहानी है कभी अमावस कभी है पूर्णिमा.. हर रात चन्द्रमा की नयी है भंगिमा पूनम का चाँद लगे एक गहना नाज़ुक सी कलाई में मानो कंकण हो पहना बिखरे हैं तारे जैसे गोरी की चूनर चन्दा लगे जैसे माथे पे झूमर बादलों से लुक-छिप जैसे गोरी शर्माए घुंघटा उठाये और उठा के गिराए पिया संग जैसे करे अठखेलियाँ श्यामल मेघ यूं चन्दा को छुपायें काली चूनर ओढ़ जैसे गोरी मुस्काये चम् चम् तारे उसकी चूनर में पड़े हैं जरी गोटा नगीने और सितारे जड़े हैं पूनम का चाँद सितारों का साथ... जैसे छम छम करती आई बारात ये है पूर्णिमा की रात...ये है पूर्णिमा की रात.. -रोली पाठक. http://wwwrolipathak.blogspot.com/

नारी शक्ति की जय

चौदह साल से लंबित महिला आरक्षण बिल आज होगा संसद में पेश... जिसका लाभ उठाएंगे ८०% वो पुरुष जिन्हें चुनाव लड़ने के किये पार्टी का टिकिट नहीं मिलेगा, अपनी धर्मपत्नी को आरक्षित सीट पे चुनाव लडवा के सत्ता की बागडोर अपने हाथ में रखेंगे और चुनाव जीत कर महिला एक बार फिर चौका-चूल्हा संभालेगी! हाँ, हस्ताक्षर या अंगूठा उसका ही होगा! इस बिल में एक प्रावधान और भी होना चाहिए की जो भी महिला आरक्षित सीट की दावेदार हो उसकी पारिवारिक प्रष्ठभूमि अवश्य देखी जाये कि उस परिवार से कोई पुरुष राजनीति में तो नहीं है! नगरीय निकाय चुनाव में मैंने यह अनुभव किया कि महिला आरक्षण का लाभ भी पुरुषों को ही मिलता है, उनके ना कोई निर्णय होते हैं ना कोई आवाज़.........! हमें चाहिए आरक्षण के साथ उसकी स्वंत्रता, उसके स्वतंत्र निर्णय! -रोली पाठक. http://wwwrolipathak.blogspot.com/

माय नेम इज खान

आजकल संदेश देने वाली फिल्मो का दौर फिर शुरू हुआ है! मै अपनी बेटी के साथ ये फिल्म देखने गई थी, फिल्म के एक संवाद से वो काफी प्रभावित हुई- " दुनिया में दो तऱ्ह के लोग होते है- एक अच्छे,एक बुरे! हिंदू-मुसलमान व दूसरी कौम ये सब बाते गलत है!" उसने अनेक प्रश्न किये इस बात से जुडे हुये....जिनका धैर्यपूर्वक उत्तर दिया मैने, लेकिन बाद में सोचा कि क्या जैसा मैने उसे सिखाया वो मैने भी सीखा??? शायद नहीं.........! सबसे झूट बोल सकते है हमलेकिन अपने मन से नहीं! हम दोहरी जिंदगी जीते है.... समाज के लिये अलग और अपनी संतान के लिये अलग! समाज के नियम, कानून-कायदे अलग है जो कई जगह गलत भी है पर हमे उन्हे मानना पडता है क्योंकी हम उसी समाज का हिस्सा है, लेकिन हम अपने बच्चो को सही बाते सिखाना चाहते है और इसी सोच के चलते हम उनके सामने अपना राम रूपी रूप प्रस्तुत करते है मन के रावण को हम समाज के लिये रख लेते है, दशहरे को रावण के दहन के बाद भी वर्ष भर हम कई बार इस रावण को मारते है थो कभी उसे जिलाते है,जब जैसी परिस्थिती हो हम उसी के अनुसार व्यवहार करने लगते है! माय नेम इज खान का नायक अंत तक नही बदलता, प

होली शुभ हो....

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फागुन की बयार, रंगों की फुहार सरसों पीली, चूनर गीली.. अबीर-गुलाल हरे,पीले,लाल.. राधा चली पनघट किशन जमना तट राधा को न भाएँ रंग ये हजार एक बस श्याम रंग उसे लुभाता है लाल,हरे पीले रंग में बस श्याम नज़र आता है.... आप सभी को होली की इन्द्रनुषी शुभकामनाएं.... -रोली पाठक. http://wwwrolipathak.blogspot.com/

सबसे बड़ा रुपैया

फिर चरम पे है आई.पी.एल. यानि इंडियन प्रीमिअर लीग का खुमार! फिर हो चुकी शीर्ष स्तर के क्रिकेट खिलाडियों की नीलामी! बिक चुके ये चोटी के खिलाडी कहीं किसी उद्योगपति के हाथों तो कहीं किसी फिल्म सितारे के हाथों!एक बार फिर होंगे आई.पी.एल. के मैच!हर चौके-छक्के पे बार बालाओं की तरह संगीत की धुन पर थिरकती अर्धनग्न सुंदरियां, जिन्हें विरोध के बाद भूल-सुधार करते हुए ढंग के कपडे पहनाये जाने लगे हैं! क्रिकेट जैसे स्तरीय खेल का स्वरुप ही बिगाड़ दिया गया है!भारतीय टीम के चमकते सितारे जब आठ अलग-अलग टीमो में बँट जाते हैं तब मानो उनकी एकता भी छिन्न-भिन्न हो जाती है!पिछले आई.पी.एल. मैचों में उपजे विवाद के ज़ख्म आज भी नासूर की तरह हैं जिन्हें गाहे-बगाहे न्यूज़ चेनल वाले दिखा-दिखा के उन्हें हरा करते रहते हैं!हरभजन सिंग का चांटा आज भी उनके करीबी मित्र श्री संत को यादहोगा, सौरव गांगुली जैसे धीर-गंभीर खिलाडी के खिलाफ शेन वार्न के ज़हरीले बयान भुलाये नहीं जा सकते! ये कैसा टूर्नामेंट है, न खिलाड़ियों में खेल भावना है न एक दूसरे के प्रति सम्मान!पंजाब इलेवन की प्रीटी ज़िंटा युवराज सिंग को मैदान में गले लगा लगा
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मेरा जीवन एक तपोवन, व्यथित ह्रदय आहत अंतर्मन, मिथ्या लगते सारे बंधन, नयन में अश्रु ह्रदय में क्रंदन, मेरा जीवन एक तपोवन..... सावन भादों माघ औ फागुन पर मेरे जीवन के मानो, जेठ माह से सारे मौसम आयु है लम्बी और साँसें कम रेशम के कीड़े सा जीवन मेरा जीवन एक तपोवन........

सन्देश

मंत्री जी ने सन्देश दिया है.. जनता से एक वादा लिया है.. न खेलेंगे पानी से होली... न बरसाएंगे रंग... लगा के अबीर-गुलाल का टीका मनाएंगे होली जनता के संग... मंत्री जी ने सन्देश दिया है.. हम सबसे वादा लिया है... जल बिन नहीं है जीवन न करो इसे व्यर्थ, बचाओ इसकी हरेक बूँद हम सबसे वादा लिया है... न पियो मदिरा या भांग न करो नशा अपनों के संग.. ये डालता है त्यौहार के रंग में भंग... जनता मंत्री जी से इम्प्रेस हो गयी मतवालों कि टोली डिप्रेस हो गयी, वादा आखिर वादा है... होली का शुभ दिन आया जनता ने वादा निभाया.. अबीर-गुलाल ले जनता पहुंची मंत्री जी के द्वार.. मंत्री जी नदारद थे.. खबर मिली अपने फार्म हाउस पर लेकर पानी से भरे दो टेंकर मंत्री जी मना रहे हैं होली........ जनता आक्रोशित हुयी... अचानक मंत्री जी के घर में कुछ हलचल हुयी लाल बत्ती लगी गाड़ियों के सायरन लगे चीखने आक्रोशित जनता शांत हो उत्सुक हो गयी.. फिर खबर आई मंत्री जी के पुत्र ने नशे में गाडी से जनता के एक जन को कुचल दिया..... पुत्र भी घायल है... भीड़ में हलचल है .... आक्रोशित, शांत, उत्सुक जनता दुखी हो गयी........ एक अपने की मृत्यु से.. और ए

कफ़न

हर तरफ बर्फ की चादर बिछी हुई है.. बर्फ के पहाड़ों पर अठखेलियाँ करते हुए लोग बर्फ को देखने दूर दूर से आते लोग बर्फ जो कफ़न के रंग सी है बर्फ जो लोगों को लुभाती है सैलानियों को पागल बना देती है बर्फ की चादर पे फुदकते हुए बच्चे अपने वज़न से ज़्यादा कपड़े पहने हुए बर्फ को देखने धन-श्रम-वक़्त क्यूँ खर्च करते हैं... वो अक्सर सोचता है... वो है जो बर्फ को देखते ही सिहर जाता है.. उसका रोम-रोम अकड़ जाता है वो अक्सर सोचता है....... क्यों आता है ये प्राणघाती मौसम जब पीने का पानी भी बन जाता है बर्फ... हर तरफ बस सर्द हवा और बर्फ बर्फ बर्फ..... अरे ये भीड़ इकट्ठी क्यूँ है शायद कोई तमाशा है वहाँ ये तो वो है..... जो बर्फ देखते ही सिहर जाता था जिसके पास बर्फ से बचने के लिए एक चादर भी ना थी और बर्फ की चादर अब उसका कफ़न बन गयी....

सलोना...

बंदूकें गुड़िया गुड्डे मोटर उछल-उछल के नाचता बन्दर टूटे फूटे खिलौनों को कचरा समझ खिलौनों को भर कर एक झोले में कामवाली बाई के सलोनो को दे कर खुश है माँ और छोटा बेटा, माँ घर की सफाई से बेटा नए खिलौनों के वादे से बाई भी खुश है अपने सलोने की मुस्कान सोच कर... रात को बेटा खेल रहा है लिओ टौयेस और फन स्कूल से माँ नए रंगीन महंगे खिलौनों को सजा रही है कमरे में उधर बाई के घर में भी गूँज रही है किलकारी टूटी हुई गुडिया भी लग रही है उसे सबसे प्यारी बन्दर की एक आँख नहीं है मोटर है जो चलती नहीं बन्दूक जो बस बन्दूक ही है इन टूटे फूटे खिलौनों को सजा रहा है सलोना किसी के घर के कचरे से महक रहा है इस घर का कोना कोना........