पुकार

न जलाओ दोबारा
इस जली देह को,
होता है दर्द
यूँ बार बार जलने में,
अब तो तपती हूँ मैं,
लौ से भी मोमबत्ती की,
सिहर जाती हूँ
कर्कश आवाज़ों से,
जो चीखते हो तुम
मेरे न्याय के लिए,
न होता है कुछ
न मिलता है कुछ
बस, बढ़ता ही जाता है
देह का दर्द।
कल दूसरी थी,
आज हूँ मैं,
कल फिर दूसरी होगी
क्या थमेगा यह सिलसिला कभी!!!

- रोली पाठक

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