परिंदे..............
कितना सूना-सूना सा, ये जहाँ दिखता है...
खो गए सारे परिंदे,
अब तो बस मुट्ठी भर आसमाँ दिखता है....
ईंट-पत्थर से, बन गए ऊँचे-ऊँचे घरौंदे,
अब तो बस झरोखे और मकाँ दिखता है.....
ढूंढता हूँ परिंदों को, छत औ चौबारों में,
अब ना कहीं उनका, नामो-निशाँ दिखता है....
तिनकों को कचरा कह, फेंक देता है इन्सां,
जहाँ उसको, इनका आशियाँ दिखता है......
कहाँ जाये, कहाँ......रहें ये परिंदे,
कि हर तरफ इमारतें और इन्सां दिखता है.....
खो गया इनका कलरव, खो गई चहचहाहट,
अब तो बस मशीनों का,धुंआ दिखता है.....
-रोली पाठक
आज बड़ी बडू इमारतों के बन जाने से ऐसा ही दिखता है ..खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ! रोली , तुम्हारी कविताओं में एक प्रवाह होता है जो चित्र से उठकर शब्दों में घुलता है और उसकी मिठास या अहसास पाठक के मन में मिसरी सी घुल जाती है ... ये शब्द तुम्हारे स्वाभाव की प्रतीति कराते हैं .
ReplyDeleteस्नेह सहित
यह बिलकुल सच है की मशीनी युग में प्रकृति की सुंदरता के प्रतिक यह परिंदे और इनकी कलरव न जाने कहा खो गई हे ,जहा देखो वहा सिर्फ और सिर्फ दोडता हुआ मानव ही दिखाई देता है .. आसमा को छूती हुई इमारतों के बीच इनकी परछाई भी नज़र नहीं आती है .......
ReplyDelete.आपका ब्लॉग बहुत सुंदर है ,बहुत अच्छा पड़ने को मिला काफी देर तक विचरण किया यहाँ .प्रत्येक रचना में गुंथे हुए शब्द के फूल आपके स्वभाव की खुशबु बिखरा रहे है ....बधाई
भावों को खूब बुना है और सच को भी उजागर किया है……………एक बेहद उम्दा और शानदार प्रस्तुति दिल को छू गयी………………बधाई।
ReplyDeleteसंगीता जी....अपर्णा दी....
ReplyDeleteआप जैसी उच्च कोटि की लेखिकाओं की कलम से प्रशंसा सुन कर मन प्रसन्न हो जाता है, ह्रदय से आभार.
प्रवेश जी,
ReplyDeleteमुझे बहुत अच्छा लगा यह जान के कि आपने
मेरे ब्लॉग की समस्त रचनाएं पढ़ीं...
बहुत-बहुत आभारी हूँ...धन्यवाद :)
वंदना जी...ह्रदय से धन्यवाद.... :)
ReplyDeleteसंगीता जी...बहुत-बहुत धन्यवाद...
ReplyDeleteआपकी कविता में परिंदों की चिंता तो है ही ,पर्यावरण के प्रति भी आपकी चिंता साफ झलकती है .आपकी सोंच और कविता लिखे जाने में किया गया श्रम दोनों सराहनीय है
ReplyDeletepratibaddh soch prashansniya hai!
ReplyDeletesundar rachna!
परिन्दों की कश्मकश ..
ReplyDeleteखो गया इनका कलरव, खो गई चहचहाहट
ReplyDeleteअब तो बस मशीनों का धुआं दिखता है।
पहली बार आपके ब्लाग पर आना हुआ। बेहद अच्छा लगा। मन संवेदनशील होता है तो अपने से इतर समाज दिखता है और कविता जनमती है। आभार स्वीकारें, आगे बढ़ें।
महानगरों में कहाँ दिखाई देते हैं आज पक्षी..पक्षी और इंसान के अस्तित्व की लड़ाई में पक्षी आज परविहीन होगये हैं . बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति ..
ReplyDeleteरोली जी,
ReplyDeleteनमस्कारम्!
मैं जितेन्द्र ‘जौहर’.... पूरे होशो-हवास में यह हलफ़ बयान करता हूँ कि मुझे आपकी ‘परिन्दे’ रचना पढ़कर बहुत ख़ुशी हुई। कारण कि आपकी संवेदना की व्यापक परिधि में पक्षी भी शामिल हैं...ऐसे में मुझे लगता है कि आप इंसान का दुःख-दर्द देखकर/महसूस कर द्रवित हो उठती होंगी...इस सुन्दर भावपूर्ण रचना के लिए बधाई...!
एक अनुरोध यह कि यदि आप ग़ज़ल में शिल्पगत जानकारी हासिल करने की कोशिश करें, तो आप और भी बेहतर एवं प्रभावपूर्ण सृजन कर सकेंगी।
अच्छी सुंदर रचना
ReplyDeleteइस बार मेरे ब्लॉग में SMS की दुनिया
कुंवर कुसुमेश जी, आपकी इस टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद....
ReplyDeleteअनुपमा जी, वर्मा जी, कैलाश जी, अमरजीत जी....इस सराहना के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद...
ReplyDeleteजीतेन्द्र जौहर जी, नमस्कार....आपकी टिप्पणी से उत्साहवर्धन हुआ...आपके कहे अनुसार अवश्य प्रयास करुँगी |
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