
अजनबी हूँ इस शहर में, खामोश रहता हूँ.... निगाहें बोलती हैं मेरी... हर दर्द सहता हूँ... ये कैसा रंजो-गम का आलम है, क्यूँ है बेकरारी यहाँ, कि संग अपने दर्द के... मै पिघले सीसे सा बहता हूँ... अजनबी हूँ इस शहर में, खामोश रहता हूँ.... वीरानियाँ सी छाई हैं, हर पल उदासी है, न आती मुस्कराहट लबों पर, हर तमन्ना प्यासी है.... क्यूँ कर ज़िन्दगी से फिर भी ना, कुछ मै कहता हूँ.... अजनबी हूँ इस शहर में, खामोश रहता हूँ...... मुर्दा सा हर इंसान है, हर भावना मृत है.... अब पी लूँ मै विष भी तो क्या, वो भी अमृत है... जो मर-मर के ही जीना है मुझे मुर्दों की बस्ती में, तो बनके मै भी पाषण अब, पत्थर सा जीता हूँ.... अजनबी हूँ इस शहर में, खामोश रहता हूँ....... - रोली पाठक