अजनबी हूँ इस शहर में,
 खामोश रहता हूँ....

निगाहें बोलती हैं मेरी...
हर दर्द सहता हूँ...

ये कैसा रंजो-गम का आलम है,
क्यूँ है बेकरारी यहाँ,

कि संग अपने दर्द के...
मै पिघले सीसे  सा बहता हूँ...

अजनबी हूँ इस शहर में,
खामोश रहता हूँ....

वीरानियाँ सी छाई हैं,
 हर पल उदासी है,
न आती मुस्कराहट लबों पर,
हर तमन्ना प्यासी है....

क्यूँ कर ज़िन्दगी से फिर भी ना,
 कुछ मै कहता हूँ....

अजनबी हूँ इस शहर में,
खामोश रहता हूँ......
मुर्दा सा हर इंसान है,
हर भावना मृत है....
अब पी लूँ मै विष भी तो क्या,
वो भी अमृत है...
जो मर-मर के ही जीना है मुझे
मुर्दों की बस्ती में,
तो बनके मै भी पाषण अब,
पत्थर सा जीता हूँ....
अजनबी हूँ इस शहर में,
 खामोश रहता हूँ.......

- रोली पाठक 

Comments

  1. शहर जो अब मुर्दा हो चला है .... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति रोली जी ।

    ReplyDelete
  2. शहरों में रहने वालों की यही त्रासदी है ... सजीव चित्रण

    ReplyDelete
  3. बहुत बढ़िया रोली जी.

    सादर

    ReplyDelete
  4. यहाँ सभी अजनबी हैं……शानदार चित्रण्।

    ReplyDelete
  5. महानगरों में अज़नबीपन की त्रासदी का बहुत मर्मस्पर्शी चित्रण..

    ReplyDelete
  6. बहुत-बहुत धन्यवाद......आप लोगों की प्रतिक्रया से सदैव उत्साहवर्धन होता है.....शुक्रिया.

    ReplyDelete
  7. यथार्थ से जुडी सुन्दर कविता.

    ReplyDelete
  8. शुक्रिया शिखा जी......व् मेरे सभी प्रिय मित्रगण....

    ReplyDelete
  9. सभी यहाँ अजनबी हैं और दो दिन के मेहमान हैं.
    सुन्दर रचना.

    ReplyDelete
  10. कल 22/06/2011को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है-
    आपके विचारों का स्वागत है .
    धन्यवाद
    नयी-पुरानी हलचल

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

जननि का महत्व

पापा

भीगी यादें