दो बैल...


कल मर गया
किशनू का बूढा बैल,
अब क्या होगा...
कैसे होगा...
चिंतातुर,सोचता-विचारता
मन ही मन बिसूरता
थाली में पड़ी रोटी
टुकड़ों में तोड़ता
सोचता,,,बस सोचता...
बोहनी है सिर पर,
हल पर
गडाए नज़र,
एक ही बैल बचा...
हे प्रभु,
ये कैसी सज़ा...!!!
स्वयं को बैल के
रिक्तस्थान पे देखता..
मन-ही-मन देता तसल्ली
खुद से ही कहता,
मै ही करूँगा...हाँ मै ही करूँगा...
बैल ही तो हूँ मै,
जीवन भर ढोया बोझ,
इस हल का भी ढोऊंगा
कितनी भी विपत आये,
फसल अवश्य बोऊंगा...
खाट छोड़ ,मुह अँधेरे ही..
निकल पड़ा खेत की ओर,
दो बैल जोत रहे खेत,
होने लगी देखो भोर.........
- रोली पाठक
http://wwwrolipathak.blogspot.com/

Comments

  1. "बहुत अलग-सा विषय; शीर्षक भी अनूठा; अच्छे शब्द और अच्छी-सी कविता...."

    ReplyDelete
  2. सुप्रभात प्रणव जी...धन्यवाद,
    कुछ त्रुटियाँ थीं मैंने उन्हें सही किया है...
    जी-मेल में हिंदी अनुवाद में थोड़ी गलतियां
    हो जातीं हैं कभी-कभी...

    ReplyDelete
  3. बैलो का दुःख किसान ही समझ सकता है.भावुक और सुंदर कविता.

    ReplyDelete
  4. ek kisan ke dard ko bahut gaharayee se samjha hai apne----behatareen kavita.
    poonam

    ReplyDelete
  5. मृदुला जी, पूनम जी बहुत-बहुत धन्यवाद...

    ReplyDelete
  6. लाजवाब प्रस्तुती ........बहुत खूब

    ReplyDelete
  7. अलग अंज़ाज़ की रचना ... बहुत ही खूब ..

    ReplyDelete
  8. बहुत-बहुत धन्यवाद दिगंबर जी, संजय जी...

    ReplyDelete
  9. ▬► रोली.. मनुष्य की बेचारगी को बारीकी से ढोया है तुमने.. सुन्दर..

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

जननि का महत्व

पापा

भीगी यादें