सुहाना सफर

ट्रेन की खिड़की से बाहर, साथ-साथ भागते पेड़ और खेत देखना मुझे हमेशा अच्छा लगता है । सावन की रिमझिम बारिश का दौर जारी था, एक घंटे पूर्व ही बारिश थमी थी, तभी मै खिड़की का काँच खोल पायी । बाहर से आती ठंडी बयार और खेत की मिट्टी की खुश्बू ने मन में ताजगी भर दी । यूँ तो हमेशा ही मेरा रिज़र्वेशन एसी में रहता है लेकिन अचानक ही यात्रा निकल आने के कारण फर्स्ट क्लास में जाना पड़ा, सच तो यह है कि एसी के बंद दड़बेनुमा डब्बों में मै बेहद ऊब जाती हूँ । मै दिल्ली से लखनऊ जा रही थी । मुझे एक सेमीनार में अपने कॉलेज को रिप्रेजेंट करना था । पहले मेरी सीनियर मिसेज़ कौल जाने वाली थीं लेकिन अचानक एन वक्त पर उनकी तबियत खराब हो जाने के कारण मुझे जाना पड़ रहा है । मै लखनऊ पहली बार जा रही हूँ ।
नजाकत और नफासत की इस नगरी को देखने की उत्सुकता भी थी और सेमीनार की घबराहट भी । वहाँ ना जाने कितने अनुभवी और विद्वान अपने ज्ञान से अपने संस्थान का बखान करेंगे और मै महज तीन वर्ष की नौकरी के अधकचरे अनुभव को ले जाकर क्या करुँगी ! मुझे अपने प्रिंसिपल शर्मा जी पर झुंझलाहट हो आई । हालांकि मै  कॉलेज के होशियार लेक्चरर्स में गिनी जाती थी, और इस तरह की सेमिनार्स पहले अटेंड भी कर चुकी थी लेकिन दिल्ली से बाहर कभी नहीं गयी थी ।
जो होगा देखा जायेगा, सोच कर अपने विचारों को झटक के मै प्रकृति की सुंदरता में खो गयी । नीला रंग सुरमई बादलों के आगोश में कहीं खो गया था । बारिश के बाद खाली ज़मीन पर दूर-दूर तक हरी दूब उग आई थी, चारों ओर हरियाली ही हरियाली छायी थी । ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पर्वत शिखरों पर बादलों के टुकड़े अठखेलियाँ कर रहे थे ।
अचानक ट्रेन रुकी, कोई छोटा सा स्टेशन आया था, मै बाहर झाँक कर स्टेशन का नाम ढूंढ रही थी, अचानक केबिन का दरवाज़ा खुला और एक सज्जन अंदर आये और ट्रेन चल दी । केबिन में मेरे अलावा कोई ना था, मै फिर बाहर देखने लगी । वो मुसाफिर ऊपर की बर्थ पर अपना सामान रख रहा था फिर मेरे सामने वाली बर्थ पर वह बैठ गया व अपने जूते के तमगे खोलने लगा । मैने कनखियों से उसे देखा, वह तैंतीस -चौंतीस वर्ष का ऊंचे कद का संभ्रांत परिवार का युवक लग रहा था । उजला रंग, चौड़ा माथा , बाल कुछ घुंघराले से, सफ़ेद कमीज़ व नीली जींस पहने था। मैने नज़रें फिर बाहर टिका दीं और निश्चिन्त हो गयी कि सहयात्री कोई शरीफ इंसान है । वो उठा, उसने अपने एयर बैग से स्लीपर निकालीं और पहन कर मुझसे मुखातिब हुआ -
"एक्सक्यूज मी मिस,  मै ज़रा टीसी को देखने जा रहा हूँ, क्या आप मेरे सामान का ध्यान रखेंगी? "
"जी" मैने सिर हिलाया , वो चला गया । ट्रेन चल रही थी, बाहर खेत में औरतें काम करते दिख रही थीं । बारिश के बाद मौसम कितना सुहाना हो जाता है, बंजर ज़मीन पर हरी-हरी दूब की चादर बिछ गयी थी, जेठ की गर्मी से पेड़ों के थके-मुरझाए पत्तों में मानो सावन की बूँदें प्राणवायु फूंक देती हैं । धुले-धुले से साफ़ चमकते पत्ते हवा में झूम-झूम के मानो सावन को धन्यवाद दे रहे हों । मै मन्त्र मुग्ध प्रकृति के इस बदले स्वरूप को आँखों ही आँखों पी रही थी ।
"धन्यवाद मिस, मैने आपको तकलीफ दी ।" कहते हुए वह युवक वापस आ गया ।
"इट्स ओके" मैने कह कर साड़ी का पल्ला ठीक किया ।
"बाय द  वे, आप कहाँ जा रही हैं?"
"लखनऊ" संक्षिप्त सा उत्तर दे कर मै  पुनः बाहर देखने लगी । मै  नहीं चाहती थी कि बातों का सिलसिला आरम्भ हो, वो भी तब जबकि केबिन में मै  अकेली थी । अभी दोपहर के बारह ही बजे थे और ट्रेन शाम को छह बजे लखनऊ पहुँचती थी । मैंने एयर बैग से "शिवानी" का "कस्तूरी-मृग" निकला और पढ़ने लगी । मुझे लगा कि  शायद वह युवक मुझे ही घूर रहा है । यह शक्ति शायद ईश्वर ने नारी को ही प्रदान की है कि आँखों से बिना देखे भी वो दूसरों की नज़रें महसूस कर सकती है कि वे उसे देख रही हैं । मैंने नज़रें किताब से उठायीं, मेरा अनुमान सही था, वह मुझे ही देख रहा था, उसने तुरंत नज़रें चुरा कर खिड़की के बाहर जमा दीं । मुझे भी कुछ घबराहट हो आई । दिखने में तो संभ्रांत मालूम दे रहा था, किन्तु किसी के मन में क्या है, कौन जाने !
क्या करूं ? सोच कर मै विचलित हो उठी । ट्रेन धड़धडाती हुयी चली जा रही थी । मैंने पर्स से अपना मोबाइल फोन निकला लेकिन यहाँ जंगल में कहाँ नेटवर्क मिलता ! तभी पैन्ट्री कार वाला ऑर्डर लेने आ गया ।
"मैडम, लंच लेंगी?"
"नहीं", कह कर मै  चुपचाप फिर किताब पढ़ने लगी । चलते वक़्त माँ ने खाना रख दिया था कि  बरसात का मौसम है, बाहर कुछ मत खाना, तब हँसते हुए मैंने माँ से पूछा, "और माँ, लखनऊ में तीन दिन क्या करुँगी?"
माँ चुप रही, कुछ ना बोली । मेरे मना करने के बावजूद उन्होंने मठरी, खुरमे, चिवड़ा , बेसन के लड्डू  व परांठे, सब्जी, अचार सब कुछ रख दिया था ।
"देख नैना, ये सब तेरे खाने के लिए दे रही हूँ, बहुत मेहनत लगती है यह सब बनाने में । सब बाँट मत आना ।"
"माँ, तुम क्यों इतनी मेहनत करती हो? अरे दिल्ली में आजकल हर चीज़ रेडीमेड मिलती है, बाज़ार से क्यों नहीं ले आती?"  मैंने कहा ।
"हाँ, अब यही तो रह गया है कि  मठरी और खुरमे भी बाज़ार से लाये जाएँ । हमारी सास को पता लगता तो बेचारी और दस बरस पहले परलोक सिधार जातीं । अरे, अब तो अचार तक बाजार में मिले है, लेकिन क्या वो स्वाद बाज़ार में मिल सकता है जो घर के अचार में होता है? तुम्हारे बाज़ार के अचार देखे हैं मैंने, लाल-लाल तेल में अजीब सी बू लिए होते हैं । ना हींग की महक ना सरसों के तेल का तीखापन । अरे अब तो गंगाजल भी मुई प्लास्टिक की थैलियों में मिले है , राम-राम-राम  क्या ज़माना आ गया है।"
माँ का जब दोनों ज़माने में अंतर करने का सिलसिला शुरू होता तो वे इस नए ज़माने को जी भर के कोसतीं ।
"लंच कब सर्व करोगे?" अचानक मेरे ख्यालों को विराम लग गया | उफ़, इतनी देर से ये महाशय पैन्ट्री बॉय से गप्पें मार रहे थे |
"साहब 1:00  बजे, अगर जल्दी चाहिए तो जल्दी भी मिल जायेगा |"
"अरे नहीं, 1:30 बजे चलेगा । लखनऊ कब आएगा?"
"साहब, ट्रेन का टाइम तो 6:00 बजे शाम का है, अगर लेट नहीं हुई तो ।"
मुझे चाय पीने की इच्छा हो रही थी , मैने उस लड़के से पूछा -"क्यों , चाय मिलेगी?"
"जी मैडम, जरुर मिलेगी, साथ में कुछ लेंगी क्या? सैंडविच वगैरह?"
"नहीं, बस चाय ले आओ" मैने कहा ।
"सुनो, एक चाय मेरे लिए भी , और बढ़िया बनवाना , स्टेशन छाप नहीं ।" उस युवक ने कहा ।
"जी साहब, अभी लाता हूँ ।" पैन्ट्री बॉय चला गया ।
"मौसम काफी अच्छा है, है ना?" वो मुझसे कह रहा था ।
"हूँ " मैने हुंकारा भरा ।
"मै भी लखनऊ जा रहा हूँ । आप लखनऊ में रहती हैं?"
"जी नहीं, दिल्ली" मैने रूखे स्वर में जवाब दिया ।
"अरे वाह, मै भी दिल्ली में रहता हूँ, दिल्ली में आप कहाँ रहती हैं?"
उफ़, ये तो पीछे ही पड़ गया ।
"द्वारका" मैने फिर संक्षिप्त सा उत्तर दिया । लेकिन वो भी कम वाचाल नहीं था ।
"मै गुड़गाँव में रहता हूँ, एक ऑटोमोबाइल कंपनी में इंजीनियर हूँ । द्वारका से गुड़गाँव बहुत पास है । आप क्या करती हैं?"
मै झुंझला उठी, इससे तो मै अकेली ही भली थी , इतना बोलने वाला सहयात्री, उफ़ ।
"जी, मै गवर्नमेंट कॉलेज में लेक्चरर हूँ ।"
"वाओ, ग्रेट । क्या विषय है आपका?"
"बॉटनी, वनस्पति शास्त्र ।"
"ओह, मतलब फूल-पत्तियाँ, बगीचे । तभी आप खिड़की से बाहर इतने ध्यान से जंगल को देख रही थीं, जरुर कुछ स्टडी कर रही होंगी ।" कह के वो मुस्कुराया । मन में आया उसे अभी कस के डाँट  लगा दूं ताकि बाकी वक़्त वो एक शब्द बोलने का साहस ना कर सके, लेकिन मै चुप रही, तभी पैंट्री बॉय चाय ले आया, साहब भला कैसे चुप रहते ! फिर शुरू हो गए उसके साथ ।
"क्या नाम है तुम्हारा?"
"मोहन सिंह"
"पढ़े-लिखे हो?"
"साहब, आठवीं फेल हूँ ।"
"अरे, तो यूँ कहो ना कि सातवीं पास हूँ, फेल का सर्टिफिकेट दिखने की क्या ज़रूरत है? कहाँ के रहने वाले हो?"
साहब मै तो ट्रेन में घूमता-फिरता रहता हूँ, कोई ठिकाना नहीं है, माँ बाप बिहार के बेगू-सराय में रहते हैं ।
"ठीक है, जाओ । पैसे अभी दें क्या?"
"नहीं साहब, लंच के साथ ही दे देना ।"
"सुनो," मैने उसे पुकारा ।
"मेरी चाय के कितने हुए?"
"जी, पाँच रुपये"
"अरे, रहने दीजिए ना प्लीज़ । मै लंच के वक्त इकट्ठे दे दूँगा ।" वो महाशय फिर बोले ।
"नहीं, मेरे पास छुट्टे भी हैं ।
ये लो।" कहते हुए मैने पर्स से पाँच रुपये का सिक्का निकाल कर उसे दे दिया । घड़ी देखी , अभी 1:00 बजा था । मैने फिर किताब पर नज़रें गड़ा लीं और खिड़ की से टिक कर पढ़ने लगी।

प्रभात ने अपने सामने बैठी हुयी लड़की को ध्यान से देखा । वो निहायत ही खूबसूरत और नाज़ुक सी थी, लगता था जैसे कम बोलती थी लेकिन उसकी बड़ी-बड़ी मृगनयनी आँखें बगैर कुछ बोले ही बहुत कुछ कहने की क्षमता रखती थीं । बड़ी नज़ाकत से उसने शिवानी का उपन्यास अपनी लंबी तराशी हुई उँगलियों में थाम रखा था । पलकें लंबी-लंबी और कुछ ऊपर को मुड़ी हुई थीं, जैसे अक्सर पेंटिंग्स में होती हैं, माथे पर छोटी सी नीली बिंदी लगी हुई थी । शिफॉन की हलके नीले-फिरोजी से रंग की साड़ी पहने थी । गुस्से की ज़रा तेज मालूम होती है, चाय के पैसे देने  के प्रस्ताव पर तुनक उठी थी, सोच कर वो मन-ही-मन मुस्कुराया । कितनी सुन्दर लड़की है, 25-26 साल की होगी, इसके स्टुडेंट्स तो पढ़ाई छोड़ कर इसे ही देखते रहते होंगे, अपनी इस सोच पर उसे हँसी आ गई , तभी नैना ने उसे देखा, वो हड़बड़ा  गया ।
 "जी, दरअसल मै सोच रहा था कि आप तो खुद ही स्टूडेंट लगती हैं, कॉलेज के वाचाल छात्र-छात्राएं आपसे कैसे संभल पाते होंगे?"
आपसे तो कम ही वाचाल है वो सब । जी में आया नैना कह दे, लेकिन फिर वह बोली, -"जी नहीं, मेरी क्लास में किसी की हिम्मत नहीं कि वो कोई शरारत कर सके । मेरी क्लास में फुल अटेंडेंस होती है । सभी आते हैं और चुपचाप पढ़ते हैं ।"
"जी हाँ, ये तो मै मानता हूँ, आपकी क्लास में फुल अटेंडेंस अवश्य होती होगी ।" कह के प्रभात शरारत से मुस्कुराया ।  अप्रत्यक्ष रूप से यह मेरी प्रशंसा थी किन्तु मैने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया ।
"बाय द वे मिस, मेरा नाम प्रभात है, प्रभात शुक्ला । एक मीटिंग के सिलसिले में लखनऊ जा रहा हूँ, पहली बार जा रहा हूँ, सोच रहा हूँ  शुक्रवार-शनिवार को मीटिंग अटेंड करूँगा और सन्डे को लखनऊ घूमा जाये, देखें नवाबों की नगरी कैसी है ! आप किस सिलसिले में लखनऊ जा रही हैं?"
मैंने एक लम्बी सांस ली और कस्तूरी मृग को बंद करके किनारे रख दिया , सोचा ना तो ये पढ़ने देगा न ही चैन से बैठने।
"मेरा नाम सुनयना जोशी है । लखनऊ में एक सेमीनार में अपने कॉलेज को रिप्रेजेंट करने जा रही हूँ ।"
"ओह आप भी ब्राम्हण  हैं?"
"हूँ" मैंने हुंकारा भरा ।
"लखनऊ में कहाँ रुकेंगी?"
ये क्यों पूछ रहा है? क्या ये भी उसी होटल में रुकेगा !!! मन ही मन मैंने सोचा ।
"वहाँ  मेरे एक परिचित हैं, उन्हीं के घर रुकुंगी ।" मैंने झूठ बोला, जबकि हकीकत ये थी कि मिसेज़ कौल के भाई यहाँ आर्मी में मेजर हैं, वे मुझे स्टेशन पे रिसीव करने आने वाले थे और होटल भी उन्हीं ने बुक किया था जहाँ मुझे रुकना था । वे स्वयं भी तीन महीने पहले ही असम से ट्रांसवर हो कर लखनऊ आये थे। अभी उनका परिवार असम  में ही था । मै  उनसे दो-तीन बार मिसेज़ कौल के घर पर ही मिल चुकी थी ।हमारे घर पास-पास ही थे तो आना-जाना लगा रहता था । मिसेज़ कौल ने ही अपने भाई को मेरे लखनऊ प्रवास की ज़िम्मेदारी सौंप दी थी ।
"क्या सोचने लगीं आप? वैसे आपका नेचर ही ऐसा है क्या, कम बोलने वाला?"
"जी नहीं, लेकिन मै  जल्दी मिक्स अप नहीं होती ।"
"कोई बात नहीं, अभी तो पांच घंटे का साथ है, तब तक उम्मीद है आप बात करने लगेंगी ।" वह मुस्कुराया ।
मै  मुस्कुरा दी । शुरू-शुरू में वो मुझे जितना बुरा लग रहा था, उतना बुरा वो था नहीं , बल्कि  मै निश्चिन्त हो गयी कि केबिन में अकेले उस युवक से मुझे कोई खतरा नहीं । मैंने खिड़की से बाहर नज़र डाली, -
 "अरे इन्द्रधनुष" मै  सम्मोहित सी आश्चर्यमिश्रित मुद्रा में खिड़की पे दोनों हाथ रखे सात रंगों में गुंथे प्रकृति की सुन्दरता में लगे चार चाँद के सामान , एक छोर से दूसरे छोर तक फैले इन्द्रधनुष को निहार रही थी । जब मै  छोटी थी तब इन्द्रधनुष निकलने पर दादी कहती थी  - जंगल में सियार का ब्याह हो रहा है ,इसीलिए इन्द्रधनुष निकला है। आज जब मै  स्वयं विज्ञान की व्याख्याता थी तब वह तर्क बड़ा बेतुका लगता ।
नैना मंत्रमुग्ध इन्द्रधनुष को देख रही थी और प्रभात नैना को । उसके गुलाब की पंखुड़ी के सामान होंठ थोड़े से खुले थे और हलकी सी मुस्कान के बीच उसकी उज्जवल दन्त पंक्ति दिख रही थी, ठोढ़ी पर लुभावना सा गड्ढा था, गले में पतली सोने की चेन पहने थी जो उसके रंग में घुल-मिल गयी थी ।
"कितना सुन्दर है ना?"
"हाँ, बहुत ही सुन्दर ।"
"जी ???"
"मेरा मतलब, इन्द्रधनुष । जानती हैं सुनयना जी, जब मै छोटा था तब मेरी बुआ कहती थी कि जब इन्द्रधनुष निकलता है तब जंगल में सियार की शादी होती है ।"..... और वो जोर से हँस पड़ा , और मै भी । वातावरण कुछ हल्का हुआ, इतने में पैंट्री बॉय मोहन सिंह, प्रभात का खाना ले कर दरवाजे पर खड़ा हो गया ।
"सर, लंच"
"हाँ भाई, ले आओ"
एक ट्रे में फ़ॉयल पेपर में पैक्ड खाना था । उसने ट्रे बर्थ पे रख दी ।
"आइये न सुनयना जी, आप भी खाइए । कभी-कभी ट्रेन का खाना बड़ा अच्छा लगता है ।
"जी नहीं, शुक्रिया । मेरी माँ ने खाना साथ रख दिया था, उन्हें नहीं पसंद कि मै रास्ते में बाहर का कुछ खाऊं ।"
"ओह, तो लौटते  वक़्त क्या करियेगा? लखनऊ में क्या आप व्रत रखेंगी ? अरे हाँ, मै तो भूल गया था, आप तो किसी परिचित के घर पे रुकने वाली हैं, घर का खाना खायेंगी, हमारी किस्मत में घर का खाना कहाँ? कंपनी ने किसी होटल राज दरबार में कमरा बुक कराया है, वहीँ का खाना खायेंगे हम । चलिए यहाँ तो साथ खा लें अगर आपको ऐतराज़ न हो तो, वर्ना मै अकेला खाऊंगा, मुझे अच्छा नहीं लगेगा , और आपकी माता जी के हाथों का अचार भी चख लेंगे हम । आई  एम् श्योर, हर माँ की तरह उन्होंने पूड़ी-सब्जी और आम का अचार रखा होगा।"
"जी नहीं, मुझे पूड़ियाँ पसंद नहीं इसलिए माँ ने परांठे रखे हैं , उन्हें बनाने और खिलाने का बहुत शौक है । मै महज तीन दिन को लखनऊ जा रही हूँ लेकिन मेरे लाख मना करने के बाद ना जाने क्या-क्या रख दिया है ।"
मैंने एयर बैग निकाला और उसमे रखी एक बड़ी सी पॉलीथिन  निकाली । सब कुछ करीने से रखा था । पेपर प्लेट्स, प्लास्टिक की चम्मचें, पेपर नैपकिंस, छोटे-छोटे डिस्पोसेबल डब्बों में खुरमे, मठरी, नमकीन और फॉयल पेपर में परांठे व् आलू की सूखी सब्जी । मैंने सब कुछ निकाल बर्थ पर रख दिया और प्रभात से कहा -"लीजिये आप भी खाइए"
वो ख़ुशी से उछल पडा , "अरे वाह, आपकी माताजी तो सचमुच अन्नपूर्णा हैं, जंगल में मंगल करवा दिया उन्होंने, कहाँ ये ट्रेन का सड़ा खाना और कहाँ आपके छप्पन भोग ।"
मै  हंस पड़ी । "लीजिये, आप वो खाना रहने दीजिये, यही खाइए, बहुत सारा खाना है ।"  सच मे ही प्रभात ने ट्रे सरका दी । मैंने दो पेपर प्लेट्स में खाना लगाया और उसे प्लेट दे दी ।चटखारे ले ले कर तारीफ कर-कर के वो खाता रहा , लगभग सारे परांठे ख़त्म हो गए ।
"बस सुनयना जी, एक भूखे को इतना अच्छा, घर का स्वादिष्ट खाना खिलाने के लिए ईश्वर आपकी सेमीनार सफल करे ।" कहते हुए दार्शनिक मुद्रा में प्रभात ने आँखें मूँद लीं । सुनयना हँस पड़ी । उसने बची हुई सारी चीज़ें समेटी, पैक करके वापस रखीं और ठन्डे पानी की बोतल से ग्लास में पानी डाल कर प्रभात की और बढाया । उसने पानी लिया और मुंह न लगा कर ऊपर से पानी पिया । सुनयना ने भी पानी पिया, अचानक उसे ध्यान आया । उसने एयर बैग से एक स्टील का डिब्बा निकाला ।
"लीजिये , खाने के बाद स्वीट डिश "
डिब्बे में बेसन के सुनहरे लड्डू थे, जिनसे शुद्ध घी की महक आ रही थी  ।
"वाह, सुनयना जी, मुझे आपकी माताजी से मिलने आपके घर आना ही होगा । आप सोच रही होंगी, बड़ा पेटू हमसफ़र मिला है, लेकिन सच बताऊँ , अच्छा खाना मेरी कमजोरी है ।"
"...तो फिर एक और लीजिये, ये नुक्सान नहीं करेंगे, घर के बने हैं, माँ के हाथों के ।"
"अब आप इतना जोर दे रही हैं तो एक और हो जाये, लेकिन आप डाईटिंग पर हैं क्या?"
"नहीं, मुझे मीठा कुछ खास पसंद नहीं, फिर एक लड्डू तो खा ही लिया " सुनयना बोली । तभी पैन्ट्री बॉय आ गया ।
"अरे साहब, आपने अभी तक खाना नहीं खाया?"
"हमने तो खा लिया, अब ये खाना हमारी तरफ से तुम खा लेना" कहते हुए प्रभात ने पर्स से सौ का एक नोट निकाला और उसे देते हुए पूछा- "कितना हुआ?" वो आश्चर्य से मुझे व् प्रभात को देखने लगा ।
"साहब, पचपन रुपये खाने के और पाँच रुपये चाय के, कुल साठ रुपये ।" उसने जेब से चालीस रुपये निकले और प्रभात को देने लगा । प्रभात ने कहा, "रख लो, और ये खाना जरुर खा लेना।"
इतनी ज्यादा टिप की उसे बिलकुल उम्मीद नहीं थी, खुश हो कर झुक कर उसने सलाम ठोंका और बोला, -
"साहब, अभी 2:00  बजे हैं, 4:00  बजे आपके और मैडम के लिए बढ़िया अदरक वाली चाय ले आऊं ?"
प्रभात जोर से हँस पड़ा, मै मुस्कुरा दी ।
"हाँ, जरुर ले आओ मोहन सिंह जी ।" पैन्ट्री बॉय चला गया ।
प्रभात खिड़की से टिक कर बैठ गया और उसने अपने पैर बर्थ पर लंबे फैला लिये । मै भी सीट पर पैर लटकाए-लटकाए थक गयी थी, मैने भी धीरे से साड़ी के अंदर ही अंदर घुटने मोड़ कर पैर बर्थ पर सिकोड़ लिए और आराम से टिक कर बैठ गयी । कोई स्टेशन आ रहा था, ट्रेन की गति धीमी हो गयी थी, ट्रेन खचाक से रुक गयी । हम दोनों बाहर देखने लगे । हर स्टेशन की  तरह चाय-चाय की आवाजें, खोमचे वालों की लय के साथ अपने सामान को बेचने की होड़ और  सामान ले कर भागते यात्री दिख रहे थे ।केबिन के बाहर खटखट की आवाजें हुयीं और दो यात्री अपने-अपने हाथ में सूटकेस ले कर दाखिल हुए । दोनों की उम्र लगभग ४०-४५ वर्ष के बीच रही होगी । साधारण नैन-नक्श के वो दोनों लंबे-चौड़े थे । दोनों आमने-सामने बैठ गए, एक मेरी बर्थ पे और एक प्रभात की  बर्थ पर । मुँह में पान रचाए हुए, सफारी सूट पहने हुए वो लोग मुझे पहली नज़र में ही अच्छे  नहीं लगे । दोनों ने आँखों ही आँखों में एक दूसरे से कुछ कहा और दोनों जोर से हँस पड़े । मै और सिकुड़ के खिडकी की ओर बैठ गयी और बाहर देखने लगी । ट्रेन चल पड़ी  थी । प्रभात ने अपने बगल वाले व्यक्ति से पूछा -" कहाँ तक जायेंगे?"
"हुजूर जहाँ ये ट्रेन ले जायेगी ।" और उसने ठहाका लगाया । "अरे, लखनऊ जायेंगे जी, आप लोग कहाँ जा रहे हैं?" कहते हुए उसने गर्दन घुमा कर मुझे घूरा । शायद वो समझा, हम साथ हैं ।
"हम भी लखनऊ जा रहे हैं, आप ज़रा इधर बैठ जाइए ।" कहते हुए प्रभात अपनी सीट से खड़ा हो गया, मेरी बर्थ पर बैठा व्यक्ति प्रभात की जगह बैठ गया, प्रभात मेरी बर्थ पर बैठ गया, उसने मुझे देखा, मानो कह रहा हो - घबराओ नहीं । मुझे बड़ा अजीब लगा, तीनो ही मेरे लिए अजनबी थे, फिर प्रभात ने ऐसा क्यों किया ?  प्रभात को शायद उनका आना नागवार गुजरा था । उसने उन दोनों से पूछा, - "आप लोगों का रिज़र्वेशन है?"
"नहीं भाईसाहब, टिकट है, यह क्या कम है ।"
"अरे तो आप रिज़र्वेशन वाले डिब्बे में क्या कर रहे हैं? वो भी फर्स्ट क्लास में?" प्रभात ने कुछ ऊंची आवाज़ में कहा ।
"अरे साहब, तो आपको क्या तकलीफ है? आप भाभीजी के साथ आराम से बैठिये ना" कह के वो मुस्कुराया । मैने गुस्से से तमतमा कर सिर उठाया , पैर नीचे करके चप्पल पहनी और केबिन के बाहर निकल कर टीसी को ढूंढने निकल पड़ी। वे दोनों जाहिल किस्म के लोग मुझसे बिलकुल सहन नहीं हो रहे थे, तभी सामने से पैन्ट्री बॉय मोहन आता दिखाई दिया , मैने उसे रोका, "क्यों, टीसी कहाँ मिलेंगे?"
"मैडम जी, अगले डब्बे में हैं , टिकिट चेक कर रहे हैं, आप लोग की चाय थोड़ी देर में लाता हूँ मै ।"
वो चला गया, मै चल पड़ी, अगला डब्बा सेकण्ड क्लास का था, ज्यों ही मै डब्बे में घुसी , सभी यात्री मुझे घूर के देखने लगे। मै सकपका गयी। साड़ी का पल्ला ठीक करके आगे बढ़ी, थोड़ा आगे टीसी टिकिट चेक करते मिल गए ।
"एक्सक्यूज मी"
"जी, कहिये मैडम"
मै अगले फर्स्ट क्लास के डब्बे में हूँ, लखनऊ जा रही हूँ, पिछले स्टेशन से दो लोग चढ़े हैं, और उनके पास फर्स्ट क्लास का टिकिट व् रिज़र्वेशन भी नहीं है, आप ज़रा देख लेंगे?
"चलिए" कहते हुए टीसी मेरे पीछे हो लिया । मै अपने केबिन के पास पहुंची और बाहर ही खड़ी रही । टीसी ने कहा, - आप लोग अपने-अपने टिकिट दिखाइए । प्रभात ने अपने पर्स से अपना टिकिट निकला और टीसी को दे दिया ।
"ह्म्म्म , और आप दोनों..?"
"अरे साहब, लखनऊ तक तो जाना है, अभी २-३ घंटे में आया जाता है, हम जल्दी-जल्दी में चढ़े थे ना, तो टिकिटवा  लेना ही भूल गए , चलिए कौनो बात नाहीं, अब बना दीजिए, लखनऊ के दुई ठो टिकिट ।" हँस कर पान की पीक गुटक कर वह बोला ।
"देखिये, एक तो आप के पास टिकिट नहीं है, दूसरे आप लोग रिज़र्वेशन के फर्स्ट क्लास के डब्बे में बैठे हैं । टिकिट तो मै बनाऊंगा ही, लेकिन अब टिकिट बनेगा वहां से, जहाँ  से ये ट्रेन चली है, वहाँ से लखनऊ तक का किराया देना होगा आप दोनों को, पेनाल्टी मिला कर हुए छब्बीस सौ पैनतीस रुपये । निकालिए ।"
"अरे, ये क्या अंधेर है? क्या आप इतनी लम्बी चौड़ी लिस्ट सुना रहे हैं टीसी साहब !"
"चलिए उठिए आप लोग, बाहर आइये" कहते हुए टीसी ने उन दोनों को केबिन से बाहर कर दिया, मैंने राहत की सांस ली । मै अन्दर आई, मुझे देख प्रभात जोर-जोर से हँसने लगा । मैंने प्रश्नसूचक नज़रों से उसे देखा ।
"अरे, आप तो बड़ी सीधी और सरल मालूम पड़ती हैं, लेकिन आप तो बड़ी तेज निकलीं। ऐसा ही होना चाहिए। आज की हर स्त्री को झाँसी की रानी बनने  ज़रूरत है सुनयना जी, मुझे आपका यह रूप देख कर सच मे अच्छा लगा ।"
मै  मुस्कुरा दी, तभी मोहन चाय ले आया ।
"मैडम जी, आपने जिन बिना टिकिट के दो आदमियों को पकड़वाया था न, रेलवे पुलिस ने उनको अगले डब्बे में अपने पास बैठा लिया है । वो दोनों टीसी साहब से भी बदतमीजी कर रहे थे ।"
मै चाय पीने लगी । मोहन खड़ा था, अचानक मुझे याद आया, मैंने अपना पर्स उठाया और खोलने लगी तभी प्रभात बीच में बोल पड़ा -
"नहीं-नहीं, सुनयना जी, प्लीज़, चाय तो मै पिला ही सकता हूँ ना, आपने इतना अच्छा खाना खिलाया ।"
उसने अपना पर्स खोला और पर्स से दस का नोट निकाल कर मोहन को दिया । वो चला गया । चाय काफी अच्छी  थी, इलायची की सुगंध भी आ रही थी, शायद ये प्रभात की तगड़ी टिप का असर था, वरना पैन्ट्री  की चाय ऐसी होती है मानो उबला पानी । चाय पी कर प्रभात बाहर चला गया । मैंने उठ कर केबिन का दरवाजा अन्दर से बंद कर लिया और एक भरपूर अंगड़ाई ली और लम्बी हो कर बर्थ पर लेट गयी । बहुत ही अच्छा लगा, इतनी देर बाद पैर फैलाने को मिले, मैंने आँख बंद कर लीं, लेटे -लेटे ना जाने कब आँख लग गयी । अचानक लगा कोई दरवाजा भड़भड़ा रहा है । मै  झटके से उठी कुण्डी खोलने के लिए हाथ बढ़ाया, फिर रुक गयी ।
"कौन है?" मैंने पूछा ।
"मै  वही , जिसे आपने थोड़ी देर पहले बिना टिकिट पुलिस को पकड़वाया था।
मै घबरा गयी, क्या करूँ !!!  अचानक बाहर से हँसने  की आवाज़ आई ।
"सुनयना जी, दरवाजा खोलिए, मै हूँ, प्रभात ।"
मैंने दरवाजा खोला, वो अन्दर आ गया, मेरे चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं , यह सोच कर मै सचमुच घबरा गयी थी कि मै बिलकुल अकेली हूँ और बाहर एक बदमाश किस्म का व्यक्ति खड़ा है जिसकी अभी मैंने शिकायत की थी ।
"अरे, आप तो सचमे डर  गयीं !!! बैठिये, आप तो कितनी बहादुर हैं, मेरे इतने से परिहास से घबरा गयीं? प्लीज़ बैठिये, और ज़रा पानी पीजिये ।" प्रभात ने पानी की बोतल मेरी तरफ बढ़ाई , मैंने दो घूँट ऊपर से पानी पिया और सामान्य होकर बैठ गयी ।"
"सुनयना जी, मै आपसे कुछ कहूँ ? बुरा तो नहीं मानेंगी आप?" मै फिर घबरा गयी, अब इसे क्या हो गया !!!क्या कहना चाहता है ये? मैंने थूक गटक कर कहा, -
"जी, कहिये"
"अरे , घबराइये मत । मै  जो कहने जा रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनिए, वह आपके भले के लिए है। आप नए ज़माने की लड़की हैं, पढ़ी-लिखी, समझदार और अच्छी नौकरी करने वाली । आपको काम-काज के सिलसिले में बाहर आना-जाना भी पड़ता है, अपने जीवन का एक उसूल बना लीजिये कि  कितनी भी कठिन परिस्थिति हो, आप घबरायेंगी नहीं,, क्योंकि घबराहट में आधा दिमाग तो काम ही नहीं करता । हमें हर परिस्थिति में संयम बरतना चाहिए । कुछ देर पहले आपने कितनी निडरता से उन बिना टिकिट वाले बदमाशों को पकड़वाया था , यदि मेरी जगह अभी फिर से वो बदमाश भी होते तब भी आपको डरने की ज़रूरत नहीं थी, आपका केबिन अंदर से लॉक था , दरवाज़ा थोड़े ना तोड़ देते । वो लोग होते, तब भी आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाते । आप शायद थक गयीं थीं बैठे-बैठे , मेरे जाने के बाद आपने एक झपकी लेली है शायद , है ना? आप आराम से ऊपर की बर्थ पर लेट जाइए । अभी लखनऊ आने में डेढ़ घंटा है, या चढ़ने में तकलीफ हो तो आप नीचे लेट जाएँ, मै ऊपर चला जाता हूँ ।"
"जी नहीं, मै ऊपर ही चली जाती हूँ ।'' मै खड़ी हुयी, ऊपर की बर्थ पे चादर बिछायी और किनारे लगे फुट-रेस्ट पर पैर रख के धीरे से ऊपर की बर्थ पे बैठ गयी । साड़ी समेट के अन्दर-ही-अन्दर पैर लम्बे किये और साड़ी से खुद को लपेट कर आँखें मूँद कर सुनयना लेट गयी । ना जाने कब आँख लग गयी । उधर प्रभात ने भी बर्थ पे पैर फैलाए और सर के नीचे हाथ मोड़ कर तकिया सा बना कर लेट गया ।
लगभग एक घंटे बाद सुनयना की नींद खुली उसने कलाई पर बंधी घड़ी पर नज़र डाली । शाम हो चुकी थी, साढ़े पाँच बजे थे । उसने नीचे झाँक कर देखा, प्रभात बेखबर नींद में डूबा हुआ था । धीरे से उसने लोहे के हैंडल को पकड़ा और फुट रेस्ट पे पाँव रख कर नीचे उतर गयी । नीचे उतर के उसने चुपचाप साड़ी ठीक की, अपना पर्स उठाया और बाथरूम की ओर चल पड़ी । रास्ते में वही पैंट्री बॉय मिला ।
"मैडम जी, आधे घंटे में लखनऊ आ जाएगा ।"
"सुनो, दो चाय ले आओगे ? लेकिन ज़रा जल्दी ।"
"जी मैडम, पाँच मिनट में लाया ।" और वो चला गया ।
सुनयना ने बाथरूम के वाश बेसिन में मुँह धोया । पर्स से कंघा निकाल कर बाल ठीक किये । मेकअप वो कभी करती ना थी , साड़ी ठीक की और वापस केबिन में आ गयी ।
तभी प्रभात ने करवट ली और उसकी आँख खुल गयी ।
"अरे टाइम क्या हुआ है, लगता है मै खूब सोया । ये आपकी माताजी के खाने का असर है ।" वो मुस्कुराया ।
सुनयना भी मुस्कुरा दी । प्रभात ने देखा, कुछ देर सो लेने से उसकी आँखें और भी बड़ी और नशीली हो गयीं हैं, उनमे लाल डोरे स्पष्ट दिखाई दे रहे थे , वो एकदम फ्रेश और पहले से ज़्यादा खूबसूरत दिखाई दे रही थी ।
"आप फ्रेश हो जाइए, मैंने चाय आर्डर की है । लखनऊ आने वाला है ।"
"अरे वाह, ये आपने बड़ा अच्छा काम किया, मै अभी आया ।''
प्रभात चला गया । सुनयना ने फिर केबिन का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया । उसने ऊपर की बर्थ से चादर समेट कर तह लगा कर उसे बैग में रखा । अपना एयर बैग और सूटकेस दोनों उठा कर उसने नीचे की बर्थ पर कोने में रख दिए । तभी दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आई ।
 "कौन है?''
"चाय मैडम जी ।''
सुनयना ने दरवाज़ा खोला, चायवाले के साथ ही पीछे-पीछे प्रभात भी आ गया । उसने पर्स से दस का नोट निकाल कर चायवाले को दिया और बर्थ पर बैठ गया । दोनों चाय पीने लगे । चाय पी के थर्माकोल के ग्लास फेंक दिए । प्रभात ने अपना पर्स निकाल कर उसमे से अपना विजिटिंग कार्ड निकाला और सुनयना की तरफ बढ़ाया और बोला, " सुनयना जी, ये मेरा कार्ड है, कभी मेरे घर अवश्य आइये । अपनी माताजी को भी लाइयेगा ।"
"जी, ज़रूर ।'' मैंने कार्ड हाथ में ले कर पर्स में रख लिया ।
बरसात के दिन थे, शाम को छ बजे ही हल्का धुंधलका हो चला । दूर लखनऊ शहर दिख रहा था । मै बाहर देख रही थी , सोच रही थी फर्स्ट क्लास में सफ़र करना तो बहुत ही बुरा है, इससे बेहतर तो सेकण्ड क्लास है, पचास लोग आस-पास तो होते हैं । आज यदि प्रभात जैसा शरीफ सहयात्री ना होता तो क्या होता ! माँ सुनेगी तो घबरा ही जाएगी, इसीलिए वो हमेशा एसी में रिज़र्वेशन के पीछे पड़ी रहती हैं कि कम-से-कम वहां संभ्रांत लोग तो होते हैं । मैंने कहा था, "माँ, एसी में नहीं हुआ तो क्या हुआ, ट्रेन तो वही है, एसी तो फिजूलखर्ची ही है ।''
"तू क्या कम कमाती है ? अरे जो कमाती है खुद के ऊपर ही खर्च किया कर । तेरे बाबूजी मेरे लिए इतना कर गए हैं कि कभी किसी के आगे हाथ ना पसारना पड़े , फिर हीरे जैसा बेटा है मेरा, बेचारा गुजरात में मीठी दाल-सब्जी और ढोकले खा कर दिन गुज़ार रहा है । तेरी शादी हो जाए तो मै भी उसके पास जाऊं ।"
माँ को सुकुमार पे हमेशा तरस आता था । वो ओएनजीसी में इंजीनियर था । एक बार मै और माँ उसके पास एक हफ्ते के लिए गए थे, हम ऑफिस की कैंटीन में ही खाना खाते थे, खाना बहुत अच्छा होता था । सभी बैचलर्स और कुछ परिवार के वहाँ होने के बावजूद वहीँ खाना खाते थे । माँ से मैंने कहा था, '' कुमार को इतना अच्छा खाना मिलता है और तुम यूँ ही उसकी फ़िक्र करती हो । "
"अरे , ये कोई खाना है भला ? दाल में मीठा, सब्जी मीठी, हर चीज़ में शक्कर डली हुयी ।''
मै और सुकुमार हँस पड़े ।
"दीदी , मम्मी को किसी और के हाथ का खाना पसंद आ सकता है भला ? हमारी माँ वर्ल्ड की सबसे अच्छी कुक हैं । क्यों माँ ? कहते हुए  उसने लाड़ से माँ के गले में हाथ डाला ।
"लीजिये, लखनऊ आ गया । ट्रेन एकदम राईट-टाइम है ।"
मै चौंकी । मैंने बाहर देखा । ट्रेन प्लेटफार्म पर आ रही थी । अचानक मेरा मोबाइल बजा । मैंने पर्स से मोबाइल निकाला । घर से फोन था ।
"हेलो माँ, हाँ माँ, पहुँच गयी, बस ट्रेन रुकने ही वाली है प्लेटफ़ॉर्म पे । हाँ,  मै आपसे वहां पहुँच कर बात करती हूँ, हाँ माँ, खा लिया था । अभी फोन बंद करती हूँ ।"  प्रभात मुस्कुरा रहा था ।
 "लड़कियों की कितनी फ़िक्र होती है ना माँ को, आपने बताया नहीं उन्हें कि आपने तो कुछ खाया ही नहीं, सब कुछ मुझे खिला दिया ।" मै मुस्कुरा दी । ट्रेन रुक गयी ।
"अच्छा सुनयना जी, आपके साथ सफ़र अच्छा कट गया । आप लोग हमारे घर ज़रूर आइये । लाइए मै आपका सामान उतार देता हूँ । "
"नहीं-नहीं, मै उठा लूँगी ।"
"अरे तकल्लुफ रहने दीजिये ।" प्रभात ने जूते के फीते बांधे , स्लीपर अपने एयर बैग में रखीं और बैग कंधे में टांग लिया और एक हाथ में मेरा सूटकेस व् दूसरे कंधे पर मेरे बार-बार मना करने के बावजूद टांग लिया ।
वो आगे चल रहा था, मै उसके पीछे । हम ट्रेन से उतरे । मेरा मोबाइल फिर बजा ।
"हेलो, मै मेजर मल्होत्रा बोल रहा हूँ । सुनयना जी , आप कहाँ हो ?" दूसरी ओर से आवाज़ आई ।
"जी, मै अभी प्लेटफ़ॉर्म पे हूँ, फर्स्ट क्लास की बोगी के सामने, एस - 1  के बाहर ।
" आप वहीँ रहिये, मै वहीँ पहुँच रहा हूँ ।"
"जी " फोन कट गया ।
"लगता है आपके होस्ट आ गए हैं, चलिए , मै भी चलता हूँ, नाईस मीटिंग यू । बाय । "
प्रभात पलट के चला गया । मैंने अपना सामान किनारे खिसकाया और खड़ी हो गयी । सामने से मिसेज़ कौल के भाई आते दिखे । मैंने मुस्कुरा कर अभिवादन किया ।
"नमस्ते "
"नमस्ते जी, कोई तकलीफ तो नहीं हुयी रास्ते में ? ट्रेन तो राईट टाइम है । "
"जी, बिलकुल नहीं । "
"आपकी सेमीनार यूनिवर्सिटी में है, वहाँ आस-पास तो कोई होटल है नहीं, फिर भी जो वहाँ से सबसे करीब होटल है , वहाँ मैंने आपका रूम बुक कर दिया है । काफी अच्छा होटल है, कोई भी परेशानी हो तो आप मुझे तुरंत कॉल कर दीजिएगा । क्या करूँ, मुझे अच्छा नहीं लग रहा है कि आप अकेली हो कर होटल में रुकें , लेकिन मै खुद भी अभी होस्टल में रह रहा हूँ । लवली यहाँ होती तो आपको कभी होटल नहीं जाने देता ।"
"नहीं-नहीं भाईसाहब, आपने मेरे लिए इतनी तकलीफ की, ये क्या कम है ! मै होटल में मैनेज कर लूँगी ।"
"अरे इसमें तकलीफ की क्या बात है !"
हम बातें करते-करते स्टेशन के बाहर आ गए । बाहर उनकी कार खड़ी थी । ड्राइवर ने उतर कर मेरा सामान ले कर डिक्की में रखा और अदब से पीछे का दरवाज़ा खोल दिया । हम दोनों पीछे की सीट पर बैठ गए । कार की खिड़की पे सफ़ेद रंग के परदे चढ़े हुए थे, मैंने अपनी खिड़की का पर्दा खिसकाया और बाहर देखने लगी । देखा प्रभात एक टेक्सी में बैठ रहा था, उसकी टेक्सी भी चल दी । मै मेजर साहब से हलकी-फुलकी बातें करने लगी । लगभग 20 मिनट बाद कार एक बड़े से होटल के पोर्टिको में रुकी । हम उतरे । ड्राइवर ने मेरा सामान निकाला , मेजर साहब आगे चले और हम उनके पीछे । रिसेप्शन पे पहुँच कर मेजर साहब ने मेरी बुकिंग बतायी और कमरा नंबर 501 की चाभी ले कर होटल के एक अटेंडेंट के साथ वो आगे चले । आगे चल कर उस व्यक्ति ने लिफ्ट का दरवाज़ा खोला । हम लिफ्ट से ऊपर पहुंचे । कमरा नंबर 501 के सामने पहुँच कर अटेंडेंट ने दरवाज़ा खोला और सामान किनारे रख दिया ।
"सुनो" , मेजर साहब ज़रा कठोर आवाज़ में बोले - "ये मेरी बहन हैं, तीन दिन यहाँ रहेंगी, इन्हें कोई परेशानी ना होने पाए ।"
"जी, सर, आप चिंता ना करें । " उसने खिड़की में लगे मोटे परदे हटा दिए । पंखा ऑन करके वह बोला," मैडम, मै अभी पानी ले कर आता हूँ, चाय लेंगे आप लोग ?"
"हाँ भाईसाहब, आप भी चाय पी कर जाइए ।"
"ठीक है, चाय ले आओ ।" उन्होंने आदेश दिया। "आप साथ में कुछ लेंगी , सैंडविच, टोस्ट वगैरह ?"
"जी नहीं" मैंने उत्तर दिया । मै फ्रेश होना चाहती थी, लखनऊ में काफी गर्मी थी । बरसात का मौसम था इसलिए उमस के साथ गर्मी भी थी । मै संकोचवश बैठी रही । अचानक मेजर साहब बोले -
"आप फ्रेश हो जाइए, तब तक मै टीवी देखता हूँ ।"  मुझे मानो मन की मुराद मिल गयी, मै झटपट उठी और बाथरूम में गयी । वॉशबेसिन का नल चलाकर चेहरे पर देर तक ठन्डे पानी के छींटे मारती रही, फिर चप्पल उतार कर पैरों में पानी डाला । हैंगर पे टंगा सफ़ेद रंग का मोटा तौलिया उठाया और थपथपा के चेहरा पोंछा । तौलिया टांग ही रही थी कि उसके कोने में लाल रंग के साटन के धागे से कढ़ाई किये हुए नाम पर नज़र अटक कर रह गयी -"राज दरबार" । जैसे कुछ याद आया , क्या ये होटल राज दरबार है ! उफ़, यहीं तो प्रभात की भी बुकिंग थी, यही नाम तो बताया था उसने । मै घबरा गयी कि उससे कहीं सामना ना हो जाए । वो क्या सोचेगा मेरे बारे में कि मैंने उससे झूठ बोला । अब क्या होगा ! इसी उधेड़बुन में मै बाहर निकली । चाय आ चुकी थी । मेजर साहब इंतज़ार कर रह थे ।
"ओह, सॉरी ।"
"कोई बात नहीं, लेट मी प्रिपेयर टी इन द ऑनर ऑफ़ ब्यूटीफुल फीमेल" कह के वो हँस पड़े ।
मैंने सकुचा के नज़रें झुका ली । उन्होंने चाय बनायीं ।
"शुगर ?"
"एक चम्मच "
"ओके"
"ये लीजिये जी "
हम दोनों चाय पीने लगे । मै अनमनी सी अपने झूठ के बारे में सोच रही थी । मैंने पुष्टि के लिए पूछा -
"ये होटल "राज दरबार" है ?"
"जी हाँ, इट्स अ वैरी गुड होटल । आपको शिकायत का कोई मौका नहीं मिलेगा । यहाँ के मैनेजर से मेरी अच्छी पहचान है । यहाँ अक्सर हमारी ऑफिशियल पार्टीज़ होती रहती हैं ।" मेजर साहब ने चाय ख़त्म की और उठ खड़े हुए । "अच्छा जी, अब मै चलता हूँ, कोई काम हो तो मेरा नंबर आपके पास है ही, बिलकुल संकोच मत कीजिएगा ।"
"जी शुक्रिया ।" मैंने दरवाज़े तक उन्हें विदा किया और नमस्ते कर के अन्दर आ गयी । वे चले गए । मैंने दरवाज़ा अन्दर से लॉक किया । खिड़की के परदे बंद किये । और लाईट जला ली । एयर बैग खोल कर मैंने बसंती रंग का हल्का-फुल्का सा कॉटन का सूट निकाला , साड़ी उतार के पलंग पर डाल दी और बड़ी देर तक बाथरूम में नहाती रही । काफी हल्का महसूस हो रहा था । बाहर निकल के कपड़े पहने, मेरे लम्बे बालों को सूखने में वक़्त लगेगा , सोच कर बालों में तौलिया लपेटा और बिस्तर पे पड़े कपड़े तह लगा कर एयर बैग में रख दिए । तभी दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आई ।
"कौन ?"
"मैडम, वेटर "
मैंने दरवाज़ा खोल दिया, वेटर ने चाय के खाली कप, केटली आदि समेटी और बोला, "मैडम, ठंडा पानी जग में रख दिया है । रूम सर्विस का नंबर 01 है । कुछ और चाहिए मैडम ?"
"नहीं, सुनो रेस्टारेंट कहाँ है ?"
"मैडम, नीचे ग्राउंड फ्लोर पे । चाहें तो आप लॉन में भी खाना माँगा सकती हैं या रूम में भी ।"
"मै रूम में ही खाना खाऊंगी ।"
"ओके मैडम ।" वेटर चला गया । मैंने दरवाज़ा बंद कर के घड़ी पर नज़र डाली । रात के आठ बजने वाले थे । मैंने सिर से तौलिया निकाल  कर बाल फैला लिए ताकि वो सूख जाएँ । पर्स से छोटी सी बिंदी निकाल कर लगा ली । तभी माँ की याद आई, मोबाइल निकाल कर उन्हें कॉल किया व हाल-चाल बताये फिर मिसेज़ कौल को कॉल किया और आँखें बंद करके लेट गयी । दिन भर के सफ़र ने बैठे-बैठे थका दिया था । लेटने पर अच्छा लगा । मेरी आँख लग गयी ।
"ख़ट-खट खट-खट" शायद कोई दरवाज़ा खटखटा रहा था । मै उठी, मैंने टाइम देखा, साढ़े नौ बजने वाले थे ।
बाप रे, कैसी गहरी नींद थी, डेढ़ घंटे तक सोती रही । मैंने पूछा - "कौन ?"
"वेटर"
मैंने उठ कर दरवाज़ा खोला, बाहर वेटर खड़ा था - "मैडम, डिनर का ऑर्डर कर दीजिये"
"हम्म्म" '  मैंने टेबल पर रखा मेन्यू उठाया और सिर्फ दाल-चावल व् दही का ऑर्डर किया । वेटर चला गया । मैंने टीवी चलाया और समाचार सुनने लगी । कुछ देर बाद किसी ने दरवाज़ा खटखटाया । मैंने दुपट्टा उठा कर डाला, सोचा "खाना जल्दी ले आया ये ", दरवाज़ा खोला और काटो तो खून नहीं । सामने प्रभात खड़ा था ।
"आप ?"
" जी हाँ, मै । वही आपका ट्रेन वाला पेटू सहयात्री । याद है या भूल गयीं आप?"
मुझे कुछ नहीं सुझा, मै चुपचाप खड़ी थी ।
"अन्दर आ जाऊं ? या जाऊं ?"
"ओह, आइये ना ।" मैंने दरवाज़ा पूरा खोल दिया और खुला ही छोड़ दिया । रात को साढ़े नौ बजे उसका यूँ कमरे में चले आना अजीब लगा ,लेकिन जैसे उसे कोई फर्क ही ना पड़ा हो ,वो वैसे ही मस्तमौला था जैसे ट्रेन में था ।
"आपके परिचित का घर तो काफी बड़ा है, हमें भी ठहरने को जगह मिल गयी यहाँ ।"
मै एकदम चुप थी, झूठ पकड़े जाने पर जो स्थिति होती है, बस वही थी । मैंने नज़रें झुका लीं ।
"सुनयना जी, आप परेशान क्यों हैं? आपने ठीक ही किया था, कभी किसी अजनबी पर ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए । ये मेरा दूसरा सबक है । अरे, हमारी जान-पहचान ही कितनी है ? महज कुछ घंटे पुरानी । आप अपनी जगह बिलकुल सही हैं, अब आपका सहयात्री ही इतना चिपकू है या यूँ कहिये कि उसकी किस्मत इतनी बुलंद  है तो इसमें आपका क्या दोष ?"  कह कर वो हँसा ।
"प्रभात जी, आएम सॉरी , मैंने आपसे झूठ कहा था", बिना लाग-लपेट के मैंने अपनी गलती स्वीकार कर ली ।
"कोई बात नहीं, आपको सॉरी कहने की बिलकुल भी ज़रूरत नहीं , मैंने कहा ना ! दरअसल तीन कमरे छोड़ कर मेरा कमरा है, जब आप अपने कमरे में जा रही थीं तब मैंने आपको देखा था , इसीलिए मिलने चला आया । अब आप आराम कीजिये, मै चलता हूँ, कल से आपकी सेमीनार भी तो है और मेरी भी मीटिंग है । आज दिन भर के सफ़र ने थका दिया । नींद अच्छी आएगी । आप आराम कीजिये, गुडनाईट ।" वो उठ खड़ा हुआ ।
"जी, गुडनाईट "
वो चला गया । मै बहुत ही ख़राब महसूस कर रही थी, कभी भी झूठ बोलने की आदत नहीं रही, एक छोटा सा झूठ बोला भी तो पकड़ा गया, वो भी एक अजनबी से । क्या सोच रहा होगा वो.…।
मै अनमनी सी टीवी के सामने बैठ गयी, इतने में मोबाइल बजा, माँ का कॉल था । माँ को विस्तारपूर्वक सब बताया सिर्फ प्रभात के बारे में कुछ नहीं बताया । माँ आश्वस्त हो गयी, मिसेज़ कौल के भाई के बारे में जान कर । कुछ हिदायतें दे कर माँ ने कॉल काट दिया । कुछ देर में वेटर खाना ले कर आ गया । मैंने खाना खाया, कुछ देर टीवी देखा । वेटर पुनः आ कर खाने के बर्तन ले कर चला गया । मैंने बालों को लपेट कर ढीला सा जूड़ा बनाया । कपड़े बदल कर नाइटी पहनी और नाईट बल्ब जला कर लाईट व् टीवी ऑफ़ कर दिया । बिस्तर पे लेट कर मै सोचने लगी कि कल सेमीनार में क्या होगा? हालाँकि मेरी तैयारी अच्छी थी, नोट्स भी बना कर लायी थी । जिस विषय पर मेरा व्याख्यान था, वह मैंने अच्छी तरह तैयार कर लिया था , फिर भी दिल्ली से बाहर पहली बार कोई सेमीनार अटेंड कर रही थी, इसलिए थोड़ी घबराहट थी । इन्ही विचारों में उलझे ना जाने कब आँख लग गयी ।
इधर प्रभात अपने कमरे में बिस्तर पे लेटे-लेते सुनयना के बारे में सोच रहा था ।
"कितनी खूबसूरत है, मानो ओस की बूँद, जो गुलाब की पंखुड़ी पर अपनी खूबसूरती बिखेरती रहती है । रंग ऐसा जैसे चम्पा का फूल । उसके बाल कितने लम्बे हैं, आजकल तो इतने लम्बे और घने बाल लड़कियों के होते ही नहीं । उसकी ड्रेस का रंग उस पर कितना खिल रहा था , वो कितना धीमे बोलती है और कितना मीठा ।
फालतू बिलकुल नहीं बोलती, उसे बोलने की ज़रूरत भी क्या है, उसकी आँखें ही सारी बातें कर लेती हैं । कितनी मासूमियत से उसने अपना झूठ कुबूल कर लिया । कितनी सच्चाई है उसमे और कितनी सादगी । उसका नाम सुनयना की जगह मृगनयनी होना था । अपनी सोच पर वह मुस्कुराया और फिर करवट बदल कर सो गया ।
सुनयना के मोबाईल फोन पर सुबह छ बजे का अलार्म बजा । उसकी नींद खुली । रात बहुत अच्छी नींद आई । वो उठी और खिड़की पर पड़ा भारी पर्दा खिसका दिया । "वाह" अनायास ही उसके मुँह से निकला । सामने सूर्योदय हो रहा था । होटल का बगीचा दूर तक फैला हुआ था, सामने स्विमिंग पूल था, किनारे बगीचे में करीने से क्यारी में रंग-बिरंगे फूल लगे थे । एक ओर हरा भरा लॉन था , जहाँ गार्डन अम्ब्रेला लगे हुए थे और मेज़-कुर्सियां लगी हुयी थीं । होटल का बगीचा बेहद खूबसूरत था । सुबह के उजाले में मानो हर चीज़ ताजगी से भरपूर थी । उसका मन हुआ चाय वहीँ जा कर पी जाये । उसने जल्दी से ब्रश किया, फ्रेश हो कर सूटकेस से एक क्रीम कलर की साउथ कॉटन की साड़ी निकाली, जिसकी किनारी सुनहरे रेशों से बुनी थी, मैचिंग ब्लाउज व् अन्य कपड़े निकाल कर बैग की जेब से उसने हाथी-दांत का कड़ा निकाला और उसी के साथ के छोटे-छोटे टॉप्स निकाले । नहा कर उसने करीने से साड़ी पहनी,  आज उसने बाल गीले नहीं किये, वरना सूखने में वक़्त लगेगा , कानो में टॉप्स व् हाथ में कड़ा पहना , घड़ी बाँधी और बाल संवार कर ढीली सी एक चोटी बनायी और माथे पर छोटी सी गोल बिंदी लगायी । तैयार हो कर उसने रूम सर्विस का नंबर डायल कर के चाय लॉन में लाने का आर्डर करके अपना मोबाइल फोन उठाया और बाहर आ के दरवाज़ा लॉक करके नीचे लॉन में आ गयी ।
एक छतरी के नीचे जा कर वो कुर्सी पर बैठ गयी । सुबह के 7:00 बजे थे, आसमान पर कुछ बादल थे, लगता नहीं कि बारिश होगी । ठंडी हवा चल रही थी । काश वो मॉर्निंग-वॉक पे जा पाती , लेकिन इस नयी जगह के बारे में वो कुछ भी नहीं जानती थी । चाय आ गयी । वो बगीचे की खूबसूरती का आनंद लेती हुयी चुस्कियां लेती रही । चाय ख़त्म करके उसने लॉन का एक लंबा चक्कर लगाया और अपने कमरे की ओर चल दी ।
प्रभात की नींद खुली । सुबह हो चुकी थी, घड़ी देखी , 7:00 बजे थे । अब उठना चाहिए, उसने सोचा । चाय ऑर्डर करने के लिए उसने फोन उठाया , डायल टोन ही ना थी । ये क्या हुआ..... ! उसने सोचा । उसने स्लीपर पहने और बालों में हाथ फेर कर ही उन्हें ठीक किया और दरवाज़ा खोल कर कॉरिडोर में नज़र दौड़ाई कि शायद कोई वेटर दिख जाये । सामने से सुनयना चली आ रही थी । जैसे बादलों में लिपटा हुआ चम्पा का फूल । बेहद हसींन, ताजगी से भरपूर और सादगी की मूरत ।
"गुड मॉर्निंग " वो मुस्कुराई ।
"गुड मॉर्निंग, अरे आप तो तैयार हैं । बड़ी पंकच्वल हैं, हम तो अभी सो कर उठे हैं । ये कमबख्त फोन खराब है शायद । आप अपने रूम से कॉल करके किसी वेटर को मेरे रूम में भेज देंगी प्लीज़ ?"
"जी ज़रूर ।" वो चली गयी ।
कुछ देर बाद वेटर आया । प्रभात ने उसे चाय लाने के लिए कहा और बताया कि फोन ख़राब है । वो अन्दर आ कर फोन देखने लगा, एक तार टूटा था, उसने जोड़ दिया , फोन ठीक हो गया और वो चाय लाने चला गया ।
प्रभात भी 15-20 मिनट में तैयार हो गया । चाय भी आ गयी, उसने चाय के साथ रखा अखबार उठाया । कोई ख़ास खबर नहीं थी । 8:00 बजने वाले थे । उसकी मीटिंग 9:30 बजे से थी । वो निश्चिन्त था ।
सुनयना ने नोट्स निकाले और पढ़ने लगी । पेन निकाल कर उसने एक कागज़ पर  कुछ पॉइंट्स नोट किये । फ़ाइल में कागज़ ठीक से जमाये और एक ओर रख दिए । फोन करके टेक्सी मँगा ली । अभी जाने में आधा घंटा था । इस बीच माँ का व् मेजर साहब का भी फोन आ चुका था । उसने पर्स उठाया, फ़ाइल उठाई और पूर्व दिशा की ओर आँखे बंद करके मन-ही-मन अज्ञात देवता को प्रणाम किया और सेमीनार सफल होने की प्रार्थना की । घड़ी पर नज़र डाली , कमरे की चाभी उठाई और बाहर निकल कर कमरा लॉक करके लिफ्ट से नीचे आ गयी, काउंटर पे जा कर उसने चाभी दी और अपनी टेक्सी के विषय में पूछा । मालूम हुआ टेक्सी आ गयी है । वो टेक्सी में बैठी, टेक्सी सिविल लाइन्स से गुज़र रही थी , बड़े-बड़े सरकारी बंगले, उन पर पुता हल्का पीला रंग और छत पर खपरैल उन बंगलों के सरकारी होने की गवाही दे रहे थे । सड़क के दोनों ओर बोगन-बेलिया लगी थी और थोड़ी थोड़ी दूर पर पलाश , अमलतास, नीम आदि के पेड़ लगे थे । बरसात के मौसम के कारण ज़मीन पर हरी मखमली दूब बिछी हुयी थी । पेड़ों की धुली-चमकती हुयी हुई पत्तियाँ उनके सौन्दर्य को द्विगुणित कर रही थी । सड़क पर अचानक चहल-पहल शुरू हो गयी । उसने सामने देखा -
"लखनऊ विश्वविद्यालय" का बड़ा सा बोर्ड चमक रहा था । मुख्य द्वार के बाहर ड्राइवर ने टेक्सी रोक दी ।
"मैडम, अन्दर आपको पैदल ही जाना होगा।, क्या आप वापस भी जाएँगी? मै इंतज़ार करू ?"
"नहीं, मुझे देर हो जाएगी । आप जाइए । होटल का नंबर मेरे पास है, मै फोन करके टेक्सी बुला लूँगी ।"
"जी, बेहतर है ।"
"कितने पैसे हुए?"
"मैडम, मेरी टेक्सी होटल में अटैच्ड है, आपके बिल में जुड़वा दूंगा । आप यहाँ साइन कर दीजिये ।" कहते हुए ड्राइवर ने कार की मीटर रीडिंग करके सुनयना के दस्तखत ले लिए । टेक्सी वाला चला गया । सुनयना ने एक भरपूर नज़र यूनिवर्सिटी कैम्पस पर डाली । वो काफी विशाल परिसर था । लड़के-लड़कियों की आवाजाही लगी हुयी थी । उसने फ़ाइल संभाली, पर्स कंधे पर टांगा और धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुयी अन्दर की ओर चल पड़ी । सामने 10-12 लड़के-लड़कियों का झुण्ड खड़ा हुआ था ।
"वाओ, व्हाट अ ब्यूटी । सीम्स न्यू कमर , इज़ इंट शी ?" किसी ने कहा ।
"हे ब्यूटीफुल, न्यू एडमिशन ?" एक लड़का उसकी ओर बढ़ा । वो अचकचा गयी ।
"जी नहीं, मुझे आपके बाटनी के एच. ओ.डी. से मिलना है । "
"पहले हम लोगों से मिल लीजिये , फिर उनसे भी मिल लीजियेगा । कहाँ से आई हैं मिस ?"
"दिल्ली ।"
"ओह गुड, किस फैकल्टी में ?"
"साइंस" मैंने निर्विकार भाव से उत्तर दिया । पिछले चार सालों से मै इसी उम्र के लड़कों-लड़कियों के बीच रह रही थी , सो उनकी बातों से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा ।
"यू आर सो डेयरिंग , अपने सीनियर्स से डर नहीं लग रहा ?"
"जी नहीं, देखिये, मुझे देर हो रही है, कृपया मुझे बाटनी डिपार्टमेंट कहाँ है, बताइए ?"
"हे, लिसन , यंग लेडी, गिव अस युअर इंट्रोडक्शन ।"
सुनयना ने झल्ला कर इधर-उधर नज़रें दौड़ाई , सामने से वर्दी में आता हुआ चपरासी दिखाई दिया ।
"सुनिए" उसने आवाज़ लगाई ।
"क्या है?" उसने लापरवाही से पास आ कर कहा ।
"जो सेमीनार होने वाली है, वो कहाँ होगी?"
चपरासी ने घूर के सुनयना को ऊपर से नीचे तक देखा , - "वो सामने कॉन्फ्रेंस हॉल में ।" और पलट कर वो चला गया । इधर लड़के-लड़कियों का झुण्ड भी उसे घूर रहा था ।
सुनयना ने जल्दी-जल्दी कॉन्फ्रेंस हॉल की ओर कदम बढ़ाये और कॉन्फ्रेंस हॉल में पहुंची । वो एक बड़ा सा हॉल था जिसमे यू - शेप की एक बड़ी टेबल लगी थी । सभी अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे थे । वो आत्मविश्वास के साथ एक खाली पड़ी कुर्सी पर जा कर बैठ गयी । सबकी नज़रें उसकी ओर उठ गयीं । इसी से वो कुछ असहज हो उठी । फिर उसने सभी की ओर नज़रें घुमा कर देखा और मुस्कुरा कर खड़ी हुयी ,
-"नमस्कार, मै सुनयना जोशी, शासकीय महाविद्यालय दिल्ली से आई हूँ । "
"ओह, नमस्ते मिस जोशी । मै बाटनी का हेड हूँ आर.एन.वर्मा. । मिसेज़ कौल से आपके बारे में बात हुयी थी ।"
मै कुछ निश्चिन्त हुयी । सेमीनार अभी शुरू नहीं हुयी थी । वाइस चांसलर का इंतज़ार हो रहा था ।
इधर वर्मा जी सोच रहे थे, ये मिसेज़ कौल ने किसे भेज दिया ? इतनी छोटी सी बच्ची अपने कॉलेज को क्या रिप्रेजेंट करेगी !"
सुनयना ने फ़ाइल खोल कर अपने रिप्रेसेंटेशन पर पुनः नज़र डाली और निश्चिन्त हो गयी । सभी के सामने माइक थे । एक राइटिंग पेड व् पेन और बिसलेरी की पानी की एक बोतल रखी थी । कान्फ्रेंस हॉल बहुत सुन्दर था । दरवाज़े व् खिडकियों पर मैरून कलर के मोटे परदे लटक रहे थे । दीवार पर महापुरुषों के बड़े-बड़े तैल-चित्र  लगे थे । शायद फाइन आर्ट्स के विद्यार्थियों ने ये पेंटिंग्स बनायीं थीं । अचानक चपरासी अन्दर आया, "वी.सी.साहब आ रहे हैं ।" और तभी उसकी नज़र सुनयना से टकराई, वो सकपका गया, वो सुनयना को एक स्टूडेंट ही समझ रहा था ।
लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति श्री राम रतन धीर ने अंदर प्रवेश किया । सभी उठ कर खड़े हो गए ।
"नमस्कार, आप सभी का लखनऊ विश्वविद्यालय में स्वागत है ।" उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा । सुनयना ने देखा, वे अच्छे व्यक्तित्व के स्वामी थे । उजला रंग, ऊंचा कद, बाल कुछ कम थे, गोल्डन फ्रेम का चश्मा व् गहरे नीले रंग का सूट पहने हुए वे विनम्र स्वभाव के दिख रहे थे ।
"प्लीज़, आप लोग बैठिये ।"
सभी बैठ गए । वे खड़े रहे । गला खंखार कर उन्होंने कहना आरम्भ किया -
"आज हमारे बीच अनेक विश्वविद्यालयों के वनस्पति शास्त्र के अनेक विभागाध्यक्ष एवं प्रोफ़ेसर उपस्थित हैं मै आप सभी से अनुरोध करूंगा कि एक-एक करके कृपया अपना परिचय दें |"
 बी एच यू , कलकत्ता, नासिक, पूना, लुधियाना, ग्वालियर, जम्मू अनेक विश्विद्यालयों के विभागाध्यक्ष व् प्रोफेसर्स ने अपना परिचय दिया | सुनयना ने भी पूरे आत्मविश्वास के साथ अपना परिचय दिया | इंट्रोडक्शन के बाद सेमीनार औपचारिक रूप से आरम्भ हुयी | लगभग तीन घंटे बाद लंच हुआ | सुनयना ने सभी के व्याख्यान ध्यान से सुने | उसे बी एच यू एवं ग्वालियर के विभागाध्यक्ष ने सर्वाधिक प्रभावित किया | लंच के बाद उसे अपने विचार रखने थे | वह थोड़ा तनाव में भी थी | लंच के लिए कॉन्फ्रेंस हॉल के बगल वाले हॉल में इंतजाम किया गया था | करीने से किनारे टेबल लगी हुयी थी | जिन पर सफ़ेद रंग के कढ़ाई किये हुए साफ़ मेजपोश बिछे हुए थे | कांच के डोंगों में सब्जियां, रायता, पुलाव, खीर, गर्म पूरियाँ, चटनी, पापड़ व् सलाद सजे रखे हुए थे | कुलपति श्री राम रतन धीर ने एक प्लेट उठा कर सामने खड़ी सुनयना की ओर बढ़ाई -
"लीजिये | " सुनयना अचकचा गयी |
"जी, सर, आप लीजिये ना, मै ले लूँगी |"
वो हँसते हुए बोले -"आज आप सभी हमारे अतिथि हैं, आप लीजिये" कहते हुए नैपकिन के साथ उन्होंने सुनयना को प्लेट थमा दी |  सुनयना ने संकोच के साथ प्लेट ले ली | कुलपति महोदय स्वयं ही दूसरों को भी प्लेट देने लगे | सुनयना को वे बहुत ही विनम्र स्वभाव के लगे | इतने में बाहर से एक महिला ने प्रवेश किया | वे कॉलेज की प्रोफ़ेसर लग रही थीं |  कुलपति ज़रा ऊंची आवाज़ में सभी से मुखातिब हुए -
"आप हैं श्रीमती देविका चंद्रा | ये गृह विज्ञान की विभागाध्यक्ष हैं | आज के भोजन का सारा इंतजाम इन्होने अपनी छात्राओं के सहयोग से किया है | हमारे यहाँ जब भी कोई सेमीनार , कॉन्फ्रेंस या अन्य कोई कार्यक्रम होता है तो प्रोफ़ेसर चंद्रा की ओर से ही दावत का प्रबंध होता है | हम कभी बाहर खाने का आर्डर नहीं देते, ना ही किसी होटल से खाना मंगवाते हैं | " कह कर उन्होंने प्रशंसनीय नज़रों से प्रोफ़ेसर चंद्रा की ओर देखा | प्रोफ़ेसर चंद्रा ने हाथ जोड़ कर सभी का अभिवादन किया | सभी ने खाना आरम्भ किया | भोजन वाकई बहुत स्वादिष्ट था | सभी ने प्रोफ़ेसर चंद्रा के भोजन व् इंतजाम की भूरी-भूरी प्रशंसा की | लगभग एक घंटे बाद लंच के बाद पुनः सभी कॉन्फ्रेंस हॉल में आ कर अपनी-अपनी सीट पर बैठ गए | व्याख्यान आरम्भ हुए | जम्मू के विभागाध्यक्ष ने अपने विषय पर बोलना आरम्भ किया | इनके संभाषण के बाद सुनयना की बारी थी | लगभग आधे घंटे तक उन्होंने प्रदूषण के कारण पर्यावरण व् जलवायु में होने वाले परिवर्तनों व् भविष्य की आशंकाओं के विषय में समझाया | एक-एक बिंदु की उन्होंने उदहारण सहित व्याख्या की एवं औपचारिक धन्यवाद देते हुए उन्होंने अपना व्याख्यान समाप्त किया |
सुनयना ने आत्म विशवास के साथ माइक को एडजेस्ट किया | सर्व प्रथम कुलपति, विभागाध्यक्ष एवं सभी प्रोफेसर्स को अभिवादन करते हुए उसने अपना व्याख्यान आरम्भ किया | मानव जीवन में प्रकृति के महत्व से शुरुआत करते हुए भू-जल का कम होता स्तर, अल्प वर्षा , पृथ्वी की ओजोन सतह का बढ़ता तापमान आदि सभी विषयों की उसने आंकड़ों सहित जानकारी दी | जल संरक्षण की महत्ता बताते हुए इस विषय पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला | घने जंगलों में रहने वाले अनपढ़ आदिवासी किस हद तक वनस्पति जीवन पर निर्भर हैं , ये आंकड़े भी उसने बताये | आत्मविश्वास के साथ उसने अपना व्याख्यान सभी का आभार प्रकट करते हुए धन्यवाद के साथ लगभग 40 मिनट में समाप्त किया | वर्मा जी मन-ही-मन उस छात्रा सी दिखने वाली व्याख्याता की प्रशंसा कर रहे थे | सभी ने सुनयना के संभाषण के पश्चात प्रशंसा में तालियाँ बजायी | सुनयना मुस्कुराकर कर हाथ जोड़ कर आभार प्रकट करते हुए बैठ गयी |  उसने पानी पिया व् चैन की सांस ली | वह स्वयं भी मन ही मन अपने परफोर्मेंस से खुश थी | शाम को लगभग 5:30 बजे सेमीनार समाप्त हुयी |
अंत में कुलपति जी ने बाहर से आये सभी अतिथियों का आभार व्यक्त करते हुए चाय के लिए पुनः दूसरे हॉल में चलने का आग्रह किया | सभी उठ कर दूसरे हॉल में आ गए | श्रीमती देविका चंद्रा दो महिला चपरासियों की सहायता से कप-प्लेटें लगवा रही थीं | एक डोंगे में गर्म समोसे व् एक में इमली व् सोंठ की महकती हुयी चटनी रखी थी, दूसरी ओर नर्म मुलायम ढोकले व् हरी धनिया-मिर्च की चटनी |
"अरे वाह, आपने तो यू.पी. और गुजरात को एक ही मेज़ में समेट दिया मिसेज़ चंद्रा !" कुलपति ने प्रशंसा की |
मिसेज़ चंद्रा ने गर्वीली मुस्कान से सभी को प्लेट लेने का आग्रह किया, वे स्वयं भी अतिथियों को प्लेट पकड़ाती जा रही थीं | इधर सुनयना सोच रही थी, 3 घंटे पहले ही तो इतना हेवी लंच लिया है , और अब फिर इतना नाश्ता | ये सब कौन खायेगा ! वो सोच ही रही थी कि मिसेज़ चंद्रा ने मुस्कुराते हुए उसे प्लेट थमा दी, - "लीजिये ना मैडम | " उसने भी मुस्कुराते हुए प्लेट थाम ली | मना करना अभद्रता होता | सभी ने तिकोने खस्ता समोसे व् चटनी स्वाद ले ले कर खाए । कढ़ी पत्ते व् राई-हरी मिर्च के तड़के से सुसज्जित पीले-पीले नर्म-मुलायम ढोकले भी हरी चटनी के साथ गज़ब के स्वादिष्ट लग रहे थे । वो अपनी प्लेट में एक समोसा व् एक ढोकले का टुकड़ा ले कर धीरे-धीरे खा रही थी । समोसा वाकई बेहद खस्ता था, अन्दर का भरवान भी आलू-मटर का और बहुत ही स्वादिष्ट था । मिसेज़ चंद्रा ढोकले का डोंगा ले कर घूम-घूम सभी को सर्व कर रही थीं ।
"अरे, आपकी प्लेट तो खाली है ? क्या आपको नाश्ता पसंद नहीं आया ?"
"नहीं-नहीं, ये बात नहीं । लंच भी बहुत अच्छा था और नाश्ता भी लाजवाब है, लेकिन कुछ देर पहले ही तो खाना खाया है ना !"
"अरे तो क्या हुआ, ढोकले तो बहुत हलके होते हैं, ये लीजिये " कहते हुए उन्होंने मुस्कुराते हुए ज़बरदस्ती मेरी प्लेट में तीन-चार टुकड़े ढोकले के डाल दिए जो कि मेरे हिसाब से बहुत ज़्यादा थे , अचानक मन में ख़याल आया कि वो सहयात्री प्रभात होता तो ना जाने कितने समोसे चट कर जाता, मुझे इस सोच पर खुद ही हँसी आ गयी । मैंने धीरे-धीरे किसी तरह सब खाया और धीरे से प्लेट किनारे रख दी । सब कुछ बहुत ही स्वादिष्ट बना था, मिसेज़ चंद्रा एक बहुत अच्छी  कुक होने के साथ बहुत अच्छी मेज़बान भी थीं । उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली था । गदबदा सा शरीर, औसत कद, गेहुआं रंग, बालों का करीने से बंधा हुआ ऊंचा जूड़ा और उनके होंठों पर सदा मुस्कान रहती ।  इसके बाद मिसेज़ चंद्रा ने सभी को चाय सर्व की । सभी ने चाय पीने के पश्चात मिसेज़ चंद्रा को औपचारिक धन्यवाद दिया व् उनके इंतजाम की जम कर प्रशंसा हुयी । वे बहुत खुश थीं । इसके पश्चात सभी ने कुलपति महोदय से विदा ली । चलते वक़्त कुलपति जी ने सभी को भेंट स्वरुप लखनऊ विश्विद्यालय के फ़ाइल-फोल्डर एवं पेन सेट दिए । सुनयना ने मोबाइल ऑन
कर के होटल कॉल किया किन्तु नेटवर्क बिज़ी होने के कारण फोन नहीं लगा । सुनयना ने बाटनी के विभागाध्यक्ष श्री वर्मा से विनम्रता से अनुरोध किया कि वे उसके लिए टेक्सी मंगवा दें ।
"आप कहाँ ठहरी हैं ?"
"होटल राज दरबार में "
"अरे वो तो मेरे घर से कुछ ही दूरी पर है, आइये मै आपको ड्रॉप कर दूंगा "
"आप क्यों तकलीफ करते हैं सर, मै टेक्सी से चली जाउंगी "
"अरे इसमें तकलीफ कैसी ! आप आइये मेरे साथ । मै और मिसेज़ कौल एक ही बैच के हैं । हमने एक ही कॉलेज में साथ ही ज्वाइन किया था । वे मेरी अच्छी मित्र हैं । जब उन्होंने बताया कि वे नहीं आ पाएंगी और उनकी जगह आप आएँगी तब मैंने सोचा था कि कोई हमारी ही हम उम्र होंगी और आज जब आपको देखा तो लगा कि आप इतने अनुभवी लोगों के बीच न जाने क्या करेंगी , लेकिन आपके व्याख्यान से सभी बहुत प्रभावित हुए । आपका भविष्य बहुत उज्जवल है मिस जोशी । "
"धन्यवाद सर " बातें करते-करते हम उनकी कार तक पहुँच गए । उन्होंने दरवाज़ा खोला मै बैठ गयी, कार चल पड़ी ।
"आप कब वापस जा रही हैं ?"
"सर, कल का रिज़र्वेशन है । दोपहर 12 बजे ट्रेन है ।"
"चलिए, हमारे घर चलिए, रात का खाना हमारे साथ खाइए । घर में मेरी पत्नी व् दो बेटियां हैं । "
"नहीं सर, अगली बार अवश्य आउंगी । खाना तो आज बहुत हो गया । मिसेज़ चंद्रा ने तो डिनर के लायक नहीं रहने दिया " मैंने मुस्कुरा कर कहा ।
"हाँ, ये तो है । वो बहुत ही अच्छी मेज़बान हैं ।"
कार चलती रही , अचानक मुझे ख्याल आया कि मेरा मोबाइल स्विच्ड ऑफ़ था । सेमीनार में मैंने मोबाईल बंद कर दिया था । माँ परेशान  हो रही होंगी । मैंने पर्स से मोबाइल निकाल कर चेक किया ।
"लीजिये, आ गया आपका होटल " कहते हुए वर्मा जी ने कर पोर्टिको में रोक दी । मै उतर गयी । मैंने विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़ कर उन्हें धन्यवाद दे कर नमस्कार किया । वर्मा जी चले गए । मैंने काउंटर से अपने कमरे की चाभी ली और लिफ्ट की ओर चल पड़ी । तभी पीछे से आवाज़ आई -
 "मिस जोशी" मै पलटी तो देखा सामने मेजर मल्होत्रा खड़े थे ।
"अरे भाईसाहब, आप । आप कब आये ?"
"काफी देर से यहाँ हूँ, आज हमारी पार्टी है बैंक्वेट में । आपका मोबाइल बंद था । काउन्टर से पता लगा कि आप अभी तक लौटी नहीं, थोड़ी चिंता हो गयी थी ।"
"दरअसल सेमीनार अभी ख़त्म हुयी और मैंने मोबाईल अभी कुछ देर पहले ही ऑन किया ।"
"अच्छा , चलिए आप आराम कीजिये , मै भी चलता हूँ । कल का क्या प्रोग्राम है ?"
"जी कल 12 बजे मेरी ट्रेन है ।"
"कल सुबह अगर आप जल्दी तैयार हो जाओ तो मै कार भेज दूंगा , 3 घंटे आप घूम लेना फिर ड्राइवर आपको स्टेशन छोड़ देगा , मेरा आना बड़ा मुश्किल है क्योंकि कल से हमारा 7 दिन का ट्रेनिंग कैम्प शुरू हो रहा है ।
ब्रिगेडियर लाल दिल्ली से आये हुए हैं, उन्हीं के ऑनर में ये पार्टी थी ।"
"कोई बात नहीं भाईसाहब, आपने मेरे लिए कितना कुछ किया । मै लखनऊ घूमना तो चाहती हूँ लेकिन आप क्यों परेशान होते हैं !"
"ओये, भाई भी कहती हो और परेशानी की बातें भी करती हो । डोंट बी सो फॉर्मल । आप सुबह तैयार रहना, ड्राइवर 8 बजे कार ले कर आ जायेगा ।"
"जी, थैंक यू भाईसाहब ।" मैंने मुस्कुरा कर कहा ।
"बाय , गुडनाईट ।"
"गुडनाईट "
मेजर साहब पलट कर चले गए । मै अपने कमरे तक पहुंची । लॉक खोला और की-होल्डर में चाभी डाली । लाईट जल गयी । मै वैसी ही बिस्तर पर लेट गयी । सारा दिन बैठे-बैठे थकान हो गयी थी । दस मिनट यूँ ही आँखें बंद करके लेटी रही फिर उठ कर हाथ-मुँह धोये । साड़ी उतार के नाइटी पहनी चोटी खोल कर हल्का सा जूड़ा बनाया और टीवी ऑन कर दिया । इतने में मोबाइल की घंटी बजी ।
"तू है कहाँ री ! दिन भर से मोबाईल बंद था । मुझे तो लगा 2 बजे तक सेमिनार निपट गयी होगी । कुछ खाया या भूखे पेट बैठी रही ।" मै हँस पड़ी ।
 "माँ, खूब खाया, तुम्हारे जैसे ही ज़बरदस्ती खाना खिलाने वाली प्रोफ़ेसर थीं वहाँ, बहुत अच्छा खाना और नाश्ता बनाया था, मेरा व्याख्यान भी बहुत बढ़िया रहा, सभी ने प्रशंसा की " और मैंने माँ को विस्तारपूर्वक सारा हाल सुनाया ।
"जानती हूँ सुनयना, तू बहुत होशियार है । मुझे पूरा भरोसा था बेटा कि तू बहुत अच्छे से अपने कॉलेज को रिप्रेजेंट करेगी । मिसेज़ कौल का भी 2 बार फोन आ चुका है कि लखनऊ के हेड ने बताया कि सुनयना की बहुत तारीफ हुयी है । "
"अच्छा, उन्हें वर्मा जी ने बताया होगा । वो बहुत भले व्यक्ति हैं माँ ।"
"होटल कैसा है सुनयना ? सेफ है ना ? मेजर साहब से भी बात कर लेना ।"
"हाँ माँ, बहुत अच्छा होटल है, बहुत अच्छी जगह है, मेजर साहब से अभी मुलाकात हुयी, वो होटल आये थे एक पार्टी में । कल सुबह कार भेजेंगे , लखनऊ घूमने के लिए, फिर उसी कार से मै स्टेशन निकल जाउंगी ।"
"ठीक है, अपना ख्याल रखना, फोन बंद करती हूँ । कल बात करुँगी ।"
"बाय माँ, गुडनाईट "
मोबाईल मैंने चार्जिंग पर लगा कर सिरहाने रख दिया । समाचार लगाये, 9:30 बज चुके थे, भूख बिलकुल ना थी , सोचा कॉफ़ी पी जाए । मैंने रूम सर्विस को फोन लगा कर कॉफ़ी आर्डर की और न्यूज़ सुन कर चैनल बदल कर देखे, एक जगह पुरानी हिंदी फिल्म आ रही थी । थोड़ी देर में कॉफ़ी आ गयी, कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ मै फिल्म देखती रही । कॉफ़ी ख़त्म कर के साइड टेबल पर कप रखा और लेट गयी । फिल्म अच्छी थी, लगभग 11:00 बजे फिल्म ख़त्म हुयी, तब तक मुझे भी तेज़ नींद आने लगी । मैंने टीवी बंद किया और लाईट बंद करके नाईट बल्ब जला कर सो गयी । सुबह 6:00 बजे अलार्म से नींद खुली । उफ़, कितनी गहरी नींद आई । उठ कर परदे खोले और अचानक सामने का नज़ारा देख कर मै हँस पड़ी । सामने प्रभात बगीचे के चारों ओर दौड़ लगा रहा था । मैंने ब्रश किया, फ्रेश हुयी और बैग से हल्का गुलाबी रंग का कुरता व् चूड़ीदार निकाला और नहाने चली गयी । नहा  कर निकली, बाल संवारे, छोटी सी गोल गुलाबी बिंदी लगायी , और बिखरे कपड़े समेट कर तह करके एक ओर रखे, आज जाना भी है, घूमने जाते वक़्त ही सामान पैक कर लूँगी । रूम सर्विस का नंबर डायल कर ही रही थी कि दरवाज़े पर थाप हुयी । मैंने दुपट्टा ओढ़ा और दरवाज़ा खोला, सामने प्रभात था ।
"गुड मॉर्निंग मैडम ।"
"गुड मॉर्निंग, आज तो आप जॉगिंग कर रहे थे, लगता है 5 बजे ही उठ गए ।"
"आप मेरी जासूसी करती हैं क्या?"
"जी नहीं, सरेआम आप पार्क में जॉगिंग कर रहे थे , मेरी खिड़की से बगीचा साफ़ दिखता है , भला मै आपकी जासूसी क्यों करुँगी ?"
"अरे वाह, आप तो जवाब देना भी जानती हैं , मै तो बस आपकी सेमीनार के बारे में पूछने आया था , कैसी रही ?"
"जी, बहुत ही अच्छी ।"
"गुड, वो तो होनी ही थी, इसी ख़ुशी में चाय हो जाये ? मैंने भी अब तक नहीं पी । " उसने प्रश्नसूचक निगाहों से मुझे देखा ।
"जी, क्यों नहीं, प्लीज़ कम इन" मैंने दरवाज़ा खुला छोड़ दिया । रूम सर्विस में दो चाय आर्डर की ।
"आप कुछ और लेंगे ? सैंडविच वगैरह ?"
"जी नहीं, सिर्फ चाय "
हम दोनों चुप थे । मैंने पूछा -
"आपकी मीटिंग कैसी रही ?"
"कुछ ख़ास नहीं, बस टार्गेट पूरा होता रहे तो सब हरा-हरा वर्ना कंपनी के ऊपर वाले ऑफिसर्स की पचास बातें सुनो । ईमानदारी से काम करना बहुत मुश्किल हो गया है । पहले सोचता था कि सरकारी नौकरी में ही भ्रष्टाचार है तो प्राइवेट सेक्टर में चला आया लेकिन यहाँ भी वही सब है, बस तरीका अलग है । झूठ बोले बगैर काम नहीं चलता, इसीलिए मेरी किसी से पटरी नहीं बैठती ।"
"मतलब आप झूठ नहीं बोलते ?"
"जी नहीं, यथासंभव नहीं ।" उसने द्रढ़तापूर्वक कहा ।
"मतलब कभी-कभी बोलते हैं " मै मुस्कुराई ।
"देखिये कभी-कभी तो सभी बोलते हैं , जैसे कल आपने बोला था, मै आपको उलाहना नहीं दे रहा, उदाहरण दे रहा हूँ । बुरा मत मानियेगा ।" वो मुस्कुराया । हम दोनों हँस पड़े । वेटर चाय ले आया साथ में अख़बार भी था ।"
प्रभात ने अखबार उठा लिया ।
"अरे, यह क्या !!! " हेडलाइन पढ़ते ही उसके मुँह से निकला ।
"सर, कल रात पुराने शहर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा भड़क गया । किसी हिन्दू लड़के ने मुस्लमान लड़की को भगा कर उसके साथ शादी कर ली, मुसलमानों ने उस लड़के को मार डाला । " वेटर ने बताया ।
"उफ़, कब अक्ल आएगी इन सबको !" प्रभात खबर पढने लगा । मै परेशान थी, आज मुझे वापस जाना था और शहर में ऐसा तनाव । प्रभात खबर सुना  रहा था कि शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया है , इतने में मोबाइल की घंटी बजी । मेजर साहब का फोन था ।
"सुनयना जी, मै कार नहीं भेज रहा हूँ । यू बेटर स्टे एट होटल । शहर के हालात बहुत खराब हैं । मै पोजीशन पता करता हूँ, वरना आपकी टिकिट कैंसिल करवानी पड़ेगी ।"
"जी, प्लीज़, आप देख लीजिये, अगर स्थिति ठीक हो तो मै निकल जाउंगी वरना माँ बहुत परेशान हो जाएँगी ।"
"नो-नो , अभी जाने के बारे में मत सोचो । अपनी माताजी को कॉल करके सब बताओ, अगर सब ठीक रहा तो मै खुद आ कर आपको स्टेशन छोडूंगा ।"
"जी भाईसाहब " सुनयना सोच में डूब गयी ।
"चाय पी लीजिये, ठंडी हो जाएगी । घबराइये मत, सब ठीक हो जायेगा ।"
"आं हाँ.…… " वो चौंकी , उसने प्याला ले कर घूंट भरा ही था कि माँ का कॉल आ गया ।
"हेलो नैना" माँ का स्वर घबराया हुआ था ।
"अभी टीवी पर न्यूज़ सुनी, लखनऊ में दंगा हो गया । मुझे तेरी बहुत फ़िक्र हो रही है, तू अभी होटल में ही है ना ? कहीं बाहर मत जाना । "
"हाँ माँ, अभी मेजर साहब का फोन आया था" और सुनयना ने सारी बात माँ को बताई कि शायद आज की टिकिट कैंसिल करवानी पड़े ।
"यहाँ मुझे किसी तरह की परेशानी नहीं है माँ, ये एरिया तो बहुत सेफ है । मै कहीं बाहर नहीं जाउंगी । मेजर साहब ने कहा है स्थिति ठीक होते ही वो खुद मुझे भिजवाने का प्रबंध कर देंगे ।"
"ठीक है बेटा, अपना ख्याल रखना, फोन करती रहना ।" माँ ने फोन काट दिया ।
मेरी चाय ठंडी हो चुकी थी । प्रभात अपनी चाय ख़त्म करके अखबार में डूबा हुआ था । मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मै क्या करूँ ! मैंने दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया ।
"अरे.……। ये क्या !!! आप डर गयीं क्या ? देखिये कल ही मैंने आपको समझाया था ना कि कितनी भी कठिन परिस्थिति आ जाये आपको संयम से काम लेना चाहिए । घबराइए मत, एक-दो रोज़ में स्थिति नियंत्रण में आ जाएगी । ये सब राजनैतिक हथकंडे हैं , जिनकी बलि दो मासूम चढ़ गए । चुनाव सिर पे हैं और ये तमाशा अल्प-संख्यक वोट बैंक के लिए हैं । ना जाने क्यों हिन्दू और मुस्लमान ये बात नहीं समझते कि उन्हें लड़वा  के ये हिन्दू संगठन व् मुसलमानों के हितैषी कहलाने वाले नेता अपना उल्लू सीधा करते हैं । ये ना हिन्दुओं के हितैषी हैं, ना मुसलमानों के खैरख्वाह ! ये तो बस स्वार्थी हैं । अपने स्वार्थ के लिए ये ना जाने कितनो की बलि लेते हैं । उन दो मासूम जिंदगियों के अलावा दंगे की नफरत की आग में ना जाने कितने घर झुलसेंगे , ना जाने कितनी बहन-बेटियों की इज्ज़त-आबरू लूटी जाएगी और ये कम अक्ल अपने-अपने नेताओं व् धर्म गुरुओं के दिखाए गए रास्तों पर चलते रहेंगे । वो धर्म गुरु जिनका अब धर्म के सदमार्ग पर चलना कर्त्तव्य नहीं रहा, वे भी राजनीति में आ चुके हैं । इनके भड़काऊ भाषणों की आग में कूदते हुए ये अपना बलिदान स्वयं देंगे ।"
कहते हुए प्रभात उत्तेजित हो गया । सुनयना चुप थी, हर वक़्त मसखरी करने वाले प्रभात का यह रूप उसके लिए सर्वथा नवीन था । प्रभात भी चुप हो गया । वातावरण बोझिल हो गया ।
"आप सोच रही होंगी कि अचानक इसे क्या हो गया ! है ना ? सुनयना जी, कहने को तो मै बेहद प्रैक्टिकल व्यक्ति हूँ किन्तु मेरे अन्दर जो इंसान है उसे झूठ, फरेब, भ्रष्टाचार और इस तरह की गन्दी राजनीति से सख्त नफरत है, लेकिन वर्तमान समाज में अगर सामान्य लोगों की तरह ज़िन्दगी गुज़ारना है तो इन सब बातों को जीवन का अंग बनाना ही पड़ेगा । ज़िनदगी में कदम-कदम पर बहुत मुश्किलें आतीं है और कई बार बहुत समझौते करने पड़ते हैं, फिर भी मै पूरी कोशिश करता हूँ कि सीधी व् सच्ची राह पर चल कर मंज़िल तक पहुंचूं लेकिन ऐसी घटनाएं मन को व्यथित कर देती हैं । कहने को तो हम चाँद पर आशियाना बनाने के लिए ज़मीन खरीद रहे हैं लेकिन यथार्थ यह है कि  लोगों की इतनी संकीर्ण मानसिकता है कि वो "मै" के आगे बढ़ ही नहीं पाती । ये "मै" जब "हम" होगा और हम  अपने साथ-साथ दूसरों के बारे में भी सोचेंगे तभी हमारी वास्तविक प्रगति हो पायेगी । उस लड़की ने क्या गुनाह किया था, एक दूसरे धर्म के लड़के के साथ अपनी ज़िन्दगी गुज़ारनी चाही , उसकी सज़ा उसे ये मिली कि लड़के को मार डाला गया और इस बात को मज़हबी रंग दे कर पूरा शहर दंगों व् नफरत की आग में झुलस रहा है । आज़ादी से पहले हम सब एक थे , दोनों की एकता ने हमें आज़ादी दिलायी थी लेकिन राजनीति ने हमारे देश के दो टुकड़े कर दिए , देश क्या बँटा मानो एक हिस्सा दूसरे का दुश्मन हो गया । नफरत की जो आग नेताओं ने उस वक़्त सुलगायी थी उसकी चिंगारियां अब भी हमारे समूचे देश को गाहे-बगाहे सुलगाती रहती हैं ।" एक लम्बी साँस  भरके प्रभात चुप हो गया ।
"आप ठीक कह रहे हैं, आजकल वैसे नेता कहाँ रह गए हैं जो देश के लिए हँसते-हँसते सूली पर चढ़ जाते थे । जिनके लिए पहले देश था फिर परिवार । आज सिर्फ सत्ता की चाहत और धन के लालच ने पूरे सिस्टम को तबाह करके रखा है । ट्रांसवर करवाना हो तो रूपये दे दीजिये, रुकवाना हो तो रुपये । जनता के अरबों रुपये खा कर विदेशी बैंकों में जमा कर देते हैं और सफ़ेद चोला पहन कर भ्रष्टाचार के खिलाफ भाषण देते फिरते हैं । लेकिन प्रभात जी, फिर भी कीचड़  में कमल की तरह हमारे देश में ऐसे राजनेता भी हैं जो अब भी देश को सर्वोपरि मानते हैं , उन ईमानदार एवं सच्चे लोगों के कारण ही हमारा देश सम्पूर्ण विश्व में एक ख़ास पहचान रखता है । अगर एक ओर  चंद  स्वार्थी लोग दीमक बन कर हमारे देश की दीवारों को खोखला कर रहे हैं तो वहीँ दूसरी ओऱ  से देश के ये  ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ अफसर व् नेता उन दीवारों के आगे सीना तान के उन्हें सहारा देते हुए निर्भीक खड़े हैं । हमें इन लोगों को नहीं भूलना चाहिए , ये लोग भी चाहें तो अपना ईमान गिरवी रख के बेईमान व् चरित्रहीन हो जाएँ लेकिन ये अपनी आत्मा की आवाज़ सुनते हैं और ऐसे चरित्रवान लोगों के कारण ही तो संतुलन बना हुआ है व् स्वार्थी, बेईमान व् चरित्रहीन नेता इनसे भयभीत रहते हैं । "
प्रभात अवाक सुनयना को देख रहा था । क्या ये वही  अंतर्मुखी अल्पभाषिणी सुंदरी है जिसे वह पिछले दो दिन से जानता है । सुनयना अपनी उत्तेजना पर स्वयं ही शरमा  गयी । उसने पानी का जग उठाया , एक ग्लास पानी प्रभात को दिया व् दूसरा स्वयं पिया  ।
दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुन कर सुनयना उठी । वेटर था, चाय के कप वगैरह लेने आया था | सुनयना के प्याले में चाय थी, जो ठंडी हो चुकी थी |
"मैडम, आपने तो चाय नहीं पी , दूसरी ला दूं क्या ?"
"नहीं, अभी नहीं, थोड़ी देर बाद मै खुद आर्डर कर दूंगी |"
"ओके मैडम"
"अब आप क्या कीजियेगा ? बाहर भी नहीं जा सकतीं, शहर छोड़ नहीं सकतीं | लखनऊ ने बंदी बना लिया है आपको |" प्रभात मुस्कुराया |
"मै भी यही सोच रही थी, अजीब परिस्थिति है | खैर, वक़्त तो गुजारना ही है, अच्छा हुआ जो आपसे मुलाक़ात हो गयी |" सुनयना सहजता से हौले से मुस्कुराई |
"मै क्या जोकर नज़र आता हूँ आपको ?"
"अरे नहीं, मेरा ये मतलब नहीं था, आप भी दिल्ली से हैं और इस विकट परिस्थिति में मै अकेले होती तो वाकई घबरा जाती | "
"देखिये, मै दो दिन से आपका मनोरंजन कर रहा हूँ तो आपको मनोरंजन कर तो अदा करना ही चाहिए एक जागरूक नागरिक होने के नाते |"
"क्या...?" मै कुछ घबरा गयी, ये क्या कह रहा है !
"अरे, घबराइए नहीं मोहतरमा, मै आपको लंच के लिए आमंत्रित कर रहा हूँ | वैसे भी आपकी बहुत उधारी चढ़ चुकी है मुझ पर | आज मौसम अच्छा है, बारिश के आसार हैं, क्यों ना गार्डन अम्ब्रेला के नीचे या फिर रेस्टारेंट में और आपको वो भी ना जमे तो यहीं आपके या बन्दे के कमरे में, जहाँ कहें इंतजाम करवा देते हैं |"
मै सकुचा गयी | क्या इतनी घनिष्ठता उचित होगी ? माँ को भी इसके बारे में कुछ बताया नहीं | वैसे तो प्रभात एक शरीफ व्यक्ति है फिर भी मै अकेली हूँ यहाँ | क्या जवाब दूं.......!!!! इसी उधेड़बुन में वो सोचने लगी कि क्या कहे , क्या करे !!!
"अरे, परेशान मत होइए | शायद आपका अंतर्मन आपको इजाज़त नहीं दे रहा एक अजनबी के साथ लंच लेने के लिए | मै इस बात के लिए आपको बिलकुल जोर नहीं दूंगा , चलिए अब इजाज़त दीजिये | आज तो मेरी मीटिंग भी कैंसिल हो जाएगी , नहा के तैयार तो हो ही जाऊं फिर आराम से टीवी देखूंगा |" वो मुस्कुराया और चला गया |
मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैंने सही किया गलत ! 8:30 बज चुके थे, हलकी बूंदा-बूंदा शुरू हो गयी थी |
मैंने खिड़की के भारी-भरकम परदे खिसका दिए और खिड़की से मौसम का नज़ारा देखने लगी | इतने अच्छे मौसम के बावजूद मेरा मन खराब था | दंगे की वजह, खून-खराबा व् कर्फ्यू आदि सब बातों ने मूड खराब कर दिया था | मै उस लड़की के बारे में सोचने लगी जिसकी आँखों के सामने उसके पति की ह्त्या कर दी गयी और वो बेचारी कुछ न कर सकी | जब इंसान के सिर पर खून सवार हो जाता है तो वह जानवर हो जाता है | इतनी बेदर्दी से तो कोई जानवर को भी नहीं मारता | उफ़, ये जाहिल लोग, धर्म के ठेकेदार बनते हैं लेकिन ये नहीं जानते कि किसी भी धर्म में हिंसा, क्रूरता की कोई जगह नहीं होती | तभी मोबाइल फोन पर घंटी बजी | ज़रूर माँ का कॉल होगा |
"हेलो "
"हेलो, मिस सुनयना जोशी !"
"जी हाँ, बोल रही हूँ, आप कौन ?"
"मै वर्मा बोल रहा हूँ, एच ओ डी बाटनी | कल आपसे मुलाकात हुयी थी ना !
"ओह, जी हाँ, नमस्ते सर |"
"नमस्ते, मुझे आपकी फ़िक्र हो आई, शहर में हालात ठीक नहीं हैं, आप यहाँ नयी हैं और अकेली भी । आज तो आप वापस भी नहीं जा सकेंगी क्योंकि स्टेशन पुराने शहर में है और वहां बहुत दंगे-फसाद चल रहे हैं । दंगाई ट्रेन रोक रहे हैं । आप चाहें तो हमारे घर आ जाएँ, जब तक स्थिति नियंत्रण में ना जाये । मेरा परिवार आपसे मिलकर बहुत खुश होगा , इसे औपचारिकता न समझें । एक बड़े भाई का घर समझ कर आ जाएँ ।"
मै फिर उलझन में पड़ गयी । वर्मा जी बहुत ही सज्जन पुरुष थे, उनका अपनापन देख कर मै भाव-विहल हो उठी । क्या करूँ.…… !!! किन्तु मेरे लिए किसी अजनबी परिवार में रहना बहुत ही कठिन था , इस तरह घुलना-मिलना मेरे लिए संभव ही ना था ।
"सर, मै बहुत आभारी हूँ कि आपने मेरे लिए इतना सोचा । आप बिलकुल परेशान ना हों । मै यहाँ पूरी तरह सुरक्षित हूँ । मिसेज़ कौल के भाईसाहब भी आते-जाते रहते हैं । यदि मुझे यहाँ ज़रा भी परेशानी हुयी तो मै सबसे पहले आपको ही कॉल करुँगी ।"
"ठीक है , आप अपना ख्याल रखना, होटल में ही रहना, और कोई भी बात हो निसंकोच मुझे कॉल करना । बाय , टेक केयर ।"
"थैंक यू सर ।" कॉल बंद हो गया । मैंने चैन की साँस ली । मन-ही-मन उनके प्रति मै कृतज्ञ भी थी । आजकल कौन इतना सोचता है किसी के लिए । माँ मुझे हमेशा कहती थी -
"ना जाने कैसा विचित्र स्वभाव है री तेरा ! लडकियाँ तो कितना बोलती-बतियाती हैं, और एक तू  है , अगर मै ना बोलूं तो लगे ही ना कि घर में दो लोग रहते हैं । पता नहीं कैसे नौकरी करती है तू ! तुझसे भला तो कुमार है , जब आता है घर में चहल-पहल हो जाती है । मेरी भी सहेलियाँ  आती हैं तो तू नमस्ते करके ऐसे भागती है जैसे वो सब तुझे खा ही जाएँगी ।" मै हँस कर कहती थी -
"माँ, कम बोलना अच्छा होता है, कोई विवाद नहीं होते ।"
"अरी, ना बोलने से तो विवाद भले " माँ कहती ।
मेरा स्वभाव ही ऐसा था, जल्दी किसी से घुल-मिल नहीं पाती थी । शायद इसीलिए सौम्य स्वभाव के वर्मा जी और प्रभात का आमंत्रण मै स्वीकार नहीं कर पायी थी । सुबह से चाय तक नहीं पी थी । मैंने रूम सर्विस डायल करके एक चाय व् एक सैंडविच आर्डर किया । मौसम और भी सुहावना हो चला था । सुरमई बादलों के कारण सुबह 9:00 बजे लग रहा था मानो शाम के 6 बजे हों । होटल के विशाल बगीचे में रिमझिम गिरती बूँदें भली लग रही थीं । मैंने खिड़की खोल दी । ताज़ी हवा का झोंका भारी पर्दों को भी उड़ा गया । मेरे लम्बे खुले बाल उड़-उड़ कर उलझने लगे । मैंने हाथों से लपेट कर उनका जूड़ा बनाया और खिड़की से हाथ बाहर निकाल कर वर्षा की बूंदों को स्पर्श करने लगी । तभी दरवाज़े पर आहट हुयी । मैंने दरवाज़ा खोला, वेटर चाय और सैंडविच ले कर हाज़िर था । मैंने सैंडविच उठाया और चाय का प्याला हाथ में ले कर पुनः खिड़की के पास आ गयी । सैंडविच व चाय  ख़त्म करके मैंने प्याला रखा और कंघा ले कर बाल सुलझाने लगी, तभी सुकुमार का कॉल आ गया ।
"हेलो दीदी, कैसी हो ? वहाँ  सब ठीक तो है ? तुम कहो तो मै तुम्हे लेने आ जाऊं दीदी ? मैंने न्यूज़ में देखा कि वहाँ  हालात बहुत खराब हैं  ।" मै हँस पड़ी ।
"सुकुमार, तुम तो माँ से भी ज़्यादा फिक्र कर रहे हो , अरे मै अच्छी-भली हूँ यहाँ । मिसेज़ कौल के भाई मेजर साहब बहुत ही अच्छे व्यक्ति हैं । यहाँ के एच ओ डी भी निरंतर संपर्क बनाए हुए हैं, उन्होंने तो घर आने का आग्रह भी किया । मेजर साहब ने कहा है कि जैसे ही हालात सुधरेंगे वो खुद मुझे दिल्ली पहुँचा देंगे । तुम इतनी दूर से मुझे लेने मत आओ ।"
"ठीक है दीदी, होटल में ही रहना, बाहर बिलकुल मत जाना ।"
"हा-हा-हा.....  जी दादाजी, मै अपने रूम में ही रहूंगी । कमरे से बाहर कदम तक नहीं रखूंगी ।"
"अरे दीदी, तुम तो मज़ाक बनाने लगीं, समझा करो, माँ बहुत चिंता कर रहीं हैं, मुझे तो पूरा भरोसा है अपनी दीदी पर लेकिन माँ का क्या किया जाए.....!" कह के कुमार ठहाका लगा कर हँस पड़ा ।
"हाँ कुमार, मै समझती हूँ । तुम उन्हें आश्वस्त कर दो, यहाँ सब ठीक है । मै बिलकुल सेफ हूँ ।"
"ओके दीदी, बाय , टेक केयर "
"बाय कुमार ।"
मैंने टीवी चला दिया । लोकल चैनल पर शहर की ख़बरें चल रही थीं । सूनसान सड़कें , बंद दुकाने, चारों ओर पुलिस दिखाई दे रही थी, फिर कुछ दृश्य अस्पताल के दिखाए गए, घायलों में मासूम बच्चे व् बुज़ुर्ग भी थे, सुनयना का दिल भर आया । उसने टीवी बंद कर दिया और कुर्सी पर सिर टिकाकर कई बरस पीछे चली गयी । सुनयना उस वक़्त ग्यारहवीं कक्षा में थी और सुकुमार आठवीं में । पिताजी दिल्ली के गवर्मेंट कॉलेज में रसायन शास्त्र के प्राध्यापक थे, उन्हें मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से एक सेमीनार में आमंत्रित किया गया था, 6 दिसंबर के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान जो दंगे हुए थे पिताजी भी उसकी बलि चढ़ गए ।  9 दिसंबर को उनका शव दिल्ली लाया गया था, माँ संभाले नहीं संभल रहीं थीं । सुनयना एकटक पिताजी को देख रही थी, मानो अभी कहेंगे - "बिट्टो, ठंडा पानी ले आ बिटिया लेकिन फ्रिज का नहीं मटके का लाना ।" उसकी आँखों से आंसू रुकते ही ना थे । वो निःशब्द रो रही थी । उसके पिताजी सौम्यता की साक्षात् मूर्ती थे । हमेशा धीमा बोलते । बच्चों के ऊपर उन्होंने कभी हाथ नहीं उठाया । जहां उनके सहकर्मी तगड़ी ट्यूशन फीस वसूल करके हज़ारों कमाते वहीँ पिताजी मुफ्त में घंटों छात्र-छात्राओं के सिर खपाते । माँ कभी-कभी भुनभुना उठती थी, "क्यों मुफ्त में सिरदर्द मोल लेते हो ? कॉलेज में पढ़ने के बाद घर को क्यों कॉलेज बना देते हो ?" लेकिन पिताजी "परहित में जीवन समाहित" वाले सिद्धांत के व्यक्ति थे । वे जितने विद्वान् थे उतने ही विनम्र । ना जाने कितनी लाल बत्ती लगी गाड़ियों में बड़े-बड़े घर के छात्र-छात्राएं घर आते व् उनके ज्ञान का लाभ उठाते । अनेकों बार उन लोगों ने लिफाफों में मोटी रकम रख कर गुरु-दक्षिणा के रूप में समर्पित की, लेकिन पिताजी ने उन्हें बैरंग लौटा दिया । कई अभिभावकों ने रुपये ना देकर उपहारस्वरूप घड़ी, सूट का कपड़ा व् अनेक दामी वस्तुएं उनके चरणों में समर्पित की किन्तु पिताजी ने उन्हें कभी गृहण नहीं किया । वे कभी किसी का उपकार नहीं लेते थे , हमेशा कहते -
"विद्या विक्रय करने की वस्तु नहीं है , ज्ञान बाँटने के लिए होता है, बेचने के लिए नहीं ।" पिताजी अपनी तनख्वाह से पूरी तरह संतुष्ट थे । उन्हें अपने दोनों बच्चों पर बहुत गर्व था । सुकुमार व् सुनयना दोनों ही पढ़ाई में अव्वल थे । उनकी छोटी सी गृहस्थी माँ के दक्ष हाथों में सुचारू रूप से चल रही थी । माँ घर का सारा काम अपने हाथों से करतीं , कभी किसी नौकर-चाकर, महरी आदि का काम उन्हें नहीं भाता । सुनयना को वे कोई काम ना करने देतीं थीं लेकिन फिर भी सुनयना जिद करके माँ के काम में हाथ बंटाती रहती थी । जब सुनयना 3 बरस की थी तभी उसके दादाजी का ह्रदयघात से निधन हो गया था । दादी चार-चार महीने अपने तीनो पुत्रों के यहाँ रहती थीं । चार महीने दिल्ली में उन लोगों के साथ, चार महीने लुधियाना में ताऊ जी के यहाँ और चार महीने चाचा जी के यहाँ जो ग्वालियर में बैंक मैनेजर थे । दादी को सबसे अच्छा दिल्ली में अपनी बहू  शारदा के पास लगता था । सुनयना को अब भी याद है , हर छोटे-से-छोटा त्यौहार, व्रत या पूजा  दादी बड़े आडम्बर से करतीं थीं । वे स्वयं तो झक सफ़ेद सूती साड़ी व् पूरी बांह के लम्बे-लम्बे ब्लाउज पहनती थीं और माँ को हर त्यौहार हर पूजा में सख्त हिदायत थी कि वे लाल या पीले रंग की ही साड़ी पहनें और पूरा श्रृंगार करके पूजा करें । हरतालिका तीज हो या गणगौर, वड़ सावित्री हो या महालक्ष्मी, करवाचौथ हो या ऋषि पंचमी की पूजा , माँ पूरी तैयारी करके लाल या पीले रंग की सीधे पल्ले की साड़ी पहनतीं, माथे पर लाल कुमकुम की बड़ी सी बिंदी, पैरों में महावर, हाथों में काँच की लाल चूड़ियाँ , पैरों की तीन-तीन उँगलियों में तीन बिछुए की जोड़ी, माँग में सिन्दूर और सिर पर पल्ला लेकर जब माँ पूरी श्रद्धा से पूजा करतीं तब उसे माँ बहुत ही सुन्दर लगतीं । दादी पूरे  विधि-विधान से पूजा करवाती थीं । घंटो रुच-रुच के प्रसाद बनातीं । कलश स्थापित  करके पहले उसकी पूजा करातीं , फिर गणेश पूजन, गौरी जी की पूजा, फिर कथा कहतीं , मिट्टी के छोटे से हवन कुंड में आम की सूखी  लकड़ियों से हवन करवातीं और अंत में आरती होती । मै और कुमार ललचाई दृष्टि से प्रसाद के थाल की ताक में बैठे रहते, लेकिन दादी भी कम ना थीं, भोग लगने तक प्रसाद छूने भी ना मिलता था । प्रसाद भी क्या स्वादिष्ट होता था, ढेर सारे शुद्ध घी का मोयन दे कर तली गयीं अठ्वाई, आटे  में गुड़ डाल के गूँथ कर धीमी आँच में तली गयीं बिस्किट की तरह कुरकुरी मठरियाँ, जिन्हें तलने में दादी घंटों चौके में गुज़ार देती थीं । जिस धीरज के साथ वे उन्हें तलती वो काबिले-तारीफ था । जब दादी पंजीरी भूनती तो पूरे घर में सौंधी-सौंधी खुशबू फैली रहती । जिस दिन घर में कोई पूजा होती , घर में प्रसाद , धूप, अगरबत्ती, व् हवन की महक समाई रहती । पिताजी कॉलेज से लौट कर दरवाज़े से पुकारते - "अम्मा , चाय के साथ अठ्वाई खिलाओ ।" दादी प्रसन्न हो जातीं, उनकी मेहनत सफल हो जाती जब पिताजी, सुनयना व् सुकुमार स्वाद ले ले कर प्रसाद खाते । एक बार दादी ताऊ जी के पास लुधियाना गयीं थीं, वहीँ उनके आधे शरीर को लकवा मार गया था । सारे दिन घूम-घूम कर काम करने वाली, सुबह शाम मंदिर जाने वाली दादी सिर्फ एक महिना ही पलंग पर रह पायीं थीं । ताऊ जी ने उनका अच्छे-से-अच्छा इलाज कराया था लेकिन जब दादी बिस्तर गंदा कर देतीं और उनकी देखभाल को रखी  गयी बाई बिस्तर साफ़ करने में नाक-भौं सिकोड़ती , उनकी जीने की इच्छा मर जाती । उन्होंने दवा खाना छोड़ दिया, अन्न-जल त्याग दिया और उनके अंतिम क्षणों में पूरा परिवार उनके साथ था । उन्होंने चैन से अंतिम साँस ली । सुकुमार बहुत छोटा था, मृत्यु का अर्थ नहीं समझता था किन्तु सुनयना सातवीं में थी । वो जानती थी कि मृत्यु के पश्चात व्यक्ति कभी वापस नहीं आता । वह माँ से लिपट कर बहुत रोई थी लेकिन जब पिताजी के शव के सामने माँ रो-रो कर बेहोश हुयी जा रही थीं तब वो माँ के निकट तक जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी । सुकुमार दहाड़े मार-मार के रो रहा था, अब वो मृत्यु का अर्थ समझने लगा था । पिताजी के दसवें के दिन जब ताई जी ने माँ के हाथ की चूड़ियाँ तोड़ी, बिछुए व् मंगलसूत्र  उतारा तब वो बाथरूम में स्वयं को बंद करके ना जाने कितनी देर रोटी रही थी । ताऊ जी, चाचाजी सभी ने हमें साथ चलने को कहा लेकिन माँ हमारी पढ़ाई बीच में छुड़ा कर जाने के पक्ष में नहीं थीं । तेरहवीं के बाद 2-4 दिन और रुक कर सभी अपने-अपने घर वापस चले गए , रह गए मै , सुकुमार और माँ । सभी गुमसुम रहते । 6 दिसंबर के दंगों ने पिताजी को हमसे छीन लिया था । 3-4 महीने बाद मेरी व् कुमार की परीक्षा हुयीं । हम दोनों ने अपनी-अपनी कक्षाओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया था । हम दोनों घर आये तो माँ हमारे रिज़ल्ट देख कर स्वयं को रोक न सकीं । पिताजी की फोटो के सामने दीपक जला कर हम दोनों के रिपोर्ट कार्ड वहाँ  रख दिए । पिताजी की मृत्यु के बाद आज पहली बार माँ ने हलवा बनाया , भगवान् को भोग लगाने के बाद पिताजी की फोटो के सामने एक कटोरी हलवा रखा व् हम दोनों को दिया । इस तरह धीरे-धीरे दिन गुजरने लगे । मै व् सुकुमार अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए और माँ हम दोनों में । पिताजी की पेंशन हम तीनो के लिए पर्याप्त थी । घर हमारा खुद का था । ऊपर के दो कमरे किराए पर दे दिए थे व् नीचे एक हॉल व् एक बेडरूम हम तीनो के लिए काफी था । मै बारहवीं कक्षा में आ गयी व् होनहार छात्रा होने के कारण मुझे छात्रवृत्ति मिलने लगी ।
ताऊ जी को मै विशेष प्रिय थी । वे जब भी दिल्ली आते मेरे लिए 2-3 जोड़ी कपड़े व एक गुड़िया अवश्य लाते , सुकुमार को भी कपड़े मिलते । मै बी.एस.सी. द्वितीय वर्ष में थी । ताऊ जी हमेशा की तरह इस बार भी दिल्ली आये तो मेरे लिए तीन सलवार-सूट व् एक गुड़िया लाये । मै मुस्कुरा उठी, सुकुमार खिलखिला कर हँस पड़ा ।
"ताऊ जी, दीदी इतनी बड़ी हो गयी है फिर भी आप उसके लिए गुड़िया लाते हैं , दीदी के कॉलेज की लड़कियों को पता लग जाए तो वो उसे कितना चिढ़ाएंगी ।" ताऊ जी यह सुन कर गंभीरमुद्रा में सोच में डूब गए ।  माँ चाय व् नाश्ता ले कर आई तो ताऊ जी बोले -"मंझली, बिट्टो तो सचमुच बड़ी हो गयी है, कुछ दिनों में इसका ब्याह करना होगा ।"
"नहीं ताऊ जी, मै पढाई पूरी करुँगी और पिताजी की तरह ही कॉलेज में पढ़ाउंगी ।" धीरे से मैंने विरोध किया ।
"ठीक है बिटिया , हम लोग कौन सा अभी तेरा ब्याह करने जा रहे हैं ।" मै जी-जान से पढाई में जुट गयी । बी.एस.सी. में मैंने अपने कॉलेज में टॉप किया , एम्.एस.सी. में मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रथम स्थान प्राप्त किया और उसके तुरंत बाद मुझे शासकीय महाविद्यालय में गेस्ट फैकल्टी में बाटनी पढ़ाने को मिल गया । एक वर्ष के भीतर पी.एस.सी. से मेरा कन्फर्मेशन हो गया और मेरी पहली पोस्टिंग करोल बाग़ स्थित शासकीय  कन्या महाविद्यालय में हुयी । दो साल बाद मुझे गवर्मेंट साइंस कॉलेज में ट्रांसवर कर दिया गया । यहाँ आये मुझे लगभग 10 माह हो चुके थे । मेरे लखनऊ आने से दो दिन पहले ही ताऊ जी ने माँ को फोन किया था मेरे विवाह के विषय में । मै तुनक गयी थी, "मुझे नहीं करनी है शादी-वादी माँ, हमेशा तुम्हारे साथ ही रहना है ।"
माँ थोड़ा नाराज़ भी हो गयी थी, "बौरा गयी है क्या? अरे दुनियावाले क्या कहेंगे ? इस साल मै तेरी एक नहीं सुनने वाली, तुझे कोई लड़का पसंद हो तो बता दे वरना हमारी पसंद के लड़के से तुझे शादी करनी ही होगी । तेरे ताऊ जी को कितनी चिंता है तेरी, हर तीसरे दिन फोन करते हैं, उनकी कनक का ब्याह भी अगले महीने है । तुझसे 8 महीने ही तो बड़ी है । भाईसाहब तो चाहते थे कि तुम दोनों का ब्याह एक ही मंडप से हो लेकिन तेरी ना-ना से परेशान हो गयी अब मै ।"
मै चुपचाप किताब किताब खोल कर पढ़ती रही और तभी मिसेज़ कौल का कॉल आ गया लखनऊ सेमीनार के लिए । मै भी चाहती थी 2-3 बाहर रहूँ ताकि ये विवाह-प्रसंग टल जाए । मैंने भी झट हाँ कह दिया । ट्रेन में ही सफ़र के दौरान प्रभात से मुलाक़ात हुयी । है तो भला इंसान लेकिन बोलता बहुत है, आज लंच के लिए मैंने मना किया तो उसने निश्चित ही बुरा मन होगा । उंह, माना होगा तो माने , मुझे क्या !
मैंने घड़ी देखी , अरे 11  बज गए । रिमझिम बारिश का दौर जारी था । मै बैठे-बैठे उकता गयी थी । मैंने रूम सर्विस का नंबर मिलाया और वेटर को बुलवाया । पाँच मिनट बाद वेटर आ गया ।
 "सुनो, कुछ मैगज़ीन्स या किसी तरह की किताबें मिलेंगी क्या?"
"जी मैडम, अभी देखता हूँ ।" वो चला गया । कुछ देर बाद वो लोटा तो हाथ में कुछ फ़िल्मी मैगज़ीन्स थीं ।
"मैडम, अभी तो यही किताबें मिलेंगी, मार्किट भी बंद है नहीं तो आपके लिए बुलवा देते ।"
"ठीक है ।"
"मैडम, कुछ और लेंगी ?"
"नहीं, बाद में बता दूंगी । थैंक्स ।"
सुनयना पत्रिकाएं पलटने लगी ।
फ़िल्मी गॉसिप में उसे कोई रूचि ना थी । उसने इण्डिया टुडे उठाई और पलटने लगी । ये तो पिछले हफ्ते की थी, वो ये पढ़ चुकी है  | उसने पत्रिकाएं मेज़ पर पटक दीं । अब क्या करे ! ऐसे ही ना जाने कितना वक़्त गुजारना होगा । उसने टीवी चला दिया । वही दर्दनाक ख़बरें । उसने चैनल बदल दिया, एक चैनल पर पुराने गाने आ रहे थे, वही लगा दिए ।
इधर प्रभात नहा के तैयार हुआ , उसने अपने बॉस को गुड़गॉव फोन लगा कर  हालात की जानकारी दी । घर में कोई ना था, माँ व् पिताजी अमरनाथ यात्रा पर गए थे और छोटा भाई मुम्बई एक इंटरव्यू देने गया हुआ था । टीवी चला कर वो विभिन्न चैनल पर समाचार सुनता रहा । लगभग आधे घंटे बाद उसने टीवी बंद कर दिया । सर्विस कॉल करके उसने एक चाय व् आलू का पराठा व् दही आर्डर किया । परदे हटा कर देखा बारिश का दौर ज़ारी था । अचानक उसे सुनयना का ख्याल आ गया । उसे देखा वो उसे और ज़यादा खूबसूरत लगी । गुलाबी रंग का तंग चूड़ीदार व् कुर्ता कितना फब  रहा था उस पर ।  के साथ ही गुणी  भी है, ये प्रभात की पारखी नज़रों ने देख लिया था, कमरा ऐसा साफ़-सुथरा रखा था मानो अभी चेक-इन किया हो । कहीं कोई अव्यवस्था नहीं , हर चीज़ अपनी जगह पर करीने से रखीं थी और एक प्रभात का कमरा है । उसने अपने कमरे में चारों ओर  एक दृष्टि डाली । एक कोने में जूते पड़े थे, पास ही मोज़े पड़े थे । टेबल पर एयर बैग खुला रखा हुआ था , बिस्तर अस्त-व्यस्त था, गीला तौलिया बिस्तर के कोने पर पड़ा था  । ड्रेसिंग टेबल पर आफ्टर शेव की बोतल लुढ़की पड़ी थी, गनीमत थी ढक्कन बंद था । साइड टेबल पर सिगरेट व् लाइटर पड़ा था । वो चेन स्मोकर नहीं था लेकिन दिन भर में दो-तीन सिगरेट अवश्य पीता था । अपने कमरे की दुर्दशा देख कर वह मुस्कुराया, इतने में दरवाज़े पे आहट  हुयी, वेटर नाश्ता ले कर आया था ।
"सर, नाश्ता । चाय कप में डाल  दूं क्या ?"
"नहीं, ठंडी हो जायेगी । बाद में मै  खुद डाल  लूंगा । अमां यार, ज़रा इस कबाड़ख़ाने को दोबारा इंसानो के रहने लायक बना दो, आज तो कहीं जाना भी नहीं है  नहीं तो काउंटर पे चाभी छोड़ देता ।"
"जी सर ।" वेटर ने बिस्तर समेटा , चादर निकाली, तकिया के खोल निकाले और उन्हें ले कर चला गया । प्रभात नाश्ता करने लगा । कुछ देर बाद वेटर एक सोलह-सत्रह वर्ष के लड़के को साथ ले कर लौटा , उसके हाथ में झाडू थी ।
"सर ये झाडू लगा देगा और बाथरूम साफ़ कर देगा, तब तक मै चादर बदल देता हूँ और कमरा ठीक कर देता हूँ तब तक आप चाहें तो रिसेप्शन तक टहल आइये ।"
हाँ, ये ठीक रहेगा । प्रभात परांठा खा के चाय पी चुका था । उसने सिगरेट का पैकेट व् लाइटर उठाया और बाहर निकल आया । अनायास ही उसकी नज़रें सुनयना के कमरे की ओर गयीं । दरवाज़ा बंद था । प्रभात नीचे चला आया । रिसेप्शन पे जा कर उसने मैनेजर का कमरा पूछा । रिसेप्शनिस्ट ने उसे बताया । थोड़ा आगे जा कर कॉरिडोर के दायें हाथ तरफ मैनेजर का केबिन था । दरवाज़ा खुला था, अन्दर कुर्सी पे एक प्रौढ़ व्यक्ति विराजमान थे, उम्र लगभग 55-60 के बीच रही होगी ।
"एक्सक्यूज़ मी" प्रभात बोला ।
"यस सर, व्हाट कैन आय डू फॉर यू ?" विनम्रता से वे बोले ।
"नथिंग, बस यूँ ही चला आया । मै गुड़गाँव से परसों ही एक मीटिंग के सिलसिले में आया था, कल रात शहर में तनाव हो गया और मेरी मीटिंग भी कैंसिल हो गयी और मै यहाँ अटक गया । कर्फ्यू लगा होने के कारण वापस भी जा नहीं पा रहा । कमरे में कब तक बंद रहूँ तो बस आपसे मिलने चला आया ।"
"तशरीफ़ रखिये, मै अली हसन , यहाँ का मैनेजर हूँ । हमारे यहाँ भी आज कई लोगों को चेक आउट करना थे, उनके रिज़र्वेशंस थे लेकिन वे लोग दंगे के कारण जा नहीं पाए । खुदा जाने कब अक्ल आएगी लोगों को और वे अपना दिमाग इस्तेमाल करेंगे । ना जाने कितने बेक़सूर लोगों की जाने गयीं । एक ज़रा सी बात थी , घर के बड़े-बुज़ुर्ग आपस में बात कर सुलझा लेते लेकिन आग को और भड़का दिया । किस मज़हब में लिखा है कि दो अलग-अलग कौम के बच्चे साथ ज़िन्दगी नहीं गुज़ार सकते ?"
प्रभात चुप था । मैनेजर मुसलमान थे । वो सिर्फ उनकी बातें सुन रहा था ।
"जी, ठीक कहा आपने, ये मामला दो परिवारों के बीच था, वे लोग आपस में समझ लेते, सारे शहर में पेट्रोल डाल कर इस आग में झुलसाने की क्या ज़रूरत थी ?" प्रभात ने समर्थन किया ।
"जानते हैं जनाब, मेरे दो बच्चे हैं । बेटा बैंगलोर में है और बेटी कैनेडा में । मै एक सच्चा मुसलमान हूँ, पाँच वक़्त की नमाज़ पढ़ता हूँ, लेकिन इन खोखले उसूलों पर यकीं नहीं करता । मेरे बेटे रेहान ने अपने साथ काम करने वाली इंजीनियर लड़की आफरीन से निकाह करने की इच्छा ज़ाहिर की , मैंने व् हमारी बेगम ने ख़ुशी-ख़ुशी बच्चों का फैसला क़ुबूल किया व् उनका निकाह करवा दिया । वहीँ मेरी बेटी ने कैनेडा में ही अपने साथ रिसर्च कर रहे हिन्दू लड़के के साथ ज़िन्दगी गुजरने का फैसला किया तब भी हमने उतनी ही ख़ुशी से उन्हें इजाज़त दी और शादी में शरीक भी हुए । बिरादरी में बहुत हल्ला हुआ । मुझे बिरादरी से बाहर कर दिया, किसी मुसलमान के यहाँ कोई फंक्शन , निकाह आदि होता तो हमें नहीं बुलाया जाता था लेकिन मुझे अपने बच्चों की ख़ुशी ज्यादा प्यारी थी । मेरे दोनों बच्चे बेहद खुश हैं जनाब । पिछले साल हम मियाँ-बीवी कैनेडा गए थे । मेरा दामाद मेरी बेटी को सिर-आँखों पर रखता है । वो लोग दीवाली, ईद, क्रिसमस सारे त्यौहार मनाते हैं । मेरी बेटी वहाँ भी रोज़े रखती है और नमाज़ पढ़ती है । दामाद उसके मज़हब की पूरी इज्ज़त करता है । मेरी बेटी अपने ससुराल वालों के साथ हिन्दू रीति रिवाज़ से भी पूजा करती है । सभी त्योहारों पर उपवास वगैरह उसी तरह करती है जैसे आपके यहाँ किये जाते होंगे । शुरू में थोड़ी दिक्कत हुयी थी लेकिन उनका परिवार बहुत खुले विचारों का है , और मेरी बेटी को अब सभी ने पूरी तरह अपना लिया है । बेटी कैनेडा में ही रिसर्च कर रही थी और वहीँ उसका निकाह हुआ, हम यहाँ से शरीक होने गए थे । आप ही बताइए, क्या हमारे देश में रहते हुए मेरी बेटी का निकाह एक हिन्दू लड़के से हो सकता था ? मैंने भी बिरादरी की परवाह नहीं की, सिर्फ अपने बच्चों की ख़ुशी देखी ।"
"वाकई , हसन साहब, काश सबकी सोच आपके जैसी हो तो कोई झगडा, दंगा-फसाद ही ना हो ।" मै खुश हो गया । हसन साहब से बातें करना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, वे एक सुलझे हुए प्रैक्टिकल व्यक्ति थे ।
"हसन साहब, आपको क्या लगता है, कब तक हालात ठीक हो पायेंगे ?"
"कुछ कहा नहीं जा सकता, फिर भी एक-दो दिन तो लग ही जायेंगे । बहुत मार-काट हुयी कल रात पुरानी बस्ती में । अभी तो कर्फ्यू के कारण थोड़ी शान्ति है ।"
"अच्छा , मै चलता हूँ । आपसे मिलकर दिल खुश हो गया हसन साहब, फिर मिलेंगे । नमस्ते ।"
"खुदा हाफ़िज़ , अल्ला ताला आपको लम्बी उम्र बख्शें ।" अली हसन साहब ने आशीष दिया । मै बाहर निकल आया , बारिश थम गयी थी । कलाई घड़ी में नज़र डाली 11:30 बजे थे । मै रेस्टारेंट की ओर मुड़ गया , सोचा ज़रा होटल ही घूम लूं । रेस्टारेंट का नाम था - "दीवान-ए-ख़ास" । बड़ा सा हॉल था, किनारे किनारे टेबल्स लगी हुयीं थीं । बीच में एक बड़ा सा फिश एक्वेरियम था, जिसमे तरह-तरह की छोटी-बड़ी , रंग-बिरंगी मछलियाँ थीं । एक छोटा सा कछुआ भी था । सुन्दर शंख-सीपियों से सजा एक्वेरियम वाकई बेहद खूबसूरत था मानो समन्दर का एक टुकड़ा हो । हॉल की दीवारों पर सुंदर चित्रकारी की गयी थी । कहीं नर्तकी नृत्य कर रही है, कहीं उपवन में एक सुन्दर बाला हिरन के छौने को गोद में लेकर दुलार रही थी । रेस्टारेंट के अन्दर ही बाएं से सहारनपुरी नक्काशी का पार्टीशन करके सुराप्रेमियों के लिए बार था । नाम था -"मयखाना" ।
विदेशी मदिरा की बोतलों से सुसज्जित वह बार भी काबिले-तारीफ था । मै मुड़कर बाहर निकल आया । लिफ्ट से वापस ऊपर पहुँच कर अपने कमरे की ओर बढ़ गया । सुनयना का कमरा अब भी बंद था । वेटर ने चादर, तकिया के गिलाफ, तौलिया सब बदल दिया था, कमरा पुनः पहले की तरह व्यवस्थित हो चुका था, वेटर बाथरूम साफ़ करवा रहा था । मैंने टीवी चला लिया । वेटर चला गया । समाचार चैनल पर जो दंगे के द्रश्य दिखाए जा रहे थे , उनसे मन व्यथित हो गया । कुछ लोकल छुटभैये नेताओं के इंटरव्यू दिखाए जा रहे थे , जो कर्फ्यू हटाने की माँग कर रहे थे । कलेक्टर का भी इंटरव्यू दिखाया गया, उन्होंने स्पष्ट कहा - जब तक हालात सामान्य नहीं होते कर्फ्यू बहाल नहीं किया जाएगा ।
प्रभात का मोबाइल बजा । छोटे भाई प्रणव का कॉल था ।
"हेलो भैया , कैसे हैं आप ? न्यूज़ में देखा कि लखनऊ में तो बड़ी टेंशन हो गयी है । आप तो वहीँ फँस गए होगे ।"
"हाँ मनु, यहाँ कल रात हिन्दू-मुस्लिम दंगा हो गया था , तब से  ही कर्फ्यू लगा हुआ है । मुझे आज निकलना था रात की ट्रेन से , लेकिन नहीं निकल पाउँगा, एक-दो दिन में हालात ठीक हो जायेंगे, तब आ पाउँगा ।"
"ओह, भैया आप होटल से बिलकुल बाहर मत निकलना, कर्फ्यू का मतलब स्थिति गंभीर है । "
"ठीक है भाई, कहीं नहीं जाउंगा, मरना थोड़े ही है मुझे " मै मुस्कुराया ।
"और हाँ इंटरव्यू कैसा रहा तुम्हारा ? "
"अच्छा हुआ भैया, कल फिर से उसी कंपनी में दोबारा बुलाया है, भैया अगर ये जॉब मिल गया तो लाइफ बन जाएगी ।"
"मिल जायेगा, डोंट वरी , अच्छे से तयारी करो , आल द बेस्ट मनु ।"
"थैंक यू भैया, मम्मी-पापा का कॉल आया क्या ? कवरेज में नहीं है उनका सेलफोन ।"
"नहीं दिल्ली में ही आने के पहले बात हुयी थी, अभी वहाँ उन्हें नेटवर्क कहाँ मिलेगा ।"
"ओके भैया, आप अपना ख्याल रखना, बाय ।"
"बाय " … कॉल कट गया । मनु मुझसे चार साल छोटा था, और वो सबके लिए हमेशा छोटा ही था । बारहवीं तक तो माँ ने उसे अकेले शहर से बाहर भी नहीं जाने दिया था । स्कूल के टूर जाते तो वो रो-रो कर घर सिर  पर उठा लेता लेकिन माँ टस  से मस  नहीं होती । जब उसे पूना के इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिला तब माँ क्या करती , मनु को भेजना ही पड़ा । एक महीने तक माँ रोज़ रोती , सुबह - शाम उसे कॉल करती । उसकी याद में खाना भी ना खाती , फिर धीरे-धीरे माँ को आदत हो गयी । सब कुछ सामान्य हो चला था । छुट्टी होते ही मनु घर आता , बीच-बीच में माँ भी पापा के साथ पूना हो आती । बी. ई.  करके उसने पूना के ही सबसे अच्छे कॉलेज सिम्बायसिस  में एमबीए में  एडमिशन मिल गया । कई अच्छे जॉब ऑफर थे लेकिन उसने एक अमेरिकन कंपनी के लिए इंटरव्यू दिया था, कल फिर बुलाया है ।
पापा तीन महीने पहले ही चीफ इन्जीनियर , पी डब्ल्यू डी के पद से रिटायर्ड हुए थे । माँ सेन्ट्रल स्कूल में प्रिंसिपल थीं । घर में कोई कमी ना थी |
मुझे और मनु को बड़े लाड़-प्यार व् संस्कार के साथ पाला गया था । हम दोनों शुरू से ही पढाई में अच्छे थे । पिताजी को तो ऑफिस के काम से कम फुर्सत मिलती थी किन्तु पढाई के मामले में माँ का अनुशासन बेहद कठोर था । वे हम दोनों भाइयों की पढाई पर विशेष ध्यान देती थीं । अब माँ को मेरे विवाह की चिंता थी । अपने सभी परिचितों व् रिश्तेदारों से उन्होंने कह रखा था कि प्रभात के लिए अच्छा रिश्ता बताएं । प्रभात को माँ ने कुछ लड़कियों के फोटो भी दिखाए थे , लेकिन वो लडकियाँ  उसकी चॉइस की नहीं थीं । होठों पे गहरी लाली, आँखों पर मेक-अप , चमकते-दमकते लिबास । वो लडकियाँ  मॉडल ज्यादा नज़र आ रही थीं । प्रभात को पसंद थी - सादगी । अचानक उसकी आँखों के सामने एक सलोना, लुभावना, मनमोहक चेहरा घूम गया । प्रभात के होठों पे मुस्कराहट आ गयी । उसने वक़्त देखा । दोपहर के 1 : 00 बजे थे , बारिश रुक चुकी थी, मौसम बेहद सुहाना था । ठंडी हवा में झूमते-लहराते पेड़ बहुत सुन्दर लग रहे थे ।
चलो खाना खाया जाए, उसने सोचा । जूते पहन कर वो बाहर निकल आया । सुनयना के कमरे के बाहर उसके कदम ठिठक गए । घर से दूर, अकेली लड़की, यूँ कठिन परिस्थितियों में अटकी हुयी है, कम-से-कम खैरियत तो पूछना ही चाहिए , फिर सोचा - वह मेरी भद्रता को अभद्रता ना मान बैठे । क्या करूँ ! इसी कश-म-कश में उसने दरवाज़े पे दस्तक दे दी । कोई जवाब नहीं आया । शायद बाथरूम में हो । उसने दोबारा दस्तक दी सुनयना की नींद टूटी ॥ शायद दरवाज़े पर कोई है । उसने उठ के कपड़े ठीक किये, दुपट्टा डाला और दरवाज़ा खोल दिया ।
"कहिये, क्या चल रहा है ? आज सुबह से बोर हो गया । ना कोई काम है, ना होटल से बाहर जा सकता हूँ । पूरे होटल का भी निरीक्षण कर आया । लंच को नीचे रेस्टारेंट जा रहा था, चलेंगी ?"
"क्या 1 बज गया ? पढ़ते-पढ़ते मेरी आँख लग गयी , काफी देर सोयी मै तो । आप नीचे चलिए मै फ्रेश हो कर आती हूँ ।"
"ठीक है ।" प्रभात चला गया ।
सुनयना ने दरवाज़ा बंद किया । बाथरूम में जा कर मुँह -हाथ धोये । बालों पर कंघा करके एक ढीला सा जूड़ा बनाया और छोटी सी गोल बिंदी लगायी । पर्स व् मोबाइल उठा कर वो कमरा लॉक करके नीचे आ गयी । सीढियाँ  उतर कर सामने दायीं ओर ही रेस्टारेंट था -"दीवान-ए-ख़ास" । अन्दर काफी लोग थे जो उसी होटल में ठहरे होंगे । दो-तीन परिवार थे व् अन्य चार-पाँच टेबल पर पुरुष बैठे थे । एक कोने में प्रभात बैठा था, उसने खड़े होकर हाथ हिलाया । सुनयना उसकी टेबल की ओर बढ़ गयी ।
"आइये, बैठिये प्लीज़" सुनयना बैठ गयी, प्रभात भी बैठ गया । सुनयना को बड़ा अजीब लग रहा था, वो पहले कभी किसी पुरुष के साथ इस तरह होटल वगैरह नहीं गयी थी । सकुचा के उसने मैन्यू उठा लिया और नज़रें झुका कर पढने लगी । प्रभात उसे जितनी बार देखता उसका रूप और भी निखरा हुआ लगता । अच्छी नींद लेने के कारण वो बिलकुल तरो-ताज़ा लग रही थी , जैसे गुलाब की खूबसूरत अधखिली कली ।
सच, कितनी सुन्दर व् सादगी से परिपूर्ण है । एक छोटी सी बिंदी के अलावा कुछ नहीं फिर भी उसकी सुन्दरता अतुल्य है ।
"आपने कुछ ऑर्डर किया ?" सुनयना ने कहते हुए नज़रें उठायीं तो प्रभात को मन्त्रमुग्ध अपनी ओर निहारते हुए पाया ।
"जी नहीं, अभी नहीं ।" प्रभात हड़बड़ा गया, मानो उसकी चोरी पकड़ी गयी हो । सुनयना भी असहज हो गयी ।
"आज आपके पसंद का ही खाना मंगाएंगे , बताइए क्या पसंद है आपको ?" प्रभात ने सहज होते हुए कहा ।
"सूप पियेंगे ?" सुनयना ने पूछा ।
"हाँ, वेज मनचाऊ , और आप ?"
"मै टोमेटो सूप लूँगी ।"
"ओके "
वेटर को बुला कर प्रभात ने सूप ऑर्डर किया ।
"समझ में नहीं आ रहा कि वक़्त कैसे काटें ! ना जाने कर्फ्यू कब हटेगा ? ना बाहर जा सकते हैं ना ही यहाँ यार-दोस्त हैं कि मज़े में छुट्टियाँ गुजारी जाएँ ।" प्रभात बोला ।
"जी हाँ, मै भी सुबह से बोर हो रही हूँ । टीवी कितना देखा जाये, यूँ भी मेरी आदत नहीं ज्यादा टीवी देखने की । यहाँ किताबें भी नहीं हैं कि पढ़ के वक़्त का सदुपयोग करूँ । उधर छोटा भाई और माँ कितनी फ़िक्र कर रहे हैं, परेशान हैं मेरे लिए । " कहते हुए सुनयना के स्वर में चिंता झलक आई ।
"परेशान मत होइए, समाचार देख कर लगा कि कल तक हालात सामान्य हो जायेंगे ।"
सूप आ गया, सुनयना ने खाना ऑर्डर कर दिया । सूप पीते-पीते बातों  का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए प्रभात सुनयना को अपने परिवार के बारे में बताने लगा । माँ, पापा व् मनु सभी के बारे में विस्तार से बताया । बातों-बातों में उसे सुनयना से उसके परिवार कि भी संक्षिप्त जानकारी मिली । सुनयना कम बोलती थी , उसने मुख्य बातें प्रभात को बतायीं ।
"आप दोनों भाई-बहन के नाम बहुत ही प्यारे हैं - सुनयना व् सुकुमार ।"
"धन्यवाद, मेरे पिताजी ने हमारे नाम रखे थे ।"
खाना आ गया, दोनों ने अपनी-अपनी प्लेट में खाना लिया व् खाने लगे । सुनयना ज़्यादातर नज़रें झुकाए रखती थी । प्रभात उसे ध्यान से देख रहा था । सुनयना रोटी के कौर को किस नफासत से तोड़ती , उसे सब्जी में लगाती और धीरे से मुँह खोल के खाती । उसकी संगमरमर सी तराशी लम्बी-लम्बी उंगलियाँ किसी मूर्ती की मालूम होती थीं । सुनयना के प्रति प्रभात का मन कमज़ोर पड़ता जा रहा था । इसलिए नहीं कि वो बहुत सुन्दर थी बल्कि उसका सम्पूर्ण व्यक्तिव एक जादुई आकर्षण लिए हुए था । उसकी सादगी, उसका कम बोलना, धीमे बोलना, उसकी रुचियाँ उसके संस्कार सब कुछ । प्रभात महिलाओं के साथ यूँ भी अपना व्यवहार बेहद संयमित रखता था । वह अन्दर से गंभीर प्रवृत्ति का था, हँसना, बोलना-बतियाना ये सब उसके व्यक्तित्व का हिस्सा थे किन्तु महिलाओं का वह बहुत सम्मान करता था , एवं स्वयं भी सच्चरित्र था । सुनयना का रूप व् उसके  गुण उसे अपने मोहजाल में कैद करते जा रहे थे ।
"आइस क्रीम लेंगी ?"
"ना, मैंने बहुत खा लिया, अब कोई गुंजाइश नहीं ।"
"अरे, आपने कुछ खाया ही कहाँ है ? सब कुछ तो मैंने खाया है ।" प्रभात ने हँसते हुए कहा ।
"नहीं-नहीं, सच में पेट भर गया , अब मै कुछ नहीं खा पाऊँगी ।"
"ओके, चलिए ।"
वेटर ने बिल में प्रभात के हस्ताक्षर करा लिए ताकि होटल के बिल के साथ उसे जोड़ दिया जाये । दोनों बाहर निकल आये । सीढ़ियों की तरफ बढ़े ही थे कि प्रभात बोला, चलिए थोड़ा बाहर टहल आयें, कमरे में बंद तो दम घुटने लगा है । मौसम भी अच्छा है ।
"चलिए ।" मुस्कुराते हुए सुनयना ने कहा ।
दोनों बगीचे की ओर चले गए । मौसम वाकई अच्छा था । लॉन गीला था इसलिए किनारे बने पत्थर के रास्ते पर वे चलने लगे ।
"कमरे की घुटन से यहाँ कितना भला लग रहा है, इसे कहते हैं ताज़ी हवा ।" कहते हुए प्रभात ने आँखें बंद करके लम्बी साँस ली ।  सुनयना मुस्कुरा दी ।
"जी हाँ, सचमुच, बंद कमरे में सारा वक़्त गुज़ारना किसी सज़ा से कम नहीं ।" सुनयना ने जवाब दिया । तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी । मेजर साहब का फोन था ।
"हेलो "
"नमस्ते भाईसाहब"
"नमस्ते जी, कैसी हैं आप ?"
"ठीक हूँ, अभी-अभी लंच ले कर ज़रा बगीचे में टहलने आ गयी थी ।"
"देखो सुनयना, आज शाम 4:00 बजे कर्फ्यू हट रहा है, आप कहो तो रात की ट्रेन से आपका रिज़र्वेशन करा दूं ?"
"क्या सचमुच ? जी, ज़रूर भाईसाहब, प्लीज़, आज रात की ही ट्रेन का रिज़र्वेशन यदि मिल जाए तो बहुत अच्छा होगा ।" सुनयना ख़ुशी से उछल पड़ी ।
"ठीक है, मै देखता हूँ, डीआरएम् से कहना होगा, लेकिन हो जाएगा ।" मेजर साहब ने फोन काट दिया ।
"आज 4:00 बजे कर्फ्यू हट रहा है । मै रात में ही निकल जाउंगी अगर रिज़र्वेशन हो गया तो ।" सुनयना ने ख़ुशी से चहकते हुए बताया ।
"वाह, आपका तो काम बन गया , देखता हूँ शायद मेरा भी जुगाड़ हो जाये ।" प्रभात ने वहां के लोकल एजेंट को फोन लगा कर रात की ट्रेन से रिज़र्वेशन करने को कहा । उसने कहा कि थोड़ी देर बाद वह पोजीशन बताता है । सुनयना और प्रभात दोनों ही खुश थे ।
"बस रिज़र्वेशन मिल जाये तो मज़ा आ जायेगा ।" प्रभात ने कहा । मेजर साहब का फिर फोन आ गया ।
"सुनयना, यू आर लकी । सेकेंड एसी में दो ही बर्थ खाली थीं । आपका रिज़र्वेशन हो गया है , मै टिकिट लेकर खुद आउंगा और तभी आपको स्टेशन भी छोड़ दूंगा ।"
"थैंक यू वैरी मच भाईसाहब, मै आपका ये अहसान कभी नहीं भूलूंगी । आप यहाँ ना होते तो मै कितना परेशान हो जाती । थैंक यू सो मच ।" सुनयना बेहद खुश थी ।
"अरे, तुसी की कैंदे हो जी ? भाई भी कहती हो और अहसान भी । मै रात को 9:00 बजे आऊंगा , डिनर आपके साथ ही लेंगे । आपकी ट्रेन 10:30 बजे रात की है , आप तैयार रहना जी , ओके ?"
"जी भाईसाहब, मै  तैयार रहूंगी । नमस्ते ।"
"नमस्ते जी । "
सुनयना ने फोन बंद किया । प्रभात भी मोबाइल पर कहीं बात कर रहा था ।
"अरे यार, कैसे भी वो बर्थ दिलवा लो, ऊपर से कुछ ले-दे कर कन्फर्म करवा दो । ठीक है मै 5 मिनट में फिर कॉल करता हूँ ।"
"क्या हुआ?" सुनयना ने पूछा ।
"जी, एजेंट कोशिश कर रहा है । मैंने कहा है कहीं भी बर्थ दिलवा दे, स्लीपर , एसी कुछ भी चलेगा । आपका क्या हुआ?" प्रभात ने पूछा ।
"जी, मेरा रिज़र्वेशन कन्फर्म हो गया है । सेकण्ड एसी में दो ही बर्थ खाली थीं, मेजर साहब ने मेरी एक बर्थ कन्फर्म करवा दी है ।  आप ट्राई कीजिये, एक बर्थ शायद अब भी खली है , हो सकता है आपको मिल जाए । "
तभी प्रभात का मोबाइल बजा ।
"हेलो, हाँ बोलो । ओ गुड , थैंक यू । टिकिट कहाँ से कलेक्ट करना है ? ओके , मै टाइम पर पहुँच जाउंगा ।"
प्रभात ने मोबाइल बंद किया और सुनयना की ओर मुस्कुराते हुए देखते हुए बोला -
" चलिए मैडम, हमारा काम भी हो गया, लगता है एक बार फिर आपका सहयात्री बनने वाला हूँ । सेकण्ड एसी में बर्थ मिली है ।" सुनयना हँस पड़ी ।
"चलिए, अच्छा है, अनजान लोगों से तो आप भले ।"
टहलते-टहलते दोनों ने बगीचे का पूरा चक्कर लगा लिया ।
"चलिए, कमरे में वापस चलते हैं ।" सुनयना बोली ।
सुनयना के साथ रहते हुए प्रभात की इच्छा नहीं होती थी कि उससे अलग हो । जबकि वो अल्पभाषिणी थी, फिर भी प्रभात को उसका साथ भला-भला सा लगता । दोनों वापस अपने-अपने कमरे में आ गए । सुनयना ने माँ व् सुकुमार को बारी-बारी से कॉल करके अपने आने की सूचना दी । माँ भी खुश हो गयी और सुकुमार भी । सुनयना ने अपना सारा सामान समेटा व् कपडे तह करके बैग में करीने से जमा दिए । उसने एक सफ़ेद रंग का हल्का सा सूट व् दुपट्टा निकाल कर बाहर रख लिया, ताकि रात की यात्रा में सहूलियत हो । और फिर टीवी चला कर बैठ गयी । लोकल न्यूज़ पर भी कर्फ्यू बहाल होने की घोषणा हो रही थी । दूसरे न्यूज़ चैनल्स पर भी लखनऊ के दृश्य दिखाए जा रहे थे । फिलहाल शहर में शांति थी किन्तु प्रशासन ने एहतियात बरतते हुए रात के समय धारा 144 लगा दी थी । इतने में सुनयना के मोबाइल पे कॉल आया । मिसेज़ कौल का फोन था । सुनयना ने उन्हें सारी स्थिति बताई व् उनके भाई के प्रति बहुत कृतज्ञता प्रकट करते हुए बारम्बार धन्यवाद दिया । मिसेज़ कौल से बात करने के बाद वो फिर टीवी देखने बैठ गयी । अचानक उसे वर्मा जी का ख्याल आया । भद्रतावश उसने उन्हें फोन लगा कर अपने जाने की जानकारी दी व् उनके सहयोग के लिए धन्यवाद दिया ।
 सुनयना टीवी देखते-देखते बोर हो गयी । वक़्त देखा तो साढ़े तीन ही बजे थे । ट्रेन रात को साढ़े दस बजे थी । मेजर साहब भी 9 :00 बजे आयेंगे । "अभी तो बहुत वक़्त काटना है , उफ़, क्या करूँ ? पढने को भी कुछ नहीं । कितना सोऊं ! नींद भी नहीं आ रही ।" सुनयना सोचने लगी । अचानक उसे प्रभात का ख्याल आया । यदि वो ना होता तो कितनी बोरियत हो जाती । ट्रेन से लेकर अभी तक कितना साथ दिया उसने । साथ ही कितना शरीफ भी है, कभी कोई हिमाकत या बदतमीजी नहीं की । हालाँकि कई बार सुनयना ने उसे चोरी-चोरी अपनी ओर निहारते हुए पकड़ा है, किन्तु उसकी नज़रों में गन्दगी कभी नज़र नहीं आई । है भी तो अच्छे संस्कारवान व् शिक्षित घर का ।" सुनयना ने सोचा क्यों न प्रभात से मिल आये, वहीँ चाय भी पी लेगी, कुछ वक़्त भी गुज़र जायेगा । हाँ, ये ठीक रहेगा । उसने टीवी बंद किया , दरवाज़ा लॉक किया और प्रभात के कमरे की ओर कदम बढ़ाये ।
इधर प्रभात अपने कमरे में पहुँचा । सूटकेस खोल के अपने बिखरे सामान को समेट कर जैसे-तैसे उसमे ठूँसा । एक सफ़ेद कुरता व् अलीगढ़ी पजामा निकाल कर उसने सफ़र के लिए रख लिया । आँखें बंद करके वो बिस्तर पे लेट गया । इधर-उधर की बातें सोचते-सोचते उसकी आँख लग गयी । प्रभात को लगा कोई दरवाज़ा खटखटा रहा है ।
"ओह, इस वक़्त कौन है ! ये नालायक वेटर होगा, अभी बताता हूँ इसे " झुंझलाकर प्रभात उठा और दरवाज़ा खोला ।
"ओह, आप शायद सो रहे थे, आय एम् रियली वैरी सॉरी । मै तो बस यूँ ही चली आई थी । आप प्लीज़ सो जाइए । " सुनयना झेंप गयी ।
प्रभात को मानो मुँह माँगी मुराद मिल गयी हो ।
"अरे आप !!! क्या बात है ! वो आये हमारे कमरे में खुदा की कुदरत है, कभी हम उनको कभी अपने बेतरतीब कमरे को देखते हैं ।" हा हा हा हा प्रभात हँस पड़ा । सुनयना भी शरमाते हुए मुस्कुरा दी ।
"सुनयना जी, मै आप जैसा सफाई पसंद नहीं, प्लीज़ मन-ही-मन मुझे बिना बुरा भला कहे या आलोचना किये इस गरीबखाने में आइये  ।" कह कर प्रभात सर झुका कर नमित मुद्रा में खड़ा हो गया । सुनयना हँस पड़ी ।
"जी, मै अन्दर आ जाऊं ?"
"ओह, प्लीज़, प्लीज़ कम इन ।"
सुनयना अन्दर आ गयी । प्रभात ने दरवाज़ा बंद कर दिया , फिर ना जाने क्या सोच कर उसने पूरा दरवाज़ा खोल दिया और स्टॉपर लगा दिया ।
सुनयना ने कमरे में एक भरपूर नज़र डाली और मुस्कुरा दी ।
"सुनयना जी, ये तो निःशब्द मेरा मज़ाक उड़ाना हुआ ।"
"नहीं, इसलिए हँस रही हूँ कि शायद सारे लड़के ऐसे ही होते हैं । सुकुमार का भी यही हाल है ।"
"हा-हा-हा" प्रभात ने ठहाका लगाया ।
"मतलब मै बच गया , अरे हाँ, आपको एक बात बतानी थी, मेरी बर्थ कन्फर्म हो गयी है । आज रात फिर ट्रेन में आपका पड़ोसी हूँ मै ।" प्रभात मुस्कुराया ।
"अच्छा हुआ, आपका भी काम हो गया, अन्यथा यहाँ तो अब घंटे काटना भी मुश्किल हो गया है । "
"हाँ, वाकई सुनयना जी, आपका साथ ना होता तो मै अकेले बहुत बोर हो जाता । वैसे एक दिन यहाँ के मैनेजर साहब से भी मिल कर खूब बातें कर आया मै ।"
सुनयना हँसने लगी । उसे ये सोच कर ही हँसी आ गयी कि प्रभात बिना जान-पहचान के ही होटल के मैनेजर को भी कहानियाँ सुना आया ।
"चाय पियेंगी ?" प्रभात ने पूछा ।
"अरे, लेकिन कुछ देर पहले ही तो हमने खाना खाया है ।"
"अरे, यूँ समझिये कि हम छुट्टियों पर आये हैं । कोई टाइम टेबल नहीं । जब जो मन हो, करो । " प्रभात हँसा ।
"जी, ठीक है, मंगा लीजिये । आपके पास किताबें होंगी क्या ? "
"सुनयना जी, आप तो साहित्यिक टेस्ट की लगती हैं , ट्रेन में भी शिवानी का उपन्यास पढ़ रही थीं । हम ठहरे नीरस मार्केटिंग वाले । कंपनी लॉ ही पढ़ते रहते हैं । "
"तो क्या आप कहानियां, कवितायेँ, उपन्यास वगैरह बिलकुल नहीं पढ़ते ?"
"जी नहीं, ना तो वक़्त मिलता है, ना ही कभी पढ़ीं हैं । हाँ इंडिया टुडे और अखबार रोज़ पढता हूँ । "
"पढना चाहेंगे ? कस्तूरी मृग मै कई बार पढ़ चुकी हूँ । शिवानी जी के बेहतरीन उपन्यासों में से है । मेरे पास है भी । " सुनयना बोली । सुन कर प्रभात मुस्कुराया ।
"ठीक है, आप कहती हैं तो ज़रूर पढूंगा , लेकिन आपकी किताब मेरे पास आ जाएगी ।"
"जी, कोई बात नहीं, मै कई बार पढ़ चुकी हूँ । शिवानी जी, अमृता प्रीतम जी, धर्म वीर भारती, प्रेमचंद्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र इन सभी के सारे उपन्यास, कवितायें व् गद्य मेरे पास हैं । कुछ और भी अच्छे लेखक व् कवियों कि किताबें हैं । मुझे पढ़ने का बहुत शौक है प्रभात जी ।"
"बाप रे, आप तो विदुषी हैं । हम तो आम इंसान हैं मैडम । कंपनी में अपनी एक पोजीशन बनाने को कुछ छोटे-छोटे लक्ष्य हैं । इतनी भारी-भरकम किताबें व् कवियों को हम कहाँ पढ़ सकते हैं भला !"
सुनयना खिलखिला उठी । प्रभात का नाटकीय अंदाज़ बहुत निराला होता था । प्रभात की नज़रें फिर अटक कर रह गयीं ।
"मृगनयनी" वो मन ही मन बुदबुदाया ।
"एक्सक्यूज़ मी" प्रभात ने कहा । उसने रूम सर्विस फोन मिलाया और दो चाय का आर्डर किया ।
"अच्छा एक बात पूछूं ? आप बुरा तो नहीं मानेंगी ?" प्रभात ने कहा ।
"जी नहीं, पूछिये ।"
"आप इतनी पढ़ी-लिखी, वेल सेटल्ड , कल्चर्ड, खूबसूरत हैं, अब तक आपने शादी क्यों नहीं की ?" बिना लाग-लपेट के प्रभात ने सीधा सवाल दाग दिया । सुनयना अचकचा गयी फिर संभल कर बोली -
"जी, ताऊ जी तो लगभग रोज़ ही माँ को फोन करके इस विषय में बात करते हैं, माँ भी रोज़ डांट लगाती है, लेकिन मै अभी मेंटली प्रीपेयर नहीं ।"
"ओके, मेरा भी यही हाल है । माँ आये दिन ये चर्चा लेकर बैठ जाती है, और ना जाने कहाँ-कहाँ से लड़कियों के फोटो ला कर दिखाती रहती हैं । सुनयना जी, मै ऊपर से कितना भी बोल्ड बन लूं लेकिन इस मामले में भीतर से बड़ा कायर हूँ । सोचता हूँ कि कहीं गलत लड़की से विवाह हो गया तो जीवन कैसे कटेगा ? विचार ना मिले तो ? मन ना मिला तो ? बस इसी मुश्किल में निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ ।"
"प्रभात जी, कितना अजीब है न ज़माने का दस्तूर । पिता बचपन में छोड़ कर चले गए , माँ टूट गयी, मुझे लगा मै एकदम से बड़ी हो गयी । सुकुमार छोटा था । मै बढ़ती गयी..... पढ़ती गयी.…ज़िन्दगी को समझती गयी ।
माँ के साथ ही हमेशा रही । आज उस मुकाम पे हूँ जहाँ सब कुछ सही व् ठीक चल रहा है तब सब चाहते हैं कि मै एक नयी ज़िनदगी में पदार्पण करूँ । पुराने रिश्ते-नाते छोड़ के एक नये जीवन की शुरुआत करूँ ? माँ को, सुकुमार को छोड़ कर चली जाऊं किसी अनजान के साथ गठनबंधन करके । कितना अजीब रिवाज़ है ना !"
सुनयना भावुक हो गयी , उसकी आँखें भर आयीं । आज तक उसने किसी से अपने मन की बात ना कही थी । माँ से भी नहीं । कैसे वह एक अजनबी के समक्ष अपना ह्रदय खोल बैठी ? वो सकुचा गयी, लजा गयी ।
"आय एम् सॉरी प्रभात जी । वो टॉपिक ही ऐसा है कि मै भावुक हो गयी ।"
''अरे, इट्स ओके । सच कहूँ, मुझे भी ये बड़ा अजीब लगता है किन्तु क्या किया जाये, दुनिया का यही दस्तूर है । आप बहुत अच्छी हैं आपको बहुत अच्छा जीवन साथी मिलेगा  जो आपके विचारों की कद्र करेगा । मेरी यही शुभकामना है । मै ह्रदय से चाहता हूँ कि आप जहाँ भी रहें खुश रहें सदैव सुखी रहें ।"
सुनयना ने भीगी पलकें उठायीं , प्रभात विचलित हो गया ।
"सुनयना जी प्लीज़ । इसी का नाम ज़िन्दगी है । कुछ पाना, कुछ खोना और कुछ के सपने देखना । "
सुनयना ने स्वयं को सम्भाला । वो चुप थी बिलकुल चुप और ऊपर से शांत । प्रभात उठा और जग से निकाल कर एक ग्लास पानी लाया और सुनयना की ओर बढ़ाया । सुनयना ने कुछ घूंट पानी पीकर ग्लास टेबल पर रख दिया । उसकी नज़रें झुकी हुयी थीं वो दुपट्टे के छोर को ऊँगली में लपेट रही थी । कमरे में सन्नाटा छा गया था । प्रभात अपलक सौंदर्य की उस प्रतिमूर्ति को देख रहा था । ना जाने क्या हुआ, अचानक वो खड़ा हुआ और गंभीर स्वर में बोला -
"सुनयना जी, आपकी पसंद-नापसंद, विवाह के मापदंड क्या हैं, मै नहीं जानता , किन्तु एक प्रस्ताव रखने का साहस कर रहा हूँ । आपकी ही तरह ब्राम्हण कुल का हूँ , सुशिक्षित, संस्कारवान घर का हूँ, एक अच्छी कंपनी में मैनेजर हूँ । ईमानदारी से इतना कमाता हूँ कि अपने परिवार का भरण-पोषण सुख से कर सकूं । क्या आप मुझे अपने योग्य समझती हैं ? मैंने अब तक बहुत सी लड़कियों की तस्वीरें देखी हैं किन्तु आप जैसी सादगी कभी कहीं नहीं देखी । आपको यदि बुरा लगा हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ ।"
सुनयना अवाक रह गयी ।
प्रभात मन-ही-मन घबरा गया । उफ़, ये क्या कर बैठा वो ! क्यों खुद पे संयम ना रख सका ? ये शालीन-सुशील लड़की मेरे बारे में क्या सोच रही होगी ? मात्र तीन दिन की पहचान में मैंने उसके सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रख दिया जबकि अभी-अभी वो बता रही थी कि वो विवाह के लिए तैयार नहीं ।
"सुनयना जी, आय एम् रियली वैरी सॉरी । एक्सट्रीमली सॉरी । जानता हूँ, आपको बहुत बुरा लगा होगा किन्तु मन में जो बात थी वो कह गया ।"
सुनयना खड़ी हो गयी । उसकी झुकी हुयी भीगी पलकों में से आँसू ढलक पड़े ।
"मै चलती हूँ ।" सुनयना मुड़ी और चली गयी । प्रभात उसे रोक ना सका । वो दोनों हाथों से सिर थाम के सोफे पर बैठ गया । दरवाज़े पर आहट हुयी । वेटर चाय ले कर आया था । उसकी चाय पीने की इच्छा मर चुकी थी । वेटर चाय रख के चला गया ।
भारी कदमो से सुनयना ने अपने कमरे का दरवाज़ा खोला । अन्दर पहुँच कर वो बिस्तर पे गिर के फूट-फूट कर रो पड़ी । ये रुदन क्यों था - पीड़ा , ह्रदय का गुबार, विवाह को ले कर असमंजस या प्रभात का प्रस्ताव ?
कुछ देर रोने के पश्चात वह शांत हुयी । बाथरूम में जा कर उसने ठन्डे पानी के छींटे चेहरे पे मारे । बाल सँवारे । कैसी सूरत हो गयी थी , लाल आँखें, रोया-रोया सा चेहरा , रोने से नाक लाल हो गयी थी । कमरे में आ कर उसने खिड़की खोली । ताज़ी हवा के ठन्डे झोंके से उसे कुछ राहत महसूस हुयी । वो गुमसुम सी खड़ी सोच रही थी ।
"प्रभात ने ऐसा क्यों किया ! कितना शरीफ समझा था मैंने उसे ! लेकिन विवाह का प्रस्ताव देने मात्र से क्या उसकी शराफत झूठी हो जाएगी ? फिर भी, रिश्ते क्या यूँ राह चलते तय होते हैं ?या प्रभात ने उसे ऎसी ही लड़की समझ लिया था ? छि , वो क्यों उसके कमरे में गयी ? मात्र तीन दिन की पहचान में इतना अपनापन दिखाएगी तो और क्या होगा ? माँ और कुमार को पता लगा तो वे उसके बारे में क्या सोचेंगे ? अपने चरित्र को आज तक वो इतने प्रस्तावों से ठुकराती-बचाती जिस तलवार की धार पर खरे सोने सा सहेजती आई थी क्या वह पल भर में यूँ तार-तार हो गया ?" धीरे से आकर वो बिस्तर पर बैठ गयी । शून्य में ताकते हुए विचारों के जाल में उलझी सुनयना ने एक घंटा बुत बने यूँ ही गुज़ार दिया । वह छटपटा उठी अपने घर जाने को । जैसे पहली बार घोंसले से निकला शावक अन्धेरा घिर आने पर अपने नीड़ में जाने को तड़प उठता है । एक छोटे बच्चे की तरह उसे माँ के आँचल की याद आने लगी । होटल के कमरे का सन्नाटा उसे शमशान की भांति डरावना लगने लगा । उसके आंसू बह निकले । वह बिस्तर पर निढाल हो लेट गयी और विचारों में डूबते-उतराते ना जाने ना जाने कब उसकी आँख लग गयी ।
मेज पर राखी ट्रे में दो कप रखे थे, केटली की चाय ठंडी हो चुकी थी । प्रभात सुनयना के जाने के बाद से अब तक छ सिगरेट पी चुका था , संभवतः जीवन में पहली बार । वो खुद से बहुत नाराज़ था । उसने बचा खुचा सामान बैग में ठूंसा । कुरता-पायजामा पहना और स्लीपर पहन कर अपना बैग लेकर बाहर निकल आया ।
सुनयना के कमरे के सामने से निकलते वक़्त भी उसने नज़र तक ना डाली और तेजी से सीधे निकल गया । नीचे काउंटर पे पहुँच कर उसने अपना बिल बनाने को कहा । बैग वहीँ रिसेप्शन पे रख कर वो हसन साहब के केबिन पहुँचा । केबिन बंद था । पास से गुज़र रहे वेटर ने बताया कि वे नमाज़ पढने गए हैं । प्रभात ने ट्रेवल एजेंट को कॉल किया ।
"हेलो, प्रभात शुक्ला बोल रहा हूँ । मेरी दिल्ली की टिकिट तैयार है ?"
"हाँ सर, आप आयेंगे? या मै होटल भिजवा दूँ ?"
"नहीं, मै आ रहा हूँ , आप पता बताइए ।"
" 125 , हज़रत गंज, चौराहे के पास । टेक्सी वाले से कहियेगा "सिटी लिंक टूर एंड ट्रैवल्स" पहुँचा दे, तब भी वो पहुँचा देगा ।"
"ओके" प्रभात ने फोन काट दिया ।
काउंटर क्लर्क ने बिल बनाकर प्रभात को थमा दिया । प्रभात ने बिल देखा, पर्स से रूपये निकले और काउंटर पर रख दिए । बकाया रूपये वापस ले कर प्रभात बोला -
"ज़रा टेक्सी मांगा दीजिये, 6 बज गए हैं, अब तो कर्फ्यू हट गया होगा । "
"यस सर, कर्फ्यू हट गया है, आपको 15 मिनट वेट करना पडेगा । आप प्लीज़ बैठिये ।"
"ओके" प्रभात लाउंज में पड़े सोफे पर बैठ गया और सामने पड़े अखबार निरुद्देश्य पलटने लगा ।
"सर, आपकी टेक्सी आ गयी ।"
"ओके, थैंक्स ।"
"सर, ये लीजिये हमारा कार्ड, अगली बार भी ज़रूर आइयेगा ।"
"जी ज़रूर ।" प्रभात ने कार्ड ले कर पर्स में रख लिया ।
"वेटर ने सामान ले जा कर टेक्सी में रखा । प्रभात ने उसे टिप में 100/- दिए । उसने खुश हो कर सलाम ठोंका । "हैप्पी जर्नी सर ।"
"थैंक यू " कह कर प्रभात टेक्सी में बैठ गया । टेक्सी चल पड़ी ।
"सुनो, पहले हज़रात गंज में "सिटी लिंक ट्रैवल्स" चलो वहां से टिकिट उठानी है, फिर स्टेशन चलेंगे ।"
"जी हुज़ूर"
 प्रभात ने पीछे सीट पर टिका कर आँखें बंद कर लीं , और सामने एक लुभावना चेहरा आ गया - सुनयना का । उसने जल्दी से आँखें खोलीं और खिड़की से बाहर देखने लगा । लगभग 15 मिनट बाद टेक्सी रुकी ।
"जनाब, सिटी लिंक ट्रैवल्स आ गया ।" टेक्सी ड्राइवर बोला ।
"ह्म्म्म , रुको, मै अभी आया ।"
"यहाँ पार्किंग नहीं है जनाब, मै वहां सामने पार्किंग में गाड़ी लगता हूँ । आप रोड क्रॉस करके वहीँ आ जाइएगा । दूकान भी सामने से बंद है, पीछे के दरवाज़े से जाइये ।"
"ठीक है" प्रभात उतर गया । पुलिस वाले चारों ओर गश्त कर रहे थे ।
"क्यों जनाब, ऐसे माहोल में आप कहाँ तफरी कर रहे हैं?" एक पुलिसवाले ने प्रभात से पूछा ।
"जी अपनी टिकिट लेने आया हूँ, स्टेशन जा रहा हूँ, वो सामने मेरी टेक्सी खड़ी है, आप चाहें तो साथ चलें ।" प्रभात ने उत्तर दिया ।
"जी हाँ, चलिए । बहुत सख्ती है जनाब । बड़ी मुश्किल से सब शांत हुआ है । आइये ।" पुलिसवाला प्रभात के साथ हो लिया ।
अपनी टिकिट ले कर प्रभात पुलिस वाले के साथ वापस  टेक्सी तक आया । टेक्सी स्टेशन की ओर चल पड़ी ।
अभी मात्र 7 बजे थे और ट्रेन का समय था 10:30 बजे । लखनऊ का भव्य रेलवे स्टेशन आ गया । प्रभात ने बैग उठाया और टेक्सी का पेमेंट कर के अन्दर आ गया । सामने एक बुक स्टाल था । वहाँ गया । नयी इण्डिया टुडे खरीदी और अनमने मन से बेंच पर आ कर बैठ गया । फिर उसने माँ का नंबर ट्राय किया, घंटी गयी ।
"अरे वाह प्रभात,  बस  अभी-अभी नेटवर्क मिला बेटा, पहला कॉल तुम्हारा ही आया है । कैसे हो ?"
"माँ अच्छा हूँ, पापा और आप कैसे हैं ? दर्शन हो गए ?"
"हाँ  बेटा, बहुत अच्छी तरह दर्शन हुए भोले बाबा के । अब वैष्णो देवी जायेंगे, और फिर सीधे दिल्ली । तुम कहाँ हो?"
"माँ , ज़रा टूर पर आया था, दिल्ली के पास ही । स्टेशन में हूँ, कल सुबह पहुँच जाऊंगा ।" प्रभात ने जानबूझ के लखनऊ का नाम नहीं लिया ताकि वे लोग इधर-उधर से खबर मिलने पर चिंतित ना हो जाएँ ।
"ओके बेटा , अपना ख्याल रखना , मनु से बात हुई क्या ?"
"हाँ माँ, उसका इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ है । वो भी ठीक है ।"
"ओके बेटा । पापा अभी ज़रा दूर हैं, मै पहले पहुँच गयी हूँ, वो आ जाएँ तब उनसे भी बात कराती हूँ ।"
"ओके, बाय माँ ।"
प्रभात बेंच पर गुमसुम बैठा आते जाते लोगों के बीच खुद को बेहद अकेला महसूस कर रहा था । इतना बुरा उसे कभी ना लगा था ।
इधर सुनयना कि नींद खुली तो अँधेरा हो चुका था । वो हड़बड़ा कर उठी । उसने लाईट जलाई, वक्त देखा  7 बज के 15 मिनट हुए थे ।
"ओह, मै इतनी देर कैसे सो गयी ?" सुनयना कपडे उठा कर बाथरूम में नहाने घुस गयी , नहा कर बाल बांध कर उसने सारा सामान समेटा । बाथरूम से ब्रश , पेस्ट व् छोटा-मोटा सामान उठाया । और रूम सर्विस को कॉल करके चाय मंगाई । उसका सर दर्द कर रहा था । टीवी चलाया, कर्फ्यू बहाल होने की ख़बरें आ रही थीं ।
तभी दरवाज़े पर आहात हुयी ।
"कौन?" किसी अज्ञात आशंका से वो सिहर गयी कि कहीं प्रभात तो नहीं !
"वेटर मैडम ।"
" मैडम चाय, कुछ और लेंगी क्या ?"
"नहीं, मेरे रूम का बिल ले आओ, मै चेक आउट करुँगी ।"
"ओके मैडम, आपके साथ वाले साहब तो 5 बजे ही चले गए ।"
"हम्म..... " उसने हुंकारा भरा । सुनयना सोच में दूब गयी । मतलब प्रभात चला गया । चलो , अच्छा ही हुआ, अब वो भी उसका सामना नहीं करना चाहती थी । लेकिन क्यों ? उसने तो सुनयना का बहुत साथ दिया । ट्रेन में, लखनऊ में , हर जगह । फिर वो उसके बारे में ऐसा क्यों सोच रही है ?
"मैडम चाय सर्व कर दूं ?"
"हाँआँ ……   नहीं - नहीं, मै ले लूँगी , थैंक्स । आप  मेरे रूम का बिल ले आइये ।"
ओके मैडम " वेटर चला गया । सुनयना ने दरवाज़ा बंद किया और चाय कप में डाल ली । इतने में फोन बजा । माँ का कॉल था ।
"हेलो माँ" सुनयना ने धीमे से कहा ।
"क्या हुआ नैना, तबियत ठीक नहीं क्या बिटिया ? तेरी आवाज़ इतनी बुझी-बुझी क्यों है ?"
"कुछ नहीं माँ, अभी सो कर उठी हूँ न, और अब तुम्हारी याद भी आ रही है ।"
"पगली कहीं की, कल सुबह तो पहुँच जाएगी । कल तेरे पसंद की फुलौरी वाली कढ़ी और चावल बनाउंगी । ठीक है ?" और माँ हँसने लगी । माँ की दुलार भरी आवाज़ सुन कर सुनयना का दिल भर आया । भावनाओं को नियंत्रित करके वो बोली -
"हाँ माँ, बना देना । अभी रखती हूँ, 9 बजे मेजर साहब आयेंगे । डिनर उनके साथ ही करना है । फिर वो ही मुझे स्टेशन छोड़ेंगे । बहुत ही भले हैं वो माँ । छोटी बहन सा ही स्नेह रखते हैं ।"
"हाँ बेटा, तू आ जा, फिर एक बार मै भी उन्हें धन्यवाद का फोन कर दूंगी ।"
"अच्छा माँ , अब रखती हूँ ।" और सुनयना ने कॉल काट दिया । फिर कुछ सोच कर उसने सुकुमार को कॉल किया और बताया कि रात की ट्रेन से चल कर सुबह पहुँच जाएगी, और दिल्ली से कॉल करेगी ।
उसका चाय पीने का बिलकुल मन ना हुआ । बामुश्किल उसने आधा कप चाय घुटकी । अभी 8 बजे थे । एक घंटे वो क्या करे ? वो कुर्सी पे सिर टिका कर सोच में डूब गयी । तभी वेटर आ गया । उसने बिल चेक किया और वेटर को पैसे देने लगी ।
"मैडम, प्लीज़ पेमेंट काउंटर पे कर दीजिये ।"
"ओके ।" सुनयना ने बिल निकाल के फोल्डर में एक सौ का नोट रख दिया । वेटर चला गया । सुनयना ने रूम लॉक किया और नीचे काउंटर पे जा कर बिल अदा किया व् रजिस्टर पे हस्ताक्षर किये और वापस कमरे में आ गयी । तभी मेजर साहब का कॉल आया ।
"आप तैयार हो जी ? पैकिंग-शेकिंग कर ली ? मै आधे घंटे में आता हूँ ।"
"जी भाईसाहब, मै तैयार हूँ । आपको मेरे कारण बहुत परेशानी उठानी पड़ रही है ।" कृतज्ञ भाव से उसने कहा । "ए लो जी, आप फिर इस तरह कि गल्लां कारन लग पड़े । अरे मै दिल्ली आता-जाता हूँ जी, आप अपने हाथ का वढ़िया सा खाना खिला के सारा कर्जा उतार देना । "मेजर साहब ने ठहाका लगाया ।
"जी बिलकुल" सुनयना मुस्कुरा दी । फोन रख के उसने कमरे को ठीक किया । तकिया उठाया, उसके नीचे कस्तूरी-मृग रखी थी । वो फिर गुमसुम हो गयी और खिड़की के पास खड़ी हो गयी ।
इधर स्टेशन पे चहल-पहल बढती जा रही थी । प्रभात दो बार चाय पी चुका था । शाम का अखबार ले कर भी पढ़ चुका था । ज़रूरी फोन कॉल्स भी हो चुके थे । उसकी नज़रें बार-बार में गेट पर अटक रही थी । वो खुद नहीं समझ पा रहा था कि वो सुनयना का इंतज़ार कर रहा है या उससे बचने की कोशिश ।
शारदा को नैना की चिंता हो आई । फोन पर नैना कि बुझी-बुझी आवाज़ सुन कर उसका दिल बैठ गया । बेचारी लड़की । घबरा गयी होगी अकेली अनजान शहर में , होटल के कमरे में अकेले । ऊपर से दंगा-फसाद । नैना आजकल की वाचाल लड़कियों की तरह नहीं है । बहुत ही सौम्य, अल्पभाषिणी व् अंतर्मुखी है । सुकुमार जितना बातूनी है, वो उतनी ही शांत । हे भगवान्, बस सुबह वो सकुशल घर आये । मन-ही-मन प्रार्थना करते हुए शारदा ने हाथ जोड़ कर माथे पर लगाए ।
इधर ठीक 9 बजे अनुशासित मेजर साहब ने दरवाज़ा खटखटाया । मुस्कुराते हुए सुनयना ने अभिवादन किया ।  मेजर साहब अन्दर आ गए ।
"अच्छा हुआ, मामला जल्दी शांत हो गया । कर्फ्यू हट गया, वर्ना आप बहुत परेशान हो जाती ।"
" जी भाईसाहब, आप चाय पियेंगे ?"
"नहीं जी, अब सीधे खाना खायेंगे ? चलिए नीचे रेस्टारेंट में चलते हैं ।" सुनयना अनमनी हो गयी । फिर वही रेस्टारेंट । खैर , उसने विचारों को झटका ।
"चलिए " चाभी उठा के उसने पर्स व् मोबाइल उठाया और कमरा लॉक करके मेजर साहब के पीछे चल दी । दोनों नीचे पहुंचे । रेस्टारेंट में ज्यों ही प्रविष्ट हुए कई जोड़ी आँखें उन्हें घूरने लगीं । सुनयना कुछ असहज हो गयी । मेजर साहब मुस्कुराये ।
"सुनयना, आज इस रेस्टारेंट की किस्मत खुल गयी , मेरी बहन जैसी सुन्दर कुड़ी इस से पहले यहाँ कभी नहीं आई होगी ।" वो हँसे । सुनयना सकुचा गयी । पहली कहाँ, दूसरी बार वो आई है यहाँ ।
"आओ जी बहन जी, इत्थे आ जाओ, वो कोने दी टेबल चंगी है ।"
फिर वही टेबल । उफ़, ये प्रभात पीछा क्यों नहीं छोड़ रहा !
"सुनयना जी, सूप लोगे जी आप ?"
"जी, वेज मनचाऊ ।" वो अचानक कह बैठी ।
"ओके जी, वेटर ……। एक वेज मनचाऊ और एक चिकन स्वीटकॉर्न सूप लाओ ।"
"जी सर " वेटर चला गया ।
"लो जी, मेन्यु से जो अच्छा लगे वो आर्डर करो, वेज ही करो, मैनू पता है, तुसी प्योर वेजिटेरियन हो । और, ज़रा जल्दी करना , हम 10 बजे यहाँ से निकल जायेंगे ।"
"जी भाईसाहब, ज्यादा भूख नहीं है, क्या वेजिटेबल रायता और वेज पुलाव मँगवा लें ?" सुनयना ने प्रश्नसूचक नज़रों से मेजर साहब को देखा ।
"बिलकुल जी, बढ़िया है । अरे हाँ , ये लो, आपका टिकिट ।" कहते हुए उन्होंने टिकिट निकाल को सुनयना को पकड़ा दिया | सुनयना के लाख कहने पर भी उन्होंने उससे टिकिट के पैसे नहीं लिए | सूप आ गया | दोनों सूप पीने लगे | वेटर को खाने का ऑर्डर भी दे दिया | मेजर साहब इधर उधर की बातें करते रहे | सुनयना हूँ-हाँ करती सूप पी रही थी | यूँ भी वो कम बोलती थी फिर आज तो उसका चित्त भी अस्थिर था | सूप ख़त्म हुआ, वेटर बाउल उठाने आ गया |
"सर, खाना लगवाऊं ?"
"हाँ, बिलकुल | " मेजर साहब बोले |
कुछ देर सामान्य बात हुयी | घर-परिवार के विषय में |
"आप अगली बार आओ तब आपको लखनऊ अच्छी तरह घुमाएंगे | तब तक मेरी फैमली भी आ जाएगी , फिर आपको होटल में नहीं ठहरना पड़ेगा |" सुनयना मुस्कुराई |
मेजर साहब सोच रहे थे, आज के ज़माने की हो कर भी कितनी भली और सीधी-सच्ची लड़की है | उन्हें सुनयना बहुत अच्छी लगी |
वेटर प्लेट्स लगा कर खाना ले आया | सुनयना ने थोडा ही खाया | फिंगर बाउल आया | हाथ साफ़ करके मेजर साहब ने बिल मंगवाया |
"भाईसाहब, ये डिनर मेरी तरफ से | प्लीज़, मुझे बिल देने दीजिये |" सुनयना ने धीरे से कहा |
"अरे ना जी, सवाल ही नहीं उठता | छोटी बहन से बिल दिलवाएंगे क्या ?" बिल अदा करके मेजर साहब बोले -
"आपके साथ लड़का भेज देता हूँ, आप उसके साथ जा कर सामान ले आओ , मै लाउंज में वेट करता हूँ |"
"जी भाईसाहब |" सुनयना एक रूम अटेंडेंट के साथ चल दी | उसे बैग दे कर कमरा व् बाथरूम चेक किया कि कुछ छूट तो नहीं गया | नीचे लाउंज में पहुंची, मेजर साहब अखबार पढ़ रहे थे | सुनयना को देख कर वो उठ खड़े हुए |
"आइये जी |"
ड्राइवर ने सामन डिक्की में रखा और सुनयना व् मेजर साहब के लिए दरवाज़ा खोला | ये लोग कार में बैठे, कार चल पड़ी |
"बहन जी, तुसी पान खाओगे ? यहाँ रास्ते में लखनऊ की सबसे बढ़िया पान की दूकान है | ऐसा मघई पान बनता है कि मुँह में रखो और घुल जाए |"
"सुनयना को याद आ गया, ताऊ जी जब भी दिल्ली आते थे, रात के खाने के बाद उसे न कुमार को टहलाने ले जाते और पास ही पान की दुकान में दो पान बनवाते | एक ताऊ जी और एक से आधा-आधा सुनयना व् सुकुमार को मिलता | जब घर लौटते तो माँ खूब नाराज़ होती किन्तु ताऊ जी के सामने कुछ कहने की उनकी हिम्मत ना होती | चमन बहार, सौंफ, गुलकंद, इलायची, लौंग  व् बारीक कतरी सुपारी डला पान वो घंटों मुँह में रखती और जब कत्थे से उसके होंठ सुर्ख लाल हो जाते तो उसे बड़े अच्छे लगते |
"क्या हुआ जी ? रोकें कार ? पान खाओगी ?"
"नहीं भाईसाहब" वो हड़बड़ा गयी  "मै पान नहीं खाती |"
"ओके जी, ड्राइवर जल्दी चलो, 10:30 की ट्रेन है | मैंने पता किया था, ट्रेन राईट टाइम है | "
"यस सर"
इधर स्टेशन पे चार्ट लग चुका था | प्रभात ने भीड़ के बीच में जगह बना कर देखा सेकण्ड एसी में उसका और सुनयना का नाम ऊपर नीचे थे | उसका दिल फिर धड़कने लगा | पहले जिसके साथ यात्रा करने के लिए वो जितना उत्साहित व् खुश था अब उस नाम से भी बचना चाहता है | ट्रेन आने वाली थी | अनाउंसमेंट हो रहा था | उसने स्टाल पे जा कर एक ठंडी पानी की बोतल खरीदी | और ट्रेन का इंतज़ार करने लगा | उद्घोषणा हो रही थी, प्लेटफ़ॉर्म नंबर 1 पर दिल्ली जाने वाली ट्रेन आने वाली है |
सुनयना अब तक क्यों नहीं आई ? क्या मेरे कारण ? क्या उसने इस ट्रेन से जाने का इरादा बदल दिया ? क्या बात हो सकती है ? वो सोच में पड़ गया | कैसी बेवकूफी कर बैठा वो | एक अनजान लड़की के साथ , उफ़ | बार-बार प्रभात उस क्षण को कोस रहा था जब वो सुनयना के सम्मुख कमज़ोर पड़ गया था |
कार रुकी | स्टेशन आ गया | मेजर साहब उतरे और सुनयना उतरे | ड्राइवर ने डिक्की से बैग निकला किनारे रखा और कार पार्किंग में लगा कर तेजी से कदम बढाता हुआ इन लोगों के पास आया | उसने सुनयना का बैग उठा लिया | प्लेटफ़ॉर्म में बहुत चहल-पहल थी | ट्रेन आने वाली थी | मेजर साहब ने चार्ट में उसका नाम देखा और कहा -
"आप एक मिनट रुको |"
"जी , मै वो सामने बुक स्टाल पर हो आऊं ?" सुनयना ने पूछा |
"हाँ जी, हाँ जी, बिलकुल, मै वहीँ आता हूँ |"
सुनयना बुक स्टाल देख कर इस खराब मूड में भी लोभ संवरण ना कर सकी | किताबें उसकी कमजोरी थी | वो स्टाल में किताबें देखने लगी | लगभग सभी अच्छे लेखकों की किताबें उसके पास पहले से थी | कोई नयी अच्छी किताब नज़र नहीं आई | इतने में मेजर साहब एक पानी की और एक ओरेंज जूस की ठंडी बोतल ले कर आ गए |
"ये लो जी, सफ़र में काम आएगा | कोई किताब नहीं ली ?"
"नहीं भाईसाहब , सब पढ़ी हुयी हैं | आपके होते हुए लग ही नहीं रहा कि मै किसी अनजान शहर में हूँ, आपने कितना ख्याल रखा मेरा |" सुनयना भावविहल हो गयी |"
"अरे जी, तुसी ना फॉर्मेलिटी बहुत करते हो | चलो ट्रेन आने ही वाली है, अपनी बोगी नंबर के पास चलते हैं |"
सुनयना ने टिकिट निकालने के लिए पर्स खोला , सामने ही कस्तूरी-मृग रखा था | प्रभात...... ! कहाँ है वो ? सुनयना ने इधर-उधर देखा | प्रभात कहीं नज़र नहीं आया | उसने टिकिट निकाल कर मेजर साहब को दे दी | मेजर साहब ने बोगी नंबर देखा और टिकिट सुनयना को वापस दे दी | उन्होंने तेजी से कदम बढाए | सुनयना व् ड्राइवर उनके पीछे चल पड़े |
प्रभात सुनयना को देख चुका था | सफ़ेद सलवार कमीज़ में वो सादगी की प्रतिमूर्ति नज़र आ रही थी | चेहरे पर किसी देवी सा तेज दीप्तिमान था | प्रभात बैग ले कर तेजी से आगे बढ़ गया | सुनयना का सामना करने की हिम्मत उसमे नहीं थी |
ट्रेन के रुकते ही वह दूसरे डब्बे में चढ़ गया | कुछ देर बाद जब सुनयना सो जाएगी तब वो चुपचाप अपनी बर्थ पे आ जायेगा और सुबह भी उसके जागने से पहले ही चला जाएगा |
मेजर साहब ने सुनयना को उसकी बर्थ तक पहुंचाया | स्नेह से उसके सर पे हाथ रखा और कहा -
"फिर आना, कोई संकोच मत करना और दिल्ली पहुँच कर अपने पहुँचने की खबर कर देना | अब मै चलता हूँ सुनयना |"
"भाईसाहब, दिल्ली पहुँचते ही कॉल करुँगी | आप भी भाभी जी को ले कर दिल्ली ज़रूर आइये |" कह कर सुनयना ने विनम्रता से हाथ जोड़े | मेजर साहब चले गए |
सुनयना ने बोतल खोल कर दो घूँट पानी पिया | डिब्बे में शांति थी | ट्रेन में मौजूद यात्री अपनी-अपनी बर्थ के परदे लगाकर पहले से सो रहे थे | रात्रि  के 10:40 हो चुके थे | इतने में टीसी आये |
"मैडम टिकिट "
"जी" सुनयना ने टिकिट चेक कराई |
"ये बर्थ खाली है क्या? यहाँ से दिल्ली के लिए एक साहब का रिज़र्वेशन है |"
"जी, मुझे नहीं पता |"
"ठीक है, आप आराम से सो जाइए | सुबह 5:30 बजे गाड़ी नयी दिल्ली स्टेशन पहुँच जाएगी |"
"जी थैंक्स |"
टीसी के जाने के बाद सुनयना ने बर्थ पर रखे बेडिंग के पैकेट से चादर निकाल कर बिछायी | कम्बल को दूसरी चादर से कवर किया और तकिया सिरहाने रखा | पर्दा पूरा ना लगा कर उसने थोडा सा खुला छोड़ दिया, उसे बंद परदे में बहुत घुटन होती थी |  एसी की कूलिंग ज्यादा थी | उसने लेट कर पैरों पर कम्बल डाल लिया, हाथ बढ़ा कर लाइट का स्विच ऑफ़ किया और सिरहाने रखे पर्स से फोन निकाल कर समय देखा | 11 बज चुके थे |
प्रभात कहाँ गया ? शायद अपने किये पर शर्मिन्दा है | या सुनयना से नाराज़ हो गया ? वो फिर वही सब सोचने लगी | कैसा है ये चित्त ! न जिससे जान ना पहचान, फिर भी एक अजनबी के लिए क्यों बार-बार वो परेशान हो रही है !
"हुंह, छोड़ो | मुझे क्या !" विचारों को झटक के वो करवट बदल कर आँख मूँद कर लेट गयी |  अचानक आहट हुयी | कोई आया है | शायद प्रभात | उसने कनखियों से देखा | हाँ, वो प्रभात ही था | प्रभात ने चुपचाप बर्थ पे सामान रखा , अपना बिस्तर लगाया और सुनयना के सामने वाली बर्थ में लेट गया | सुनयना को उसके पैर दिख रहे थे | सफ़ेद उजले पाँव | शायद उसने सफ़ेद कुरता पायजामा पहन रखा था | सुनयना को घुटन होने लगी | कुछ घंटों पहले जिसके साथ इतना अच्छा वक़्त गुज़ारा अचानक ही उनके बीच मौन का, झिझक का पर्दा दीवार बन गया |
प्रभात ने पर्दा खुला रहने दिया | वो छोटी सी बर्थ को और बंद कर के नहीं सो सकता था | गैलरी की लाईट ऑन थी | हलकी हलकी रौशनी आ रही थी | उसकी तो नींद उड़ी हुयी थी | मै क्या करूँ ? मुझे क्या करना चाहिए ? किसी भली लड़की के मन में मेरे प्रति जीवन भर कडवाहट नहीं रहनी चाहिए , भले अब जीवन भर उससे सामना ना हो | ये सोच कर प्रभात ने अपने बैग से राइटिंग पैड व् पेन निकाला |
"सुनयना जी, आज के उस विचित्र प्रसंग के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ - प्रभात | "
उसने कागज़ को मोड़ा और बैग में नोट पैड व् पेन वापस रखा | कागज़ मोड़ के उसने जेब में रख लिया और बहुत देर चुपचाप लेटा  रहा | लगभग आधे घंटे बाद वो धीरे से उठा | शायद सुनयना अब सो चुकी है | सामने सुनयना का बैग रखा था | उसने उसकी सामने की ज़िप खोली और चुपचाप वह माफीनामा उसमे रख कर धीरे से ज़िप बंद कर दी और चुपचाप अपनी बर्थ पर आ गया | उसका दिल धड़क रहा था , मानो कोई चोरी की हो | अगर सुनयना देख लेती तो क्या सोचती कि वह उसके बैग को क्यों छू रहा है | उफ़........ प्रभात ने बोतल से पानी पिया और चुपचाप लेट गया | आखरी बार जब उसने वक़्त देखा पौने तीन बजे थे | थकान से उसकी पलकें मुंदने लगीं | ना जाने वो कब गहरी नींद में सो गया |
"सर, दिल्ली आ गया है |" आवाज़ सुन कर प्रभात हड़बड़ा कर उठा | अटेंडेंट ने उसे उठाया | सुनयना उतर चुकी थी | उसने अपना बैग उठाया तभी देखा उसके सिरहाने एक किताब रखी है - कस्तूरी-मृग |
हैरानी से प्रभात ने उसे उठाया , पहला पन्ना खोला और चकित रह गया | सुन्दर अक्षरों में लिखा था -

सुनयना जोशी
146,
सेक्टर - 39
द्वारका, दिल्ली |

प्रभात जी,
अपने परिवार के साथ पधारिये | आपका स्वागत है |
- सुनयना






                                                                                                                                                                                                                              

Comments

  1. डॉ पंकज कपूरMay 4, 2016 at 12:18 AM

    रोली जी
    लाजवाब एवं प्रशंसनीय
    खूबसूरत अंदाज़ के साथ सुखद अंत
    शुभ कामनाएँ

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  2. पंकज जी |
    हार्दिक आभार व् धन्यवाद |आपने धैर्यपूर्वक इतनी लम्बी कहानी पढी व् इसे सराहा :)
    आभार |

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  3. प्यार तो होना ही था ।

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