परम्पराएँ........
अलसुबह सूर्य को
अर्घ्य देते हाथ
अब नहीं दिखते.....
देहरी पे देते ऐपन,
उसे सजाते हाथ
अब नहीं दिखते....
आँचल खींच
घूँघट सँवारते हाथ
अब नहीं दिखते
उन के गोले-सलाइयों में
उलझे हाथ
अब नहीं दिखते.....
सूर्य को नमन का,
अब समय नहीं,
देहरी पर संगमरमर
लग गया है,
साड़ी का पल्ला
कंधे पर ही टिक नहीं पाता,
उन के गोले व् सलाइयाँ
अब इतिहास की बातें हुयीं....
-रोली...
अर्घ्य देते हाथ
अब नहीं दिखते.....
देहरी पे देते ऐपन,
उसे सजाते हाथ
अब नहीं दिखते....
आँचल खींच
घूँघट सँवारते हाथ
अब नहीं दिखते
उन के गोले-सलाइयों में
उलझे हाथ
अब नहीं दिखते.....
सूर्य को नमन का,
अब समय नहीं,
देहरी पर संगमरमर
लग गया है,
साड़ी का पल्ला
कंधे पर ही टिक नहीं पाता,
उन के गोले व् सलाइयाँ
अब इतिहास की बातें हुयीं....
-रोली...
बहुत सही लिखा है आपने ...
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteशब्द और भाव का अदभुद सामंजस्य .....बहुत सारगर्भित रचना!
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा………सुन्दर प्रस्तुति हकीकत बयाँ करती।
ReplyDeleteसचमुच समय बहुत बदल चुका है।
ReplyDeleteराज जी, सुषमा जी, यशवंत जी, संजय जी, वंदना जी , इंडियन जी ...आप सभी का बहुत बहुत आभार......
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