पहेली
मै सुबह उठता और नींद में डूबे हुए खामोश मोहल्ले को हरकत में आते देखता । उजाला धीरे-धीरे अँधेरे की पकड़ से आज़ाद होता हुआ दिखता । पेपर बाँटने वाले पेपरों की पुन्गियाँ बना कर नीम अँधेरे में सटीक निशाने पर उन्हें उन्हें चलती साइकल से फेंकते दिखते । दूधवाले प्लास्टिक के चौकोर टबों में तीन-चार रंगों के पैकेट रखे , घर-घर उन्हें बांटते दिखते ।
साइकल के दोनों ओर डब्बे लटकाए घर-घर जा कर लीटर से मापते, देहरी पर बर्तन लिए गृहिणी को देते हुए दृश्य अब ना के बराबर दिखते ।
मै बिस्तर छोड़, मुँह में टूथ ब्रश घुसेड़े मोहल्ले का आलस्य देखा करता । बालकनी में सुबह पन्द्रह-बीस मिनट खड़े होकर इस मोहल्ले की सुबह देखना मेरी दिनचर्या थी । अंगडाई लेकर मोहल्ला हौले-हौले जाग रहा था ।
ठीक सामने वाली बालकनी का दरवाज़ा आज अब तक बंद था ।
वक्त देखा, सवा छह बज रहे थे । अंदर आ कर कुल्ला किया, मुँह धो कर फिर बाहर आ कर खड़ा हो गया ।
नीचे पैरों पर अखबार दुनिया भर की ख़बरें समेटे चुपचाप पड़ा था । बेमन से मैने उसे उठाया, खोला, तभी चित-परिचित कुण्डी के खड़कने की आवाज़ आई । मै चौकन्ना हो गया नज़रों के सामने अखबार तान लिया ।
सामने वाली बालकनी का दरवाज़ा खुला । मैने अखबार ज़रा नीचे कर लिया । तौलिए में भीगे बालों को समेटे हाथ में धुले हुए कपड़ों की बाल्टी उठाये वो आ गयी । मै कनखियों से देख रहा था । वो एक-एक कपड़ा उठाती, उसे जोर से झटकती और पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें आस-पास बिखर जातीं । उन नन्हें, उड़ते, तैरते मोतियों के बीच वो भी मुझे अधखुली सीप में बंद बड़ा सा मोती लगती । एक-एक करके सारे मोती हवा में बिखरते चले गये । अब मेरी दुस्साहसी नज़रें बड़ी बेशर्मी से उसे एकटक घूरे जा रही थीं । अचानक उसने मुझे देखा । मेरे सारे बदन में सिरहन दौड़ गयी । वो मुझे एकटक देखती रही ....मै अचकचा गया । अखबार फिर तान लिया । खटाक । दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ आई । मैने दीर्घ सांस भरी । अखबार समेटा । मोती फिजां में घुल कर टूट चुके थे । मोहल्ला जाग चुका था । स्कूली बच्चे समूह में कोलाहल करते यूनिफॉर्म पहने चले जा रहे थे । अब दरवाज़ा 11 बजे खुलेगा । मै अंदर आ गया । बिस्तर पे अखबार फैला कर वाकई उसे पढ़ने लगा । पन्द्रह-बीस मिनट में उसे पढ़ कर एक ओर फेंक दिया । वक्त थम गया था । घड़ी की सुई आगे ही ना बढती थी ।
कौन है वो ? क्या करती है ? क्या अकेली है ? सब जानना था मुझे ।
मोहल्ले की रफ़्तार तेज हो चली थी । सब्जीवाला चिल्ला-चिल्ला कर उनके नाम गिना रहा था । उसके इस तरह राग में गा-गा भिन्डी-आलू-करेला-बैंगन का प्रलाप मुझे लगभग ज़बानी याद हो गया था । रद्दी पेपर -कबाड़ वाला, फल वाला , कुकर सुधारवा लो, गैस का चूल्हा ठीक करा लो, वेल्डिंग करा लो....यही सब शाम पाँच-छह बजे तक चलता । लेकिन वो कमबख्त दरवाज़ा तीसरी बार खुलता शाम ६ बजे ।
घड़ी देखी । बैरी वक्त अब भी रुका हुआ था । क्या करूँ की घड़ी के तीनो कांटे एक-दूसरे से रेस लगाने लगें । अपनी बेचैनी पर खुद ही मुस्कुराया । 9 बज चुके थे । नुक्कड़ पर चाय पीने जाने का मन नहीं था । हीटर जलाया , चाय की भगोनी में एक कप पानी डाल कर चीनी व् चाय पत्ती डाल दी, एक चम्मच मिल्क पाउडर डाला । चाय बन गयी, छान कर बालकनी में चुस्की लगाने लगा ।
ऑफिस जाने वाले दोपहिया वाहनों पर दिखने लगे । कामकाजी महिलाये पर्स पकड़े भागमभाग करती दिख रही थीं । चाय ख़त्म हुई । अन्दर आ गया । कोने में पडी टेबल से किताब उठाई और कुर्सी में बैठ गया । आँखें पढ़ रही थीं और दिमाग न जाने क्या क्या सोच रहा था । उथल-पुथल चल रही थी । कुछ देर यूँ ही बेमतलब पढता रहा । दीवार घड़ी पर नज़र डाली, पौने ग्यारह बज चुके थे । मै उठा । बाल संवारे । कुरता ठीक किया । फिर बालकनी में आ गया । सामने दरवाज़ा बंद था । इस घर का मुख्य दरवाज़ा विपरीत दिशा में था, जो मुझे दिखाई नहीं देता था । ये बालकनी उनके पिछवाड़े की बालकनी थी, जहाँ वो रोज कपडे सुखाने व् उन्हें उठाने आती । शाम को वहाँ रखे 2 -4 गमलों में पानी डालती । इस तरह उसके तीन बार दर्शनों का लाभ मै अवश्य लेता ।
काफी देर हो गयी, मैंने अन्दर आ कर वक़्त देखा 11 कब के बज चुके थे । बहुत देर इंतज़ार के बाद भी दरवाज़ा न खुला । मै अन्दर आ गया । मन विचलित था । भूख मर गयी थी । हाँ, प्यास अवश्य रह-रह के लग रही थी । गला सूख रहा था । पुनः किताब उठा कर पढने बैठ गया । एक माह बाद पी .एस . सी की परीक्षा थी ।
मोहल्ला सक्रीय हो गया था और मै निष्क्रीय । 12 बजे कुण्डी खड़की । टिफिन होगा । दरवाज़ा खोला टिफिन थामे लड़का खडा था । अभी नहीं चाहिए । तबियत ठीक नहीं है । रात में ले आना । वो सिर हिला कर पलट कर चला गया । मै फिर पढने बैठ गया । थमते-जमते-रुकते वक़्त घिसट -घिसट कर साढ़े पांच बजे । मै उठा, चाय के बर्तन धो कर रखे । लकड़ी की अलमारी खोल कर कपडे निकाले , तौलिया उठाया और साथ लगे गुसलखाने में घुस गया, दस मिनट में नहा-धो कर मै तैयार था ।
मैंने "प्रतियोगिता-दर्पण" उठायी और बालकनी में खडा हो गया । दिल धाड़-धाड़ धड़क रहा था । 1 -1 मिनट को मै हाथ घड़ी में खिसकते देख रहा था । अचानक आहट हुयी । मै सतर्क हो गया । दिल बल्लियों उछलने लगा । मैंने किताब नीचे की । वो फिर सामने थी । बिखरे मोती समेट रही थी । एक-एक कपड़ा क्लिप निकालकर अपने कंधे पर डालती जा रही थी । लटें चेहरे पर झूम रही थी । चूड़ियाँ खनक रही थीं । वक़्त थम गया था या भागा जा रहा था, समझ नहीं आ रहा था । मै आँखों से अमृत घूँट पी रहा था । मन में आया, पूछूं -"कहाँ थी 11 बजे???" वो चुपचाप यंत्रवत तार पर से कपड़े उतारती रही । फिर अन्दर गयी, तुरंत ही दोबारा बाहर आ गयी । हाथ में बाल्टी थी , गमलों में पानी डालने लगी । मै सपनो की दुनिया में तैरता-उतराता, सुध-बुध खोया उसकी साड़ी के लाल बौर्डर में लिपटा हुआ था कि जैसे मै सपने से जागा, आवाज़ आई - खटाक ।
दरवाज़ा बंद हो गया था । मै मानो धरातल पर गिरा । भारी कदमो से मै अन्दर आ गया । हाथ की किताब फेंकी । पलंग पर बैठ गया । दिमाग शून्य था ....नहीं उथल-पुथल चल रही थी । नहीं ...शायद उसके पल्लू में उलझा था । उफ़ ...ये कैसी पहेली है !
सामने फिर एक लम्बी रात थी । अन्दर आ कर बत्ती जलाई । एक मोटी सी किताब खोल ली । शब्द नृत्य कर रहे थे । कुछ भी समझ ना आता था । खीज कर किताब बंद कर दी । ताला -चाभी उठा कर बाहर आ गया । कमरा लॉक किया और सीढियां उतरने लगा । निरुद्देश्य चला जा रहा था । सामने मोड़ पर नुक्कड़ पे चाय वाला था । वहाँ पहुँच कर चुपचाप खडा हो गया । उसने नज़रें उठा कर मुझे देखा । एक कप चाय थमा दी । मै खम्बे से टिक कर चाय पीने लगा । मोहल्ला शबाब पर था । शाम जवान थी । ऑफिस से लौटने वाले, कुछ थके-हारे, जो जीवन की एकरसता से ऊब चुके थे , तो कुछ उत्साहित युवा , जिनका घर में वैसी ही लाल बौर्डर की साड़ी पहने कोई इंतज़ार करती होगी । मन फिर वहीँ अटक गया । कौन है वो ? अकेली रहती है शायद ! आजतक कोई और तो दिखा नहीं उस बालकनी में । तीन दफे वही दरवाज़ा खोलती है । कपड़े भी जनाना ही सूखते हैं । क्या एक बार उसके घर हो आऊं ? आखिर पड़ोसी है । इस नाते मेरा भी तो कर्तव्य है । उसे कुछ ज़रूरत हो तो काम आ सकूँ !
चाय ख़त्म हुई । जेब में हाथ डालकर कुछ सिक्के निकलकर चायवाले की हथेली पर रखे । घर की ओर चल पड़ा । अपने विचारों को हिम्मत देते हुए उसके दरवाजे जा पहुँचा । गला खंखार कर साफ़ किया । बाल संवारे । कुण्डी की तरफ हाथ बढ़ाया । बड़ा सा अलीगढ़ी ताला लटका मुझे मुँह चिढा रहा था । मायूस अपने कमरे में वापस आ गया । बालकनी में पहुँचा । क्या नाम होगा उसका ? उर्वशी ! अपने इस बचकाने ख्याल पर खुद ही हँस पड़ा । कद-काठी तो सामान्य है । रंग गोरा ...नहीं बहुत गोरा है, जिसे चम्पई कहते हैं, वैसा है । बाल लम्बे हैं या कंधे तक…ये तो देखा नहीं लेकिन जब वो झुक कर बाल्टी से कपड़े उठाती है और दोनों हाथों से तार पर डालती है तब उसकी पतली व् गोरी कमर दिखती है । उसके घुंघराले बाल बंधे रहते किन्तु आगे की लटें हमेशा गालों को चूमती रहतीं । मै 15 दिन पूर्व ही इस कमरे में आया था, तबसे रोज उसे देख रहा हूँ । अब तो दरवाज़ा कल सुबह ही खुलेगा । तभी विचार भंग हुआ । बाहर कुण्डी खड़की । वक़्त देखा , 8 से कुछ ज्यादा हुआ था । शायद टिफिन होगा । इस नए शहर में कोई पहचानवाला भी नहीं था । मै प्रतियोगी परीक्षा की कोचिंग के लिए आया था । अब तक कहीं कुछ जम नहीं पा रहा था । कहीं फीस बहुत अधिक थी, कहीं पढ़ाई ठीक नहीं लग रही थी। दरवाज़ा खोला, टिफिन ही था । टिफिन लिया । दरवाजा बंद । कमरे में ही एक दीवार के सहारे बने प्लेटफार्म पर टिफिन रख दिया ।
एक बड़ा सा कमरा । एक तरफ मेज व् कुर्सी, दूसरी ओर पलंग, तीसरी दीवार पर प्लेटफार्म व् चौथी दीवार से सटा अटैच टॉयलेट था । इसी दीवार पर एक अलमारी बनी थी । पलंग के ठीक बगल में इस कमरे का मुख्य आकर्षण बालकनी का दरवाजा था । मै फिर बालकनी में आ गया ।
मोहल्ला रात में जुगनुओं की तरह चमक रहा था । रंग-बिरंगे जुगनुओं की तरह दूर तक गली की स्ट्रीट लाइटें , घरों की लाइटें, दोपहिया वाहनों की लाइटें व् तंग गली में इक्का दुक्का आने वाली चार पहिया वाहनों के हेड लाइट्स से मोहल्ला चमक रहा था । हार्न का शोर । लोगों का शोर । मेरे भीतर भी एक शोर था । कुछ देर सड़क की तेज़ चाल देख कर मै वापस अन्दर आ गया । विचारों को झटककर मैंने इतिहास की किताब उठा ली । मोहन-जोदड़ो, हड़प्पा की नीरस संस्कृति पढ़ता रहा । मन नहीं लग रहा था । फिर भी पढ़ता रहा । पेन्सिल से कुछ मार्किंग की । पढ़ते-पढ़ते काफी समय बीत गया । अंगडाई ले कर उठा । बालकनी में आया ।
मोहल्ले की गति मद्धम हो चुकी थी । वो भी दिन भर की चाल से बेज़ार हो कर जम्हाइयां ले रहा था । जुगनू बुझने लगे थे । वक़्त देखा । 11 बज चुके थे । क्या करूँ ? खाना खा लिया जाये । भूख अब भी नहीं थी । मैंने हीटर ऑन किया । शर्ट उतार कर खूँटी पर टांग दी । पैंट उतार कर पायजामा पहन लिया । टिफिन खोला । मेरी नीरस दिनचर्या की तरह ही नीरस । पतली अरहर की दाल , बिना घी की पाँच रोटियाँ, आलू-गोभी की मसालेविहीन पीली सी सब्जी , और आखरी डब्बे में मोटे-मोटे चावल । मैंने नाक-भौं सिकोड़ी । दाल-सब्जी क्रमशः गर्म की । स्टील की दो थालियाँ व् चार स्टील की कटोरियाँ धुली हुयी दीवार से टिकी रखी थीं ।
मेरे पास चार ग्लास, चार चम्मच , एक चाकू , चीनी , चाय, मिल्क पाउडर , नमक, मिर्च , अम्मा के हाथ का डाला आम का अचार , शुद्ध घी व् प्लास्टिक के दो डब्बों में ग्लूकोज़ बिस्किट के पैकेट व् नमकीन था । ये थी मेरी गृहस्थी । मेरे पास बिस्तर, कपड़े व् बर्तन ही सिर्फ मेरे थे । बाकी सारा सामान मकान-मालिक वर्मा जी का था ।
मैंने थाली लगायी । सुराही लुढ़का कर पानी भरा । पलंग पर अखबार बिछा कर थाली ले कर बैठ गया । रोबोट की तरह खाता रहा । बेस्वाद खाना खाता रहा । पाँचों रोटियाँ खा गया, चावल भी खा गया । सारा खाना ख़त्म । भूख नहीं थी, फिर भी शांत हो गयी । बर्तन धो-माँज कर रख दिए । कमरे में चहलकदमी करने लगा । परीक्षा पास है, दो बार तो दे चुका हूँ । क्या इस बार कुछ होगा ? सोचते-सोचते बालकनी में आ गया ।
क्वांर का महीना शुरू हो चुका था । रात में फिजां में ठंडक घुल गयी थी । मोहल्ला खामोश था । स्ट्रीट लाइटें छोड़ बाकि लाइटें लगभग बंद हो चुकी थीं । समय ठहर सा गया था । नीरवता पसरी हुयी थी । इस सन्नाटे को चीरती बीच-बीच में गली के कुत्तों की आवाज़ आ जाती थी । मै अंदर आ कर बिस्तर पर लेट गया । बत्ती बुझा दी । ठंडक से सिरहन होने लगी । पैरों तले पड़ी चादर खींच कर ओढ़ ली । विचारों की उमड़ - घुमड़ में जाने कब आँख लग गयी ।
ख़ट -खट -खट । स्वप्न में कोई कुण्डी खड़का रहा था ।
खट -खट -खट ... मै चौंका । मेरी आँख खुल गयी । कोई सच मे दरवाज़े पर है ।
" कौन !!!" मैंने आवाज़ लगायी । जरुर वर्मा जी होंगे । इस वक़्त ...!!! मैं उठा । पैरों में स्लीपर डाली । बत्ती जलाई । वक़्त देखा । आधी रात को 1 बजे ...! दरवाज़ा खोला । स्वप्न ही तो था वह । मेरी कई रातों का मधुर स्वप्न । वो सामने खड़ी थी । गोरी-चिट्टी । वही झूमती लटें ।
"मोमबत्ती होगी क्या ? लाईट चली गयी है ।" मीठी लेकिन सर्द आवाज़ में वह बोली ।
"आँ .....हाँ ....नहीं ...नहीं, मोमबत्ती तो नहीं है ।" मै हड़बड़ा गया ।
"ओह…." वो पलटी । जाने लगी ।
मै लगभग चिल्लाया - "सुनिए, मै देखूँ क्या ज़रा ? फ्यूज़ उड़ा हो शायद । "
वो पलटी - "जी, आइये ।"
"एक मिनट ।" मै अन्दर लपका । कूद कर शर्ट पहनी । पायजामा जल्दी से उतार फेंका, खूँटी पर टंगा पैंट चढ़ाया । हाथ से ही बाल सँवारे और ताला - चाभी उठा कर बाहर आ गया । वो वहीँ खड़ी थी । मैंने लॉक किया ।
"चलिए ..."
उसके हाथ में बड़ी सी टॉर्च थी । वो आगे चल रही थी, मै पीछे । उसके कमर तक लम्बे बाल आज मैंने पहली बार देखे । घूम कर उसके घर पहुँचे ।अन्दर घुप्प अन्धेरा था । टॉर्च की रौशनी में सब दिखने लगा । बरामदा था ये शायद । दो-चार कुर्सियां पड़ी थीं ।
"फ्यूज़ कहाँ है?"
वो दरवाजे के बायीं ओर मुड़ी और ऊपर की तरफ टॉर्च की रौशनी फेंकी । पुराना मीटर था । फ्यूज़ भी जर्जर हालत में लग रहे थे ।
"कुर्सी या स्टूल?"
उसने कोने से एक लकड़ी का ऊँचा सा स्टूल खिसका दिया ।
"टॉर्च मुझे देंगी जरा?"
उसने हाथ बढ़ाया । उसकी उँगलियों से मेरी उँगलियों का स्पर्श हो गया । सर्द उंगलियाँ थीं । मेरे बदन में सिरहन दौड़ गयी । मैंने टॉर्च से फ्यूज़ देखा, निकाला । सब ठीक था ।
"ये तो ठीक है । खम्बे से ही फॉल्ट होगा शायद ।" मै उतर गया । खड़ा हो गया ।
"अब ?" मैंने पूछा ।
"कुछ नहीं, सब ठीक है । धन्यवाद ।" यह इशारा था मुझे, जाने का । मै भी ढीठ बन गया ।
"तकलीफ होगी । अकेले, अँधेरे मे…" जानबूझ कर "अकेले" पर मैंने जोर दिया ।
" नहीं । मै अँधेरे में रह लूँगी । इस घर में अक्सर लाईट जाती है ।"
मै मायूस था, इतनी मुश्किल से हाथ आया मौका गंवाना नहीं चाहता था । कितनी नाशुक्री है ...आधी रात को उठा कर इतनी बेरहम बन रही है ।
"चलता हूँ ।" बेमन से मैंने कहा ।
"जी, शुभरात्रि ।"
अब कुछ भी शेष ना था कहने को । मै पलटा । चलने लगा । शायद वो कुछ कहे । उसने कुछ न कहा ।
मै निराश वापस आ गया । भारी कदमो से सीढियाँ चढ़ रहा था । ताला खोल अन्दर आ गया । कमरे में ठण्ड थी । बालकनी का दरवाज़ा खुला था । ठण्ड बढ़ रही है, दरवाज़ा बंद कर देना चाहिए । आगे बढ़ा । वो फिर सामने थी । मेरा दिल धाड़-धाड़ धड़कने लगा । चाँद की दूधिया रौशनी में चाँदनी सी खूबसूरत ।
हमारी नज़रें मिलीं । वो मुस्कुराई । मेरा दिल निकलकर मानो उसके कदमो में जा गिरा । सफ़ेद साड़ी , लम्बे घुंघराले बाल, लटें रोज की तरह झूमती गालों को चूमतीं । मै मन-ही-मन उसे अपने अन्दर समेट रहा था । रात के लगभग 1 : 30 बजे होंगे । मै और वो अकेले और नींद में डूबा हुआ खामोश मोहल्ला । समय अब सचमुच थम गया था । मै बेशर्मी से उसे एकटक देख रहा था ...और वो मुझे । आज मुझे ना किसी अखबार की आड़ की ज़रूरत थी ना किसी किताब की । निसंकोच मै उसे देख रहा था, और वो मुझे । काश ये रात यहीं थम जाए । उसी में डूबा मै बेसुध था । अचानक वो बालकनी की दीवार पर चढ़ी और कूद गयी । दो मंजिल नीचे ।
मै अवाक । हतप्रद । सब कुछ पलक झपकते हुआ । मै चिल्लाया ।
"ये क्या किया !!! " मै भागा । दरवाज़ा खोला । धड़ाधड़ सीढियाँ उतरता, गिरता-पड़ता उसकी बालकनी के नीचे पहुँचा । वहाँ कोई ना था । मै सुन्न । कहाँ गयी ? ऊपर देखा । वहाँ भी कोई ना था । मै पागल हो गया । भागता हुआ घूम कर उसके दरवाज़े पर पहुँचा । वहाँ वही बड़ा सा ताला लटक रहा था । मै पागलों की तरह दरवाज़ा पीटने लगा । लेकिन खोलता कौन ? मै सिर पकड़ कर वहीँ बैठ गया । कदमों में जान ही ना थी ।
10-15 मिनट बाद लड़खड़ा कर दीवार का सहारा ले कर खड़ा हुआ । फिर उसकी बालकनी के नीचे आया । वहाँ न नीचे कोई था, ना ऊपर । धीरे-धीरे चल कर अपने कमरे में आया । पसीने से भीगा हुआ । ये क्या था ? क्या हुआ ? मै जाग रहा हूँ या क्या मै कोई सपना देख रहा था ?
नहीं, मै पूरे होशो-हवास में था । सुराही से पानी पिया । एक ग्लास । दो ग्लास । प्यास नहीं बुझी । धीरे-धीरे चल कर बालकनी तक आया । सामने वाला दरवाज़ा बंद था ।
खटाक । आज पहली बार मैंने अपना दरवाज़ा भी बंद कर लिया ।
आँखों में नींद ना थी । कुछ समझ ना आ रहा था । जो हुआ वो क्या था ! मै पसीने-पसीने था । डरा हुआ भी ।
कमरे की बत्ती नहीं बुझाई । पौ फटते मेरी आँख लगी । आँख खुली , घड़ी साढ़े दस बजा रही थी । मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा था । मै उठा । कुल्ला करके, ताला लगा कर नुककड़ की चाय की दुकान पर चल दिया । आँख उठाकर भी सामने वाली बालकनी की ओर ना देखा ।
रविवार का दिन । अलसाया मोहल्ला । चाय वाले ने मुझे देख रोज की तरह हाथ में चाय का ग्लास दिया । सामने वर्मा जी खड़े थे । अभिवादन किया ।
"सर, अपने सामने वाले मकान में कौन रहता है ?"
"कोई नहीं, कई साल पहले उस मकान की बालकनी से कूद कर एक बंगाली लड़की ने आत्महत्या कर ली थी । तबसे वहाँ ताला पड़ा है । क्यों?"
मै निरुत्तर था ।
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साइकल के दोनों ओर डब्बे लटकाए घर-घर जा कर लीटर से मापते, देहरी पर बर्तन लिए गृहिणी को देते हुए दृश्य अब ना के बराबर दिखते ।
मै बिस्तर छोड़, मुँह में टूथ ब्रश घुसेड़े मोहल्ले का आलस्य देखा करता । बालकनी में सुबह पन्द्रह-बीस मिनट खड़े होकर इस मोहल्ले की सुबह देखना मेरी दिनचर्या थी । अंगडाई लेकर मोहल्ला हौले-हौले जाग रहा था ।
ठीक सामने वाली बालकनी का दरवाज़ा आज अब तक बंद था ।
वक्त देखा, सवा छह बज रहे थे । अंदर आ कर कुल्ला किया, मुँह धो कर फिर बाहर आ कर खड़ा हो गया ।
नीचे पैरों पर अखबार दुनिया भर की ख़बरें समेटे चुपचाप पड़ा था । बेमन से मैने उसे उठाया, खोला, तभी चित-परिचित कुण्डी के खड़कने की आवाज़ आई । मै चौकन्ना हो गया नज़रों के सामने अखबार तान लिया ।
सामने वाली बालकनी का दरवाज़ा खुला । मैने अखबार ज़रा नीचे कर लिया । तौलिए में भीगे बालों को समेटे हाथ में धुले हुए कपड़ों की बाल्टी उठाये वो आ गयी । मै कनखियों से देख रहा था । वो एक-एक कपड़ा उठाती, उसे जोर से झटकती और पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें आस-पास बिखर जातीं । उन नन्हें, उड़ते, तैरते मोतियों के बीच वो भी मुझे अधखुली सीप में बंद बड़ा सा मोती लगती । एक-एक करके सारे मोती हवा में बिखरते चले गये । अब मेरी दुस्साहसी नज़रें बड़ी बेशर्मी से उसे एकटक घूरे जा रही थीं । अचानक उसने मुझे देखा । मेरे सारे बदन में सिरहन दौड़ गयी । वो मुझे एकटक देखती रही ....मै अचकचा गया । अखबार फिर तान लिया । खटाक । दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ आई । मैने दीर्घ सांस भरी । अखबार समेटा । मोती फिजां में घुल कर टूट चुके थे । मोहल्ला जाग चुका था । स्कूली बच्चे समूह में कोलाहल करते यूनिफॉर्म पहने चले जा रहे थे । अब दरवाज़ा 11 बजे खुलेगा । मै अंदर आ गया । बिस्तर पे अखबार फैला कर वाकई उसे पढ़ने लगा । पन्द्रह-बीस मिनट में उसे पढ़ कर एक ओर फेंक दिया । वक्त थम गया था । घड़ी की सुई आगे ही ना बढती थी ।
कौन है वो ? क्या करती है ? क्या अकेली है ? सब जानना था मुझे ।
मोहल्ले की रफ़्तार तेज हो चली थी । सब्जीवाला चिल्ला-चिल्ला कर उनके नाम गिना रहा था । उसके इस तरह राग में गा-गा भिन्डी-आलू-करेला-बैंगन का प्रलाप मुझे लगभग ज़बानी याद हो गया था । रद्दी पेपर -कबाड़ वाला, फल वाला , कुकर सुधारवा लो, गैस का चूल्हा ठीक करा लो, वेल्डिंग करा लो....यही सब शाम पाँच-छह बजे तक चलता । लेकिन वो कमबख्त दरवाज़ा तीसरी बार खुलता शाम ६ बजे ।
घड़ी देखी । बैरी वक्त अब भी रुका हुआ था । क्या करूँ की घड़ी के तीनो कांटे एक-दूसरे से रेस लगाने लगें । अपनी बेचैनी पर खुद ही मुस्कुराया । 9 बज चुके थे । नुक्कड़ पर चाय पीने जाने का मन नहीं था । हीटर जलाया , चाय की भगोनी में एक कप पानी डाल कर चीनी व् चाय पत्ती डाल दी, एक चम्मच मिल्क पाउडर डाला । चाय बन गयी, छान कर बालकनी में चुस्की लगाने लगा ।
ऑफिस जाने वाले दोपहिया वाहनों पर दिखने लगे । कामकाजी महिलाये पर्स पकड़े भागमभाग करती दिख रही थीं । चाय ख़त्म हुई । अन्दर आ गया । कोने में पडी टेबल से किताब उठाई और कुर्सी में बैठ गया । आँखें पढ़ रही थीं और दिमाग न जाने क्या क्या सोच रहा था । उथल-पुथल चल रही थी । कुछ देर यूँ ही बेमतलब पढता रहा । दीवार घड़ी पर नज़र डाली, पौने ग्यारह बज चुके थे । मै उठा । बाल संवारे । कुरता ठीक किया । फिर बालकनी में आ गया । सामने दरवाज़ा बंद था । इस घर का मुख्य दरवाज़ा विपरीत दिशा में था, जो मुझे दिखाई नहीं देता था । ये बालकनी उनके पिछवाड़े की बालकनी थी, जहाँ वो रोज कपडे सुखाने व् उन्हें उठाने आती । शाम को वहाँ रखे 2 -4 गमलों में पानी डालती । इस तरह उसके तीन बार दर्शनों का लाभ मै अवश्य लेता ।
काफी देर हो गयी, मैंने अन्दर आ कर वक़्त देखा 11 कब के बज चुके थे । बहुत देर इंतज़ार के बाद भी दरवाज़ा न खुला । मै अन्दर आ गया । मन विचलित था । भूख मर गयी थी । हाँ, प्यास अवश्य रह-रह के लग रही थी । गला सूख रहा था । पुनः किताब उठा कर पढने बैठ गया । एक माह बाद पी .एस . सी की परीक्षा थी ।
मोहल्ला सक्रीय हो गया था और मै निष्क्रीय । 12 बजे कुण्डी खड़की । टिफिन होगा । दरवाज़ा खोला टिफिन थामे लड़का खडा था । अभी नहीं चाहिए । तबियत ठीक नहीं है । रात में ले आना । वो सिर हिला कर पलट कर चला गया । मै फिर पढने बैठ गया । थमते-जमते-रुकते वक़्त घिसट -घिसट कर साढ़े पांच बजे । मै उठा, चाय के बर्तन धो कर रखे । लकड़ी की अलमारी खोल कर कपडे निकाले , तौलिया उठाया और साथ लगे गुसलखाने में घुस गया, दस मिनट में नहा-धो कर मै तैयार था ।
मैंने "प्रतियोगिता-दर्पण" उठायी और बालकनी में खडा हो गया । दिल धाड़-धाड़ धड़क रहा था । 1 -1 मिनट को मै हाथ घड़ी में खिसकते देख रहा था । अचानक आहट हुयी । मै सतर्क हो गया । दिल बल्लियों उछलने लगा । मैंने किताब नीचे की । वो फिर सामने थी । बिखरे मोती समेट रही थी । एक-एक कपड़ा क्लिप निकालकर अपने कंधे पर डालती जा रही थी । लटें चेहरे पर झूम रही थी । चूड़ियाँ खनक रही थीं । वक़्त थम गया था या भागा जा रहा था, समझ नहीं आ रहा था । मै आँखों से अमृत घूँट पी रहा था । मन में आया, पूछूं -"कहाँ थी 11 बजे???" वो चुपचाप यंत्रवत तार पर से कपड़े उतारती रही । फिर अन्दर गयी, तुरंत ही दोबारा बाहर आ गयी । हाथ में बाल्टी थी , गमलों में पानी डालने लगी । मै सपनो की दुनिया में तैरता-उतराता, सुध-बुध खोया उसकी साड़ी के लाल बौर्डर में लिपटा हुआ था कि जैसे मै सपने से जागा, आवाज़ आई - खटाक ।
दरवाज़ा बंद हो गया था । मै मानो धरातल पर गिरा । भारी कदमो से मै अन्दर आ गया । हाथ की किताब फेंकी । पलंग पर बैठ गया । दिमाग शून्य था ....नहीं उथल-पुथल चल रही थी । नहीं ...शायद उसके पल्लू में उलझा था । उफ़ ...ये कैसी पहेली है !
सामने फिर एक लम्बी रात थी । अन्दर आ कर बत्ती जलाई । एक मोटी सी किताब खोल ली । शब्द नृत्य कर रहे थे । कुछ भी समझ ना आता था । खीज कर किताब बंद कर दी । ताला -चाभी उठा कर बाहर आ गया । कमरा लॉक किया और सीढियां उतरने लगा । निरुद्देश्य चला जा रहा था । सामने मोड़ पर नुक्कड़ पे चाय वाला था । वहाँ पहुँच कर चुपचाप खडा हो गया । उसने नज़रें उठा कर मुझे देखा । एक कप चाय थमा दी । मै खम्बे से टिक कर चाय पीने लगा । मोहल्ला शबाब पर था । शाम जवान थी । ऑफिस से लौटने वाले, कुछ थके-हारे, जो जीवन की एकरसता से ऊब चुके थे , तो कुछ उत्साहित युवा , जिनका घर में वैसी ही लाल बौर्डर की साड़ी पहने कोई इंतज़ार करती होगी । मन फिर वहीँ अटक गया । कौन है वो ? अकेली रहती है शायद ! आजतक कोई और तो दिखा नहीं उस बालकनी में । तीन दफे वही दरवाज़ा खोलती है । कपड़े भी जनाना ही सूखते हैं । क्या एक बार उसके घर हो आऊं ? आखिर पड़ोसी है । इस नाते मेरा भी तो कर्तव्य है । उसे कुछ ज़रूरत हो तो काम आ सकूँ !
चाय ख़त्म हुई । जेब में हाथ डालकर कुछ सिक्के निकलकर चायवाले की हथेली पर रखे । घर की ओर चल पड़ा । अपने विचारों को हिम्मत देते हुए उसके दरवाजे जा पहुँचा । गला खंखार कर साफ़ किया । बाल संवारे । कुण्डी की तरफ हाथ बढ़ाया । बड़ा सा अलीगढ़ी ताला लटका मुझे मुँह चिढा रहा था । मायूस अपने कमरे में वापस आ गया । बालकनी में पहुँचा । क्या नाम होगा उसका ? उर्वशी ! अपने इस बचकाने ख्याल पर खुद ही हँस पड़ा । कद-काठी तो सामान्य है । रंग गोरा ...नहीं बहुत गोरा है, जिसे चम्पई कहते हैं, वैसा है । बाल लम्बे हैं या कंधे तक…ये तो देखा नहीं लेकिन जब वो झुक कर बाल्टी से कपड़े उठाती है और दोनों हाथों से तार पर डालती है तब उसकी पतली व् गोरी कमर दिखती है । उसके घुंघराले बाल बंधे रहते किन्तु आगे की लटें हमेशा गालों को चूमती रहतीं । मै 15 दिन पूर्व ही इस कमरे में आया था, तबसे रोज उसे देख रहा हूँ । अब तो दरवाज़ा कल सुबह ही खुलेगा । तभी विचार भंग हुआ । बाहर कुण्डी खड़की । वक़्त देखा , 8 से कुछ ज्यादा हुआ था । शायद टिफिन होगा । इस नए शहर में कोई पहचानवाला भी नहीं था । मै प्रतियोगी परीक्षा की कोचिंग के लिए आया था । अब तक कहीं कुछ जम नहीं पा रहा था । कहीं फीस बहुत अधिक थी, कहीं पढ़ाई ठीक नहीं लग रही थी। दरवाज़ा खोला, टिफिन ही था । टिफिन लिया । दरवाजा बंद । कमरे में ही एक दीवार के सहारे बने प्लेटफार्म पर टिफिन रख दिया ।
एक बड़ा सा कमरा । एक तरफ मेज व् कुर्सी, दूसरी ओर पलंग, तीसरी दीवार पर प्लेटफार्म व् चौथी दीवार से सटा अटैच टॉयलेट था । इसी दीवार पर एक अलमारी बनी थी । पलंग के ठीक बगल में इस कमरे का मुख्य आकर्षण बालकनी का दरवाजा था । मै फिर बालकनी में आ गया ।
मोहल्ला रात में जुगनुओं की तरह चमक रहा था । रंग-बिरंगे जुगनुओं की तरह दूर तक गली की स्ट्रीट लाइटें , घरों की लाइटें, दोपहिया वाहनों की लाइटें व् तंग गली में इक्का दुक्का आने वाली चार पहिया वाहनों के हेड लाइट्स से मोहल्ला चमक रहा था । हार्न का शोर । लोगों का शोर । मेरे भीतर भी एक शोर था । कुछ देर सड़क की तेज़ चाल देख कर मै वापस अन्दर आ गया । विचारों को झटककर मैंने इतिहास की किताब उठा ली । मोहन-जोदड़ो, हड़प्पा की नीरस संस्कृति पढ़ता रहा । मन नहीं लग रहा था । फिर भी पढ़ता रहा । पेन्सिल से कुछ मार्किंग की । पढ़ते-पढ़ते काफी समय बीत गया । अंगडाई ले कर उठा । बालकनी में आया ।
मोहल्ले की गति मद्धम हो चुकी थी । वो भी दिन भर की चाल से बेज़ार हो कर जम्हाइयां ले रहा था । जुगनू बुझने लगे थे । वक़्त देखा । 11 बज चुके थे । क्या करूँ ? खाना खा लिया जाये । भूख अब भी नहीं थी । मैंने हीटर ऑन किया । शर्ट उतार कर खूँटी पर टांग दी । पैंट उतार कर पायजामा पहन लिया । टिफिन खोला । मेरी नीरस दिनचर्या की तरह ही नीरस । पतली अरहर की दाल , बिना घी की पाँच रोटियाँ, आलू-गोभी की मसालेविहीन पीली सी सब्जी , और आखरी डब्बे में मोटे-मोटे चावल । मैंने नाक-भौं सिकोड़ी । दाल-सब्जी क्रमशः गर्म की । स्टील की दो थालियाँ व् चार स्टील की कटोरियाँ धुली हुयी दीवार से टिकी रखी थीं ।
मेरे पास चार ग्लास, चार चम्मच , एक चाकू , चीनी , चाय, मिल्क पाउडर , नमक, मिर्च , अम्मा के हाथ का डाला आम का अचार , शुद्ध घी व् प्लास्टिक के दो डब्बों में ग्लूकोज़ बिस्किट के पैकेट व् नमकीन था । ये थी मेरी गृहस्थी । मेरे पास बिस्तर, कपड़े व् बर्तन ही सिर्फ मेरे थे । बाकी सारा सामान मकान-मालिक वर्मा जी का था ।
मैंने थाली लगायी । सुराही लुढ़का कर पानी भरा । पलंग पर अखबार बिछा कर थाली ले कर बैठ गया । रोबोट की तरह खाता रहा । बेस्वाद खाना खाता रहा । पाँचों रोटियाँ खा गया, चावल भी खा गया । सारा खाना ख़त्म । भूख नहीं थी, फिर भी शांत हो गयी । बर्तन धो-माँज कर रख दिए । कमरे में चहलकदमी करने लगा । परीक्षा पास है, दो बार तो दे चुका हूँ । क्या इस बार कुछ होगा ? सोचते-सोचते बालकनी में आ गया ।
क्वांर का महीना शुरू हो चुका था । रात में फिजां में ठंडक घुल गयी थी । मोहल्ला खामोश था । स्ट्रीट लाइटें छोड़ बाकि लाइटें लगभग बंद हो चुकी थीं । समय ठहर सा गया था । नीरवता पसरी हुयी थी । इस सन्नाटे को चीरती बीच-बीच में गली के कुत्तों की आवाज़ आ जाती थी । मै अंदर आ कर बिस्तर पर लेट गया । बत्ती बुझा दी । ठंडक से सिरहन होने लगी । पैरों तले पड़ी चादर खींच कर ओढ़ ली । विचारों की उमड़ - घुमड़ में जाने कब आँख लग गयी ।
ख़ट -खट -खट । स्वप्न में कोई कुण्डी खड़का रहा था ।
खट -खट -खट ... मै चौंका । मेरी आँख खुल गयी । कोई सच मे दरवाज़े पर है ।
" कौन !!!" मैंने आवाज़ लगायी । जरुर वर्मा जी होंगे । इस वक़्त ...!!! मैं उठा । पैरों में स्लीपर डाली । बत्ती जलाई । वक़्त देखा । आधी रात को 1 बजे ...! दरवाज़ा खोला । स्वप्न ही तो था वह । मेरी कई रातों का मधुर स्वप्न । वो सामने खड़ी थी । गोरी-चिट्टी । वही झूमती लटें ।
"मोमबत्ती होगी क्या ? लाईट चली गयी है ।" मीठी लेकिन सर्द आवाज़ में वह बोली ।
"आँ .....हाँ ....नहीं ...नहीं, मोमबत्ती तो नहीं है ।" मै हड़बड़ा गया ।
"ओह…." वो पलटी । जाने लगी ।
मै लगभग चिल्लाया - "सुनिए, मै देखूँ क्या ज़रा ? फ्यूज़ उड़ा हो शायद । "
वो पलटी - "जी, आइये ।"
"एक मिनट ।" मै अन्दर लपका । कूद कर शर्ट पहनी । पायजामा जल्दी से उतार फेंका, खूँटी पर टंगा पैंट चढ़ाया । हाथ से ही बाल सँवारे और ताला - चाभी उठा कर बाहर आ गया । वो वहीँ खड़ी थी । मैंने लॉक किया ।
"चलिए ..."
उसके हाथ में बड़ी सी टॉर्च थी । वो आगे चल रही थी, मै पीछे । उसके कमर तक लम्बे बाल आज मैंने पहली बार देखे । घूम कर उसके घर पहुँचे ।अन्दर घुप्प अन्धेरा था । टॉर्च की रौशनी में सब दिखने लगा । बरामदा था ये शायद । दो-चार कुर्सियां पड़ी थीं ।
"फ्यूज़ कहाँ है?"
वो दरवाजे के बायीं ओर मुड़ी और ऊपर की तरफ टॉर्च की रौशनी फेंकी । पुराना मीटर था । फ्यूज़ भी जर्जर हालत में लग रहे थे ।
"कुर्सी या स्टूल?"
उसने कोने से एक लकड़ी का ऊँचा सा स्टूल खिसका दिया ।
"टॉर्च मुझे देंगी जरा?"
उसने हाथ बढ़ाया । उसकी उँगलियों से मेरी उँगलियों का स्पर्श हो गया । सर्द उंगलियाँ थीं । मेरे बदन में सिरहन दौड़ गयी । मैंने टॉर्च से फ्यूज़ देखा, निकाला । सब ठीक था ।
"ये तो ठीक है । खम्बे से ही फॉल्ट होगा शायद ।" मै उतर गया । खड़ा हो गया ।
"अब ?" मैंने पूछा ।
"कुछ नहीं, सब ठीक है । धन्यवाद ।" यह इशारा था मुझे, जाने का । मै भी ढीठ बन गया ।
"तकलीफ होगी । अकेले, अँधेरे मे…" जानबूझ कर "अकेले" पर मैंने जोर दिया ।
" नहीं । मै अँधेरे में रह लूँगी । इस घर में अक्सर लाईट जाती है ।"
मै मायूस था, इतनी मुश्किल से हाथ आया मौका गंवाना नहीं चाहता था । कितनी नाशुक्री है ...आधी रात को उठा कर इतनी बेरहम बन रही है ।
"चलता हूँ ।" बेमन से मैंने कहा ।
"जी, शुभरात्रि ।"
अब कुछ भी शेष ना था कहने को । मै पलटा । चलने लगा । शायद वो कुछ कहे । उसने कुछ न कहा ।
मै निराश वापस आ गया । भारी कदमो से सीढियाँ चढ़ रहा था । ताला खोल अन्दर आ गया । कमरे में ठण्ड थी । बालकनी का दरवाज़ा खुला था । ठण्ड बढ़ रही है, दरवाज़ा बंद कर देना चाहिए । आगे बढ़ा । वो फिर सामने थी । मेरा दिल धाड़-धाड़ धड़कने लगा । चाँद की दूधिया रौशनी में चाँदनी सी खूबसूरत ।
हमारी नज़रें मिलीं । वो मुस्कुराई । मेरा दिल निकलकर मानो उसके कदमो में जा गिरा । सफ़ेद साड़ी , लम्बे घुंघराले बाल, लटें रोज की तरह झूमती गालों को चूमतीं । मै मन-ही-मन उसे अपने अन्दर समेट रहा था । रात के लगभग 1 : 30 बजे होंगे । मै और वो अकेले और नींद में डूबा हुआ खामोश मोहल्ला । समय अब सचमुच थम गया था । मै बेशर्मी से उसे एकटक देख रहा था ...और वो मुझे । आज मुझे ना किसी अखबार की आड़ की ज़रूरत थी ना किसी किताब की । निसंकोच मै उसे देख रहा था, और वो मुझे । काश ये रात यहीं थम जाए । उसी में डूबा मै बेसुध था । अचानक वो बालकनी की दीवार पर चढ़ी और कूद गयी । दो मंजिल नीचे ।
मै अवाक । हतप्रद । सब कुछ पलक झपकते हुआ । मै चिल्लाया ।
"ये क्या किया !!! " मै भागा । दरवाज़ा खोला । धड़ाधड़ सीढियाँ उतरता, गिरता-पड़ता उसकी बालकनी के नीचे पहुँचा । वहाँ कोई ना था । मै सुन्न । कहाँ गयी ? ऊपर देखा । वहाँ भी कोई ना था । मै पागल हो गया । भागता हुआ घूम कर उसके दरवाज़े पर पहुँचा । वहाँ वही बड़ा सा ताला लटक रहा था । मै पागलों की तरह दरवाज़ा पीटने लगा । लेकिन खोलता कौन ? मै सिर पकड़ कर वहीँ बैठ गया । कदमों में जान ही ना थी ।
10-15 मिनट बाद लड़खड़ा कर दीवार का सहारा ले कर खड़ा हुआ । फिर उसकी बालकनी के नीचे आया । वहाँ न नीचे कोई था, ना ऊपर । धीरे-धीरे चल कर अपने कमरे में आया । पसीने से भीगा हुआ । ये क्या था ? क्या हुआ ? मै जाग रहा हूँ या क्या मै कोई सपना देख रहा था ?
नहीं, मै पूरे होशो-हवास में था । सुराही से पानी पिया । एक ग्लास । दो ग्लास । प्यास नहीं बुझी । धीरे-धीरे चल कर बालकनी तक आया । सामने वाला दरवाज़ा बंद था ।
खटाक । आज पहली बार मैंने अपना दरवाज़ा भी बंद कर लिया ।
आँखों में नींद ना थी । कुछ समझ ना आ रहा था । जो हुआ वो क्या था ! मै पसीने-पसीने था । डरा हुआ भी ।
कमरे की बत्ती नहीं बुझाई । पौ फटते मेरी आँख लगी । आँख खुली , घड़ी साढ़े दस बजा रही थी । मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा था । मै उठा । कुल्ला करके, ताला लगा कर नुककड़ की चाय की दुकान पर चल दिया । आँख उठाकर भी सामने वाली बालकनी की ओर ना देखा ।
रविवार का दिन । अलसाया मोहल्ला । चाय वाले ने मुझे देख रोज की तरह हाथ में चाय का ग्लास दिया । सामने वर्मा जी खड़े थे । अभिवादन किया ।
"सर, अपने सामने वाले मकान में कौन रहता है ?"
"कोई नहीं, कई साल पहले उस मकान की बालकनी से कूद कर एक बंगाली लड़की ने आत्महत्या कर ली थी । तबसे वहाँ ताला पड़ा है । क्यों?"
मै निरुत्तर था ।
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