दो रूप..
सोचती हूँ अक्सर
वह रूप.......
जहाँ रची-बसी
मलिन सी महक
स्याह दीवारें
लहू के लाल
छींटों से चितकबरा दामन,
आहों-कराहों की बेबसी
अँधेरी रातों की गहराई
माँ का खाली पेट
बूँद-बूँद चुचुआता आँचल,
खाली सी
एक थाली
पपड़ाए-थरथराते होंठ,
बेला-चमेली-मोगरे
के सुवासित गजरे
सीलन भरी रातें
दम तोड़ता नन्हा दिया,
मुट्ठी में बंद चंद
पसीने से भीगे नोट,
सोचती हूँ अक्सर...............
यह रूप........
महकता-सरसराता
रेशमी आँचल
अट्टहास व खिलखिलाहट,
संगीत संग
गीत की
स्वर-लहरियों के
गूंजते स्वर,
रजनीगंधा की मधुर महक
भोजन भरपूर पर
क्शुधाहीन नारी-नर
कोना-कोना दीप्त
बड़े झाड़-फानूस से,
हैं नयन पर
स्वप्न नहीं,
है शय्या
पर नींद नहीं,
भोजन है पर
भूख नहीं,
आँचल है पर
दूध नहीं....
हर निशा जहाँ
मधुयामिनी सी है,
वहां,
करवटें बदलता यह रूप....
और भूख से बेहाल
आँखों में स्वप्न संजोये
गहरी-मीठी थकी-थकी
नींद में डूबा वह रूप.....
मै सोचती हूँ अक्सर.............
-रोली पाठक
http://wwwrolipathak.blogspot.com/
truly touched.
ReplyDelete"जीवन के दोनों पहलुओं को दर्शाती है आपकी ये कविता और कई शब्दों से तो चित्र का-सा आभास होता है........."
ReplyDeleteप्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com
behad sanvedansheel lekhan hai...bahut umda.
ReplyDeletebehad sanvedansheel lekhan hai...bahut umda.
ReplyDeleteKoi achcha likhta tha ye hum jante the aur ab sab jaan jaenge,
ReplyDeletekoi hamara dost hai ye hum mante the aur ab sabka dost hai ye sab mante hai.
Thanx Dipesh...
ReplyDeletehousla afzaai ke liye.