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इन खूबसूरत तेरी आँखों में दर्द के मंज़र हम देखते हैं,
तेरे कतरा-कतरा आँसू में सैलाब-ए-समंदर हम देखते हैं
~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~
ना जाने क्यों वो खुद से खफा-खफा रहता है
भीड़ में भी अपने साये तक से जुदा रहता है
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
उसकी बेरुखी पर कितनी बार रूठ जाती हूँ
उसे तो परवाह नहीं, खुद ही खुद को ही मनाती हूँ
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इन खूबसूरत तेरी आँखों में दर्द के मंज़र हम देखते हैं,
तेरे कतरा-कतरा आँसू में सैलाब-ए-समंदर हम देखते हैं
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ना जाने क्यों वो खुद से खफा-खफा रहता है
भीड़ में भी अपने साये तक से जुदा रहता है
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उसकी बेरुखी पर कितनी बार रूठ जाती हूँ
उसे तो परवाह नहीं, खुद ही खुद को ही मनाती हूँ
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Waah Waah Waah...
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